शनिवार, 23 अगस्त 2008

क्षमा की महिमा

नहीं मालूम कि सबसे पहले किसने किस को किस बात के लिए क्षमा किया होगा। पर जब क्षमा किया होगा, तो क्षमाकर्ता इस अहसास से गुजरा होगा कि जैसे उसकी आत्मा पर से कोई बड़ा बोझ हट गया हो। मुमकिन है कि जिस बात के लिए किसी को क्षमा किया जाता है, वह बात समाज की आम रीति में क्षम्य न मानी जाती हो, पर याचना नहीं करने पर भी क्षमा पाने वाला क्षमाकर्ता के प्रति जो कृतज्ञता दर्शाता है, उससे लगता है कि असली मनुष्यता तो क्षमा करने में ही है। कहने को तो कह सकते हैं कि अगर क्षमा इतनी महत्वपूर्ण न होती, तो दुनिया के सारे धर्म क्षमा की स्तुति नहीं गाते, पर क्षमा शायद इससे भी बड़ी चीज है। क्षमा में हार नहीं है, हम समर्पण नहीं कर रहे हैं, बल्कि इस तरह पूरी जीत की तरफ बढ़ा जाता है, शांति हासिल की जाती है और क्या पता, इतिहास में नाम दर्ज कराने का यह एक दुर्लभ मौका हो? अपराधी या शत्रु को क्षमा कर दें, उसे अपना लें और कहें कि भाई, गलती किससे नहीं होती, और देखें कि हमने दुनिया में अचानक कितने मित्र बना लिए हैं।

खुले दरवाजों की ताकत

कल्चर को बचाना है, तो सारे खिड़की-दरवाजे खोल दीजिए। उन तमाम लोगों से सहमत होना मुश्किल है जो इस या उस कल्चर पर बाहरी हमले को लेकर भड़के रहते हैं और चाहते हैं कि बीच में एक दीवार खड़ी कर दी जाए। एक कल्चर पर दूसरी कल्चर का हमला आज की बात नहीं है। जब से सभ्यता शुरू हुई है, यह होता आया है। और हुआ यह भी है कि जिसने अपनी कल्चर को किले में बंद करके घेरना चाहा, वह हमेशा हारता रहा। जैसे संदूक में बंद करके भी कपूर को उड़ने से नहीं बचाया जा सकता, वैसे ही कल्चर भी नहीं बचती। तो हमले से बचने का उपाय है कि निशाना बनने के लिए कुछ छोड़ें ही नहीं। वही कल्चर बची हैं, जो बिना पहरे के छोड़ दी गईं, और इसलिए गंध की तरह दुनिया भर में फैल गईं। उनका किसी से टकराव नहीं हुआ और किसी ने उनका विरोध नहीं किया।

मंगलवार, 19 अगस्त 2008

5 बातें, जो न कहें अपने बॉस से

मैं इतना काम नहीं कर सकता कभी भी बॉस से यह न कहें कि मैं इतना काम नहीं कर सकता। अगर आपके पास बहुत ज्यादा काम है , तो कहें कि मेरे पास पहले से इतना काम है , लेकिन मैं इसे करने की कोशिश करूंगा। पहले ही मना करने से बॉस को यह लगेगा कि आप काम करने से बच रहे हैं। यह मेरी प्रॉब्लम नहीं है जैसे-जैसे व्यक्ति सीनियर होता जाता है , वैसे-वैसे उसकी जिम्मेदारियों में भी इजाफा होता जाता है। दिक्कतों के समय हर किसी को अपनी जूनियर की राय की जरूरत होती है। अगर आपका बॉस ऐसे समय में आपसे कुछ जानना चाहे या किसी तरह की मदद चाहे , तो यह कहने से बचें कि मुझे इससे कोई लेना-देना नहीं या यह मेरी प्रॉब्लम नहीं है। ऐसे समय में उनका हर तरह से सहयोग करें। यह ऑफर लेटर में नहीं था बॉस अगर कोई काम कहे , तो उसे सहजता से स्वीकारें। उसे पर नाक-भौं न सिकोड़े और ना ही कभी यह कहें कि इस तरह का काम तो मेरे ऑफर लेटर में नहीं लिखा था। आपका जवाब आपकी नेगेटिव इमेज बनाएगा , जो आपके करियर के लिए नुकसानदेह हो सकता है। ऑफिस में कई तरह के काम होते हैं। हो सकता है कि उनमें से कुछ काम आपके पद के मुताबिक न हों , लेकिन कभी भी यह न कहें कि यह काम मेरे जॉब प्रोफाइल के मुताबिक नहीं है। एक बात अच्छी तरह गांठ बांध लें कि बॉस के लॉज़िक के सामने आप जीत नहीं सकते। यह तो बेकार आइडिया है बॉस से कभी भी यह न कहें कि आपका आइडिया अच्छा नहीं है। अगर आपको बॉस का आइडिया पसंद नहीं आ रहा है , तो उस पर कोई कमेंट न करें। उसके बजाय अगर आपके दिमाग में कुछ चल रहा है , तो उन्हें बताएं। बातचीत में विन्रमता बनाए रखें , ताकि वह किसी तरह से हर्ट न हों। आप यह बात पूरी तरह दिमाग में बैठा लें कि आपका बॉस सुपरमैन है। उसके जो आइडियाज़ हैं , चाहे वह अच्छे हों या बुरे , आपको उन पर कमेंट करने का कोई अधिकार नहीं है। अभी मैं बिज़ी हूं बॉस से कभी भी यह न कहें कि मैं यह नहीं कर सकता , क्योंकि अभी मैं बिज़ी हूं। सचमुच में अगर आप बेहद बिज़ी हैं , तो उन्हें बिजी होने का कारण बता दें या कहें कि इस काम को करने में इतना समय लग सकता है। इससे बॉस को आपका जवाब बुरा नहीं लगेगा और हो सकता है कि फिर वे उस काम को किसी दूसरे व्यक्ति से करा लें।

गुरुवार, 14 अगस्त 2008

मैं क्या हूं, मेरे मोबाइल से पूछो

भविष्य में किसी से यह सुनना कितना अटपटा होगा कि अपने मोबाइल फोन से वह सिर्फ बात करता है। जरा आज से आठ-दस साल पहले के दौर को याद कीजिए। मोबाइल या सेलफोन किसी-किसी के पास हुआ करता था और उससे वह सिर्फ बात कर पाता था, तो भी वह उसके स्टाइल स्टेटमंट का हिस्सा था। और वह मोबाइल फोन भी ईंट या हथौड़े जैसे हुआ करता था, जिसे संभालना अपने आप में एक जहमत भरा काम था। पर इस दौरान मोबाइल बदल गया। इतना बदला कि अब लोग उससे महज बात नहीं करते। उससे फोटो खींचते हैं, उस पर रेडियो और गाने सुनने हैं। इंटरनेट और बैंकिंग से जुड़े काम तक मोबाइल फोन से होने लगे हैं, मोबाइल फोन पर फिल्में देखने का एक नया ट्रेंड चल पड़ा है और खुद मोबाइल के नए से नए वर्जन सामने आ रहे हैं। पर फ्यूचर में मोबाइल फोन कैसा होगा। मुमकिन है कि वह किसी स्विस नाइफ की तरह हो। यानी एक ऐसा गैजेट, जिससे तरह-तरह के दर्जनों काम हो सकते हों। उनके आकार-प्रकार में भी ऐसी तब्दीलियां हो सकती हैं, जिनके बारे में हम फिलहाल अंदाजे ही लगा सकते हैं। जैसे नेकलेस या ईयर-रिंग में मोबाइल फोन फिट हो सकता है, हम उसे मनचाहे आकार में बनवा सकते हैं, चाहें तो माउथ ऑर्गन शेप में या चेसबोर्ड के रूप में मोबाइल को डिजाइन करवा लें। ऑर्टिफिशल इंटेलिजेंस की मदद से मोबाइल फोन ऐसे दोस्त में बदल सकता है, जो हमारे अकेलेपन का सबसे उम्दा साथी साबित हो सकता है। मोबाइल फोनों को आगे चलकर ज्यादा से ज्यादा इको-फ्रेंडली भी होना है। उन्हें बिजली भी बचानी है और बेकार हो जाने पर पर्यावरण के दुश्मन के रूप में भी नहीं बदलना है। पर सबसे बड़ी संभावना यह है कि मोबाइल फोन हमारी आइडेंटिटी के पुख्ता प्रमाण के तौर स्थापित हो जाएं। आज जिस तरह से व्यक्ति की पहचान के लिए राशन कार्ड, वोटर आईडी कार्ड या पैन कार्ड की जरूरत होती है, उसी तरह भविष्य में लोगों की पहचान का एक जरिया मोबाइल फोन हो सकता है। उसका यूनीक नंबर और सबसे अलहदा डिजाइन व्यक्ति और उसकी पसंद-नापसंद को जाहिर कर सकती है। लेकिन मोबाइल फोन के साथ एक निश्चित खतरा भी जुड़ा है। खतरा यह है कि उन्हें खत्म हो जाना है। काफी हद तो वे अभी भी खत्म हो चुके हैं, उनका बाकी शरीर भी धीरे-धीरे ओझल जाएगा। तब शायद एक ऐसा गैजट हमारे हाथ में होगा, जिसमें कंप्यूटर, इंटरनेट, डिजिटल फोटो कैलंडर, डीवीडी प्लेयर, आईपॉड समेत फोन की खूबियां भी होंगी। जाहिर है, तब हम उस गैजेट को मोबाइल फोन तो हरगिज नहीं कहना चाहेंगे।

कई टाइटैनिक जहाज डूबते रहेंगे


टाइटैनिक जहाज के डूबने के 96 साल बाद इस कुख्यात हो चुके जहाज के थर्ड क्लास पैसिंजर टिकट को कुछ समय पहले 33 हजार पाउंड में एक नीलामी में बेचा गया था। इस जहाज में सवार यात्रियों में कुछ ही लोग बच पाए थे। पांच साल का एक बच्चा लिलियन इन बचे हुए लोगों में था। थर्ड क्लास का पैसिंजर टिकट उसी के निजी संग्रह से नीलामी में आया था। एक पाउंड अस्सी रुपये से भी ज्यादा का होता है। अंदाज लगाया जा सकता है कि तबाही से जुड़ी ऐतिहासिक चीजों की भी कितनी कीमत हो सकती है। नीलामियों का इतिहास हमें कई दिलचस्प बातें बताता रहा है। पश्चिम के कई अनोखे कलेक्टर रॉक गायक एलविस प्रैसली की टीशर्ट या हॉलीवुड की सेक्स सिंबल मर्लिन का अंडरवेयर भी ऊंचे दामों पर नीलामियों से खरीदते रहे हैं। भारत में ओशियान के नेविल तुली ने पुरानी किताबों, पोस्टरों, तस्वीरों, पत्रिकाओं, माचिस की पुरानी डिब्बियों आदि के दाम विभिन्न नीलामियों में बढ़ाए हैं। कोई भी चीज पुरानी है, दुर्लभ है और किसी प्रसिद्ध आदमी या ऐतिहासिक घटना-दुर्घटना से जुड़ी है तो उसके दाम बढ़ाए जा सकते हैं। कला और डाक टिकटों के दुर्लभ संग्रह तो मुंहमांगी कीमतों पर बिकते ही रहे हैं। आज से साठ-सत्तर साल पहले घरों में मिनियेचर आर्ट के दुर्लभ नमूने भी रद्दी मान कर नष्ट-भ्रष्ट कर दिए जाते थे। राजस्थान के वरिष्ठ चित्रकार स्व. रामगोपाल विजयवर्गीय एक बार बता रहे थे कि वह मिनियेचर चित्रों की तलाश में इधर-उधर भटकते हुए एक ऐसे घर में पहुंचे जहां एक मिनियेचर चित्र पर उन्हें नमकीन-मिठाई आदि खिलाने की कोशिश हो रही थी। मेजबान को अंदाज ही नहीं था कि वह किसी महंगी (बल्कि अमूल्य) कलाकृति को रद्दी का कागज समझ रहे हैं। संस्कृति प्रतिष्ठान ने मुलकराज आनंद और फोटोग्राफर लांस डेन के संपादन में 1982 में एक बड़े आकार की पुस्तक 'कामसूत्र' छापी थी। मूल संस्करण का मूल्य 800 रुपये मात्र था। कुछ विवादों के कारण आनंद और डेन की जोड़ी द्वारा तैयार किया गया कामसूत्र दोबारा कभी नहीं छप सकता है। लांस डेन एक अंग्रेज हैं जो पचास से भी अधिक सालों से भारत में रह रहे हैं। उन्होंने भारत के कोने-कोने में घूम कर छायाचित्र खींचे थे। अब वे छायाचित्र तो कुछ नई किताबों में आ गए हैं, पर संस्कृति प्रतिष्ठान की मूल पुस्तक पच्चीस हजार से भी ज्यादा कीमत पर बेची जा सकती है। वह एक रेयर बुक है। ये सब बातें दिमाग में आ रही हैं, इस शर्मनाक खबर को पढ़ते हुए कि कोलकाता की नैशनल लाइब्रेरी से रवींद्र नाथ ठाकुर, नेताजी सुभाष चंद्र बोस, शरत चंद चटजीर्, सरोजिनी नायडू आदि की दुर्लभ पुस्तकें, पांडुलिपियां और पत्र आदि गायब हैं। एक जमाने में कई व्यक्तियों और परिवारों ने इस तरह की सामग्री पुस्तकालयों और महत्वपूर्ण संस्थानों को यह सोच कर मुफ्त में या बहुत कम कीमत पर दी थीं कि आने वाली पीढ़ियां इनका कोई सार्थक इस्तेमाल कर पाएंगी। लेकिन इन संस्थानों के पास साधन भी सीमित रहे हैं, सुरक्षा की कोई उचित व्यवस्था नहीं है और काम करने वाले डेडीकेटेड लोग रिटायर हो चुके हैं। मिसाल के लिए भोपाल स्थित भारत भवन का इतिहास बहुत पुराना नहीं है। वहां एक जमाने में अशोक वाजपेयी, स्व. जगदीश स्वामीनाथन और युवा कलाकारों की टोली के सक्रिय होने से लोक, आदिवासी और समकालीन कला का एक दुर्लभ कला संग्रह बना था। वहां के समकालीन कला के संग्रह का बाजार मूल्य करोड़ों बल्कि अरबों में पहुंच गया है। पर इन सब जगहों पर सुरक्षा, रखरखाव, डेडीकेशन, मिशन और समझ की आज सख्त कमी है। देश के इन महत्वपूर्ण केंद्रों ने अपनी नीतियों में बड़ा परिवर्तन नहीं किया तो कई टाइटैनिक डूबते रहेंगे। हमें पता भी नहीं चलेगा।

मंगलवार, 12 अगस्त 2008

एक डैड की कहानी का सुखद अंत

राजधानी में बुजुर्गों पर हमले, हत्याएं इन दिनों एक आम खबर होती जा रही है। जिस समाज को आज हम बना रहे हैं, उसके बारे में एक नए सिरे से सोचने की जरूरत है। कंस्यूमर कल्चर और जबर्दस्त गैरबराबरी ने नौकरों की तथाकथित वफादारी का अर्थ और संदर्भ बदल दिया है। पन्ना दाई का जमाना नहीं है। वे खाते हैं मलाई, तो तुम्हें भी क्यों न मिले मलाई का जमाना है। तथाकथित अमीर या उच्च मध्य वर्ग में बच्चे कम हैं। इन बच्चों को बेस्ट एजुकेशन मिलती है और वे अमेरिका या ऑस्ट्रेलिया जाकर बस जाते हैं। बुजुर्ग माता-पिता या तो बेटे की भेजी हुई शानदार तस्वीरें देख कर खुश रहते हैं (स्विमिंग पूल भी है मेरे बेटे के घर में) या फिर पोता-पोती होने पर अचानक विदेशj में उनकी जरूरत सामने आ जाती है। मनोविज्ञान की अमेरिकी किताबों में अक्सर 'नीड फॉर अचीवमेंट' के बारे में हम पढ़ा करते थे। उन किताबों में एक भारतीय व्यक्ति की चर्चा होती थी, जो धूप में पेड़ के नीचे पड़ा चैन की नींद ले रहा है। विदेशी उसके पास आता है और पूछता है कि तुम समय (नोट किया जाए - टाइम इज मनी) को बर्बाद क्यों कर रहे हो? तुम यह-यह कर सकते थे। बहुत देर तक भारतीय व्यक्ति विदेशी की बातें गौर से सुनता है। अंत में वह पूछता है कि इतना सब कुछ करने के बाद मुझे आखिर मिलता क्या? 'तुम बहुत अमीर आदमी होते और चैन की नींद सोते।' भारतीय व्यक्ति दोबारा चादर तान कर सोने से पहले उस विदेशी से कहता है, 'मैं चैन की नींद ही तो ले रहा हूं।' पश्चिमी मनोविज्ञान की भाषा में इस व्यक्ति की नीड फॉर अचीवमेंट दरअसल 'लो' है। अब हम यहां दूसरी मिसाल लें। दिल्ली शहर के एक मध्यवर्गीय व्यक्ति से उसका अमीर दोस्त कह रहा है कि तुम अपने इकलौते लड़के को शेरवुड क्यों नहीं पढ़ने भेज देते। मेरे बच्चे वहीं पढ़ते हैं। बेचारा मध्यवर्गीय व्यक्ति शेरवुड की फीस कहां से जुटाए। वह पूछता है 'फिर क्या होगा?' 'तुम्हारे बेटे को आईआईटी में एडमिशन मिल जाएगा।' 'फिर क्या होगा?' 'वह अमेरिका चला जाएगा।' 'तो मैं अपनी सारी कमाई बेटे को अमेरिका भेजने में लगा दूं ताकि वह वहां शादी करे और तीन साल में एक बार यहां आ जाया करे।' जाहिर है कि यहां भी नीड फॉर अचीवमेंट 'लो' है। अब एक और थोड़ा दिलचस्प उदाहरण लिया जाए। एक ऊंचे सरकारी अफसर जब रिटायर हुए तो जमशेदपुर में उनके एक पॉश और बहुत बड़े मकान की कीमत करोड़ों में पहुंच गई। बेटा एक विदेशी कंपनी में काम करने लगा। सुंदर बहू आ गई (हमने सुशील शब्द का इस्तेमाल नहीं किया है)। बच्चे हो गए। अफसर की पत्नी का देहांत हो गया। बहू ने कहा डैड को प्राइवेसी मिलनी चाहिए। हमारे यहां अक्सर पार्टियां होती हैं। डैड को तेज म्यूजिक सुनना पड़ता है। हमें भी उनके सामने नाचने-गाने में परेशानी होती है। देखिए, उस दिन डांस करते हुए मेरा क्लीवेज बहुत प्रॉमिनेंट हो गया। डैड सामने बैठे थे। कितनी शर्म की बात है। खैर, डैड को प्राइवेसी दे दी गई। पीछे तीन मंजिला सर्वेंट क्वॉर्टर के ग्राउंड फ्लोर में कूलर लगा दिया गया और डैड को गीता प्रेस की किताबें देकर मुक्ति पा ली गई। ज्यादातर पाठक इस कहानी के दुखद अंत के लिए तैयार हो चुके होंगे, लेकिन डैड बेटे से ज्यादा स्मार्ट थे। बेटा एक साल के लिए फॉरन पोस्टिंग पर सपरिवार गया। डैड ने ऊंची कीमत पर मकान बेचा। एक छोटा फ्लैट खरीदा, लेकिन अपने रहने के लिए नहीं। उसने बेटे का सारा सामान बड़ी सफाई से फ्लैट में शिफ्ट करा दिया। पर वह खुद हरिद्वार नहीं गए। उन्होंने एक फाइव स्टार होटल में एक कमरा बुक किया। बैंक बैलेंस का ब्याज काफी था, बची-खुची जिंदगी आराम से जीने के लिए। घंटी बजाइये और वेटर हाजिर हो जाता था। मनोवैज्ञानिक इसे क्या कहेंगे? नीड फॉर एक्साइटमेंट! संक्षेप में कहा जाए- आजकल बुढ़ापा देर से आता है और बुजुर्ग भी शौकीन किस्म के हो गए हैं। बच्चे को अच्छा पढ़ा-लिखा कर विदेश जरूर भेजिए। पर अकेले अपने बल पर रहने की ताकत पैदा कीजिए। और पश्चिम की तरह नौकरों पर पूरी तरह आश्रित न रहने के तरीके सीखिए। भारत में नौकर सस्ते हैं। इसीलिए विदेशी डिप्लोमेट यहां महाराजा की तरह रहते हैं और अपने देश में जाकर अपने घर की पुताई भी खुद करते हैं!

रविवार, 10 अगस्त 2008

प्यार तो होना ही है

अब्बास टायरवाला जब प्यार में दोस्ती, दोस्ती में प्यार की उलझन का किस्सा (जाने तू या जाने ना) हमें सुना रहे थे, तब उनके दिमाग में कैंपस रोमैंस को एक और हिट फिल्म में बदल डालने से ज्यादा कुछ नहीं रहा होगा। उन्हें इस बात का खयाल कतई नहीं होगा कि वे एक सामाजिक हकीकत को सामने रख रहे हैं। वह यह कि एक लड़के और लड़की, एक मर्द और एक औरत, यानी अपॉजिट सेक्स के बीच जो हो सकता है, वह लव रिलेशन ही होगा, फ्रेंडशिप नहीं। आखिर क्यों अदिति और जय प्यारे दोस्त बनकर नहीं रह सकते? क्यों जरूरी है कि दोस्ती को प्यार और शादी में बदला जाए? क्यों दोस्ती को दोस्ती की तरह नहीं निभाया जा सकता? दोस्ती और प्यार के कन्फ्यूज़न में हमेशा प्यार की जीत होती है। इसलिए दिल तो पागल है में जब दोस्ती को प्यार का दर्जा नहीं मिलता तो दिल टूटता है और फिल्मकार को खासी कसरत करनी पड़ती है कि सब कुछ ठीक हो जाए। इसीलिए कुछ कुछ होता है, में दोस्ती को प्यार नहीं मान लिए जाने की सजा हीरोइन आत्म निर्वासन के जरिए खुद को देती है और किसी को बीच से हटाना पड़ता है, ताकि दोस्ती अपने अंजाम तक पहुंचे, जो कि प्यार ही है। इन आज की मॉडर्न और जवान कहानियों को देखते हुए मुझे यह अहसास सालता है कि जमाना ज्यादा नहीं बदला है, खासकर औरत और मर्द की दोस्ती के मामले में। पुराने दौर में औरत और मर्द की दोस्ती नाम की कोई चीज थी ही नहीं। उनके बीच या तो रोमैंस हो सकता था या फिर एक किस्म का कामचलाऊ रिश्ता, जिसे दोस्ती का नाम नहीं दिया जा सकता। हर किस्से (हकीकत या फिल्मी या लिटररी) में हीरो-हीरोइन की दोस्ती की थीम नहीं चल सकती थी। प्यार तो होना ही था। सामाजिक कायदे (जो हमारी सोच को अपने मुताबिक ढाल देते हैं) ऐसी दोस्ती की गुंजाइश नहीं छोड़ते थे। कोई ऐसी दोस्ती रखना चाहे, तो उसका अंजाम बुरा होता था। लेकिन जब जमाना बदला, को-ऐड आम बात हो गई, ऑफिसों में औरतें बहुत बड़ी तादाद में दिखने लगीं, तो फिल्मों में 'दोस्ती' का कॉन्सेप्ट खासा नजर आने लगा। मिक्स्ड ग्रुप आम हो गए, जो जिंदगी में भी उतने ही सहज हैं, लेकिन वे तभी तक थे, जब तक कि प्यार उन पर हावी न हो जाए। कुछ कुछ होता है ने हमें एक और सीख दी- अपॉजिट सेक्स में दोस्ती तभी तक मुमकिन थी, जब तक कि लड़की लड़की न लगे, वह टॉम बॉय हो। यानी एक-दूसरे को फेमिनिन या मैस्कुलिन मानते हुए दोस्ती नहीं की जा सकती थी। क्या यह सिर्फ इसलिए था कि हमारी फिल्में अनिवार्य तौर पर रोमैंटिक होती हैं और इसलिए उन्हें मुहब्बत का ही झंडा बुलंद करना होता है? या इसलिए कि सोसायटी में औरत और मर्द के बीच सेक्स का ऐंगल आएगा ही आएगा? कुदरत के इस विधान से बचने का कोई उपाय नहीं? मैं इसे सोसायटी के विकास में एक खामी के तौर पर देखता हूं। हम लगातार इतने समझदार होते जा रहे हैं कि जेंडर के भेदभाव से खुद को आजाद करने लगे हैं। इसलिए लड़के-लड़कियों के दोस्ताना या असेक्शुअल ग्रुप बन जाते हैं। उनके बीच बहुत सहज सखा-भाव भी होता है, जिसमें किसी भी मुद्दे पर चर्चा वर्जित नहीं है। लेकिन जैसे ही कहीं रोमैंस की जरूरत महसूस होती है और कोई रिश्ता बनता है, तो सब कुछ उलट-पुलट हो जाता है। अपने पार्टनर पर कब्जे की, उसे दूसरों से अलग रखने की, जलन और हक जमाने का जटिल गेम शुरू हो जाता है। जाने तू या जाने ना में अदिति और जय अपनी दोस्ती को आजमाने और उसे प्यार की छाया से बचाने का पूरा जतन करते हैं, लेकिन इस दौरान पाते हैं कि वे दूसरे को गैरों की बांहों में नहीं देख सकते। आखिर में उसी से साबित होता है कि उनके बीच जो है, वह दोस्ती नहीं, प्यार है। प्यार संकरा होता है, दोस्ती उदार। मुझे लगता है कि हम उदार नहीं हैं, इसलिए अपॉजिट सेक्स की दोस्ती अब भी हमें अपने पूर्वजों की तरह डराती है। सोसायटी उसे सिर्फ सेक्शुअल ऐंगल से देखती है और हम भी। इसलिए हम या तो उसे प्यार में बदल डालते हैं या फिर उससे पीछा छुड़ा लेते हैं। औरत-मर्द रिश्तों को लेकर हमारे कट्टरपंथी सोच की एक बानगी वे फिल्मी गॉसिप भी हैं, जहां किसी पार्टी में दो लोगों को साथ देखे जाने का एक ही मतलब लगाया जाता है- अफेयर। तमाम तरक्की और जेंडर इक्वेलिटी के बावजूद हमारे लिए औरत और मर्द अब भी अपनी बायॉलजी से ज्यादा नहीं हैं। वे सिर्फ रिप्रॉडक्टिव ऑर्गन्स हैं, माइंड या पर्सनैलिटी नहीं।

शनिवार, 9 अगस्त 2008

छोटे-छोटे लक्ष्य

कुछ लोग अपने लिए एक बड़ा लक्ष्य तय करते हैं। वे अपना ध्यान हर समय उसी पर केंद्रित रखते हैं और उसे पाने के लिए अपनी हर सुख-सुविधा का त्याग तक कर देते हैं। इनमें से कई सफल भी हो जाते हैं। अपना लक्ष्य हासिल कर उन्हें सार्थकता का अहसास होता है। लेकिन यह जीने का एक तरीका है। ऐसे लोग ज्यादा हैं जिनका लक्ष्य बहुत दूरगामी नहीं होता। अगर होता भी है तो वे उसे लेकर ज्यादा गंभीर नहीं रहते। वे छोटे-मोटे उद्देश्य तय करते हैं और उसके लिए बहुत ज्यादा कष्ट भी नहीं उठाते। मिल गया तो मिल गया, नहीं भी मिला तो कोई गम नहीं। ऐसे लोगों के जीवन को हम निरर्थक नहीं कह सकते, क्योंकि प्रयास करने का भी अपना एक सुख है। हो सकता है छोटे-मोटे सुखों को तवज्जो देने वाले शख्स ने जीवन के विभिन्न आयामों को उस व्यक्ति से ज्यादा छुआ हो जो एक बड़े मकसद के लिए तात्कालिक अनुभवों को नजरअंदाज कर देता है। इसीलिए छोटे मकसद को लेकर चलने वाला आदमी अपने तयशुदा लक्ष्य से अक्सर ज्यादा ही हासिल करता है।

अवसर और खुशी

ज्ञानी लोग कहते हैं कि जीवन में असली आनंद पाने का उद्यम करो, क्योंकि बाकी सुख दुनियावी हैं, नकली हैं, क्षणभंगुर हैं। लेकिन वास्तविक जीवन में कई बार वैसी खुशी आती ही नहीं। तब हम खुशी के अवसर ढूढ़ते हैं। किसी के बर्थडे पर जाकर, किसी की शादी पर रिश्तेदारों से मिलकर हम थोड़ा बदलाव महसूस करते हैं और खुश हो जाते हैं। कई बार ऐसे अवसर भी नजर नहीं आते। तब हम ऐसे अवसर बनाते हैं। कहीं लॉन्ग ड्राइव पर निकल गए, बहुत दिनों बाद कोई नाटक या फिल्म देखी। या खाया-पीया, ठहाके और ठुमके लगाए। ऐसे अवसरों का बहुत महत्व होता है। इसलिए समाज स्वयं ऐसे कई अवसर बनाता है। क्रिसमस, नया साल, ईद या होली- ये सब समाज द्वारा दिए जाने वाले अवसर हैं। सावन-भादों में जब धार्मिक ग्रंथ आवागमन और तीर्थ यात्रा पर विराम लगा देते हैं, हम कांवड़ यात्राएं करते हैं। खुशी बनावटी या नकली हो तो भी अच्छी लगती है। इसी तरह दुख भी बनावटी हो, तो भी बुरा ही लगता है। सुख और दुख के मामले में एक सीमा के बाद असली और नकली का फर्क मिट जाता है। लेकिन वे सुख-दुख ही, जिन्हें हम नकली दुनियावी सुख-दुख कहते हैं, हमें जिंदगी को जीने का जज़्बा देते हैं।

गुरुवार, 7 अगस्त 2008

झूठ और सच

सच और झूठ के बड़े फर्क के बावजूद हमारे समाज में वह झूठ प्रचलित और स्वीकार्य रहा है, जिसमें सच का कुछ अंश मौजूद रहता है। कह सकते हैं कि वह झूठ, जो सिर्फ झूठ हो और जिसमें लेशमात्र भी सच न हो, कभी भी लोगों का यकीन नहीं पा सका। कोई बात झूठ हो, पर उतनी हो कि उसमें हमारा भरोसा जग सके, तो वह एक कामयाब झूठ कहलाएगी। यानी झूठ की सफलता भी तभी है, जब उसे सच का आसरा मिले। लोग उस पर यकीन करें और उसे ही सच मान लें। और चाहें तो इस विडंबना पर हम हंस सकते हैं कि अविश्वसनीय सा लगने वाला सच भी कई बार झूठ लगता है। लोग उसमें खोट निकालते हैं, उसे गैरवाजिब ठहराने के रास्ते खोजते हैं। हम यह भी कह सकते हैं कि जिस सच या झूठ की हमें आदत हो गई है, उससे इतर कोई भी अनूठी बात भरोसे के काबिल नहीं लगती। ऐसे सच में भी हम अक्सर झूठ की मात्रा खोजते हैं। यह हमारे जीवन की ट्रैजिडी ही है कि हमें कुछ फीसदी सच और कुछ फीसदी झूठ के साथ जीना पड़ रहा है।

मॉल में नींबू-मिर्च और मिडल क्लास

मैं मॉल के अंदर कभी कभी जाता हूं पर जाग्रति (पत्नी) के दबाव में अधिक जाना पड़ता है। पिछले दिनों एक मॉल में एक ऐसी चीज़ देखी, जिस पर मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ। हो सकता है दूसरे लोगों के लिए यह बहुत साधारण बात हो पर मेरे लिए यह खास थी। मैंने एक शोरूम में एक कोने में छत से नींबू-मिर्च लटकते देखी जो आपस में नत्थी की हुई थी। तत्काल मुझे अपने शहर की गली का दुकानदार नंदू साव याद आ गया। पहली बार इस तरह की नींबू-मिर्च मैंने उसी की दुकान में देखी थी। मैंने उससे पूछा तो उसने कहा, 'यह टोटका है। बुरी नज़र से बचाने के लिए।' मैं उस पर हंसा था। लेकिन बाद में मुझे अफसोस भी हुआ कि इस बेचारे अशिक्षित पर हंसने का क्या मतलब है। फिर कुछ घरों और ऑटोरिक्शा में नींबू-मिर्च के दर्शन हुए। लेकिन किसी मॉल के अत्याधुनिक माहौल में नामी-गिरामी विदेशी ब्रैंड्स के बीच नींबू-मिर्च की अपेक्षा मैंने न की थी। क्या मेल है! एक तरफ नए-नए प्रॉडक्ट, दुकानदारी का नया रंग-ढंग, सजे-धजे आधुनिक ग्राहक और उनके बीच अति प्राचीन टोटका, बुरी नज़र से बचाने के लिए। किसकी बुरी नज़र से? आखिर दुकानदार को किसका डर सता रहा है? नुकसान का? वाकई यह मज़ेदार बात है। मॉडर्न इकॉनमी में अपनी जगह बचाए रखने के लिए भी वही सामंती तरीका कारगर नज़र आता है। क्या बाज़ार के पैरोकारों के पास उस दुकानदार के डर को दूर करने का कोई मॉडर्न तरीका नहीं? कोई आधुनिक टोटका ही सही! मुझे मॉल में भी हर दुकान पर नंदू सवो ही नज़र आता है। फर्क इतना है कि इस नंदू साव ने थोड़ा पढ़ लिख लिया है, अंग्रेज़ी (वह भी अधकचरी) बोलना जानता है। वह मेरे शहर के नंदू साव की तरह दुकान पर लुंगी गंजी पहनकर नहीं बैठता, वह आधुनिक कपड़े पहनता है, परफ्यूम लगाता है, मोबाइल पर बात करता है। यही आज के औसत मध्यवर्ग का चेहरा है। नई इकॉनमी ने मिडल क्लास को संपन्न होने का अभूतपूर्व अवसर दिया और इसने इसका लाभ भी उठाया। निजी बैंकों ने आसान दर पर लोन उपलब्ध कराए जिससे इस तबके को अपना मकान हासिल करने और अपनी गाड़ी लेने की सहूलियत मिली। रोज़गार और कारोबार के कुछ नए दरवाज़े खुले। आवागमन आसान हुआ तो विदेश जाना भी संभव हुआ। लेकिन यह बदलाव ऊपर तक ही सीमित है। इसे कॉस्मेटिक चेंज कह सकते हैं। विचार या सोच के स्तर पर कोई बुनियादी परिवर्तन इस वर्ग के भीतर नज़र नहीं आता है। वह आधुनिक जीवन में अपने भीतर तमाम सामंती अवशेष लिए दाखिल हुआ है बल्कि कई मामलों में तो वह पहले से ज़्यादा कूढ़मगज़ नज़र आ रहा है। विडंबना यह है कि हमारे राजनीतिक नेतृत्व और योजनाकारों को यही वर्ग ज़्यादा नज़र आता है। इसी वर्ग को ध्यान में रखकर सारी योजनाएं बन रही हैं। यही नहीं मीडिया की दिशा तय करने वाला भी यही तबका है। यही आज न्यूज़ चैनलों पर भूत-प्रेत और नाग-नागिनों की कहानियों का सबसे बड़ा दर्शक है। टीआरपी की चाबी इसी के हाथ में है। इसी के डर से मीडिया ने गंभीर विषयों और विचार को देश निकाला दे दिया है और एक तरह से यह मान लिया है कि अब इन चीज़ों की कोई ज़रूरत समाज को नहीं रह गई है। मिडल क्लास चाहता है कि उसे सुंदर, स्वस्थ और संपन्न होने के नुस्खे बताए जाएं लेकिन कोई यह न कहे कि वह सड़क पर ट्रैफिक नियमों का पालन करे, मोहल्ले में सफाई रखे, समाज के प्रति अपनी जवाबदेही निभाए। मध्य वर्ग अपने को हमेशा सही मानता है। वह अपनी दुनिया में आत्मतुष्ट और मगन रहना चाहता है। क्या यही भावी हिंदुस्तान का प्रतिनिधि चेहरा है?

बुधवार, 6 अगस्त 2008

ऑफिस रोमांस की ठंडी और गर्म हवाएं

रवींदनाथ ठाकुर के इस कथन को कई जगहों पर कई तरह से उद्धृत किया गया है कि प्रेम तो खिड़की के रास्ते से आता है , पर उसके साथ यातना दरवाजे से आती है। हाल में रिलीज हुई फिल्म ' जन्नत ' में इस जटिल कथन को एक चालू संवाद में घटिया और सतही बना दिया गया है। खैर! प्रेम की इस तीखी सचाई का जिक्र उर्दू शायरी में भी हुआ है। आग के दरिया में डूबकर जाना पड़ता है। यह इश्क आसान नहीं है। एक मित्र ने अपना दिलचस्प फॉर्म्युला सुनाया। उन्होंने कहा कि मैं इश्क करता हूं पर मेरा नियम है कि पड़ोस और दफ्तर से दूर रहूं। इश्क के ये मैदान प्रेम कम और यातना अधिक लाते हैं। बहरहाल वह मित्र वुमेनाइजर के तमगे को फौजी के तमगों की तरह शान से टांगना पसंद करते हैं। इसलिए वह नियम बना सकते हैं। पर क्लासिकल लवर इश्क के लिए प्लानिंग नहीं कर सकता है। यह प्रेम की दुखद और सुखद सचाई है। पिछले दिनों टाइम्स ऑफ इंडिया ने ' न्यूजवीक ' में प्रकाशित दफ्तरों के ' लव कॉन्ट्रैक्ट ' के एक विश्लेषण को प्रकाशित किया है। इस सर्वेक्षण पर आधारित विश्लेषण में ऑफिस रोमांस से संबद्ध कई दिलचस्प तथ्य सामने आए हैं। यह विश्लेषण अमेरिकी कॉरपोरेट समाज का है। लेकिन इसे आधुनिक भारतीय शहरों के वर्क कल्चर से बहुत दूर नहीं माना जा सकता है। कॉल सेंटरों की दुनिया ऑफिस रोमांस के रास्ते आसान कर रही है। हाल में एक रिपोर्ट में यह पढ़ने को मिला कि रात को कॉल सेंटरों में जाने वाली लड़कियां सेक्सी और सीडक्टिव ड्रेस पहनना पसंद करती हैं। वे नहीं चाहती कि दफ्तर में दादी मां की तरह नजर आएं। शानेल की खुशबू , स्वैच घड़ी का टाइम और लीवाई की जींस- जाहिर है माहौल बदल जाता है। एक पुरुष कर्मचारी का कहना है कि मेरी सहकर्मी जब स्मार्ट ड्रेस पहन कर आती है तो एक गर्म सूखे दिन में राहत देने वाली पानी की बूंदों का एहसास होता है। ' इससे वर्क एडरीनल तेज होता है और जाहिर है कि दूसरे एडरीनल भी धड़कने लगते हैं... ' जाहिर है कि पहले प्रकार के एडरीनल की पंपिंग बढ़ने से कॉरपोरेट व्यवस्था खुश रहती है। लेकिन दूसरे एडरीनल धड़कने से समस्याएं पैदा हो जाती हैं। ' न्यूजवीक ' के सर्वेक्षण के अनुसार 46 फीसदी कर्मचारी अपने जीवन में ऑफिस रोमांस को स्वीकार करते हैं और रुकिए , 13 फीसदी ऐसे भी हैं जो कहते हैं कि हमने ऑफिस रोमांस को कभी महसूस तो नहीं किया पर हम बहुत उत्सुक हैं इस रोमांस और रोमांच के लिए। काम के घंटे बढ़ गए हैं और दफ्तर का माहौल भी अधिक अनौपचारिक (और अधिक सेक्सी) हो गया है। लेकिन अमेरिकी कंपनियों को इस कंबख्त ऑफिस रोमांस ने तमाम कानूनी लड़ाइयों में उलझाया हुआ है। रोमांस तो बेचारा खिड़की से आता है (या शायद रोशनदान से) लेकिन सेक्सुअल हैरासमेंट का नोटिस दरवाजे से आता है। ऑफिस रोमांस में जब खटास और बदमजगी आती है , तो स्थितियां बदल जाती हैं। इसीलिए कंपनियां अब चाह रही हैं कि ' लव कॉन्ट्रैक्ट ' पहले ही साइन करा लिए जाएं ताकि कानूनी चक्करों से बचा जा सके। यह अलग बात है कि ' लव कॉन्ट्रैक्ट ' में भी कई छेद हैं। स्पष्ट है कि कोई लड़की ग्लैमरस पोशाक में दफ्तर में आती है , तो इसका अर्थ यह नहीं है कि वह प्रेम के लिए ' अवेलेबल ' है। पर केंद्रीय समस्या यह है कि तथाकथित वर्क एडरीनल बढ़ाने के लिए जो चीज ठंडी हवा की तरह है वही चीज जब दूसरे प्रकार के एडरीनल तेज कर देती है तो गर्म हवाएं झुलसा भी देती हैं। सुंदर और ग्लैमरस सहयोगी देख कर बॉस भी अच्छे कपड़े पहनने लगता है , चहकने लगता है , महंगे इत्र ढूंढने लगता है। आधुनिक जीवन का यह विचित्र विरोधाभास है।

तो, चॉकलेट शुड बी ऑनली फॉर अडल्ट!

खाने-पीने की चीजों से जुड़े सर्वे अक्सर मन में संदेह पैदा कर देते हैं। अक्सर इनके पीछे एक व्यापार बुद्धि काम कर रही होती है। खाने-पीने की चीजों ही नहीं, जीनियस समझे जाने वाले व्यक्तियों के बारे में भी तरह-तरह के मिथक एक खास तरह से प्रचारित किए जाते हैं। मिसाल के लिए पश्चिमी शास्त्रीय संगीत के एक महान नाम मोत्सार्ट के बारे में यह कहा जाता रहा है कि उनके संगीत को सुनने से व्यक्ति बुद्धिसंपन्न होने लगता है। वैसे तो किसी भी महान संगीतज्ञ के बारे में इस बात को लागू किया जा सकता है। इंटेलिजंट होने के लिए मोत्सार्ट ही क्यों, बाख या वागनर क्यों नहीं? जहां तक खाने-पीने वाली चीजों का सवाल है, उनके बारे में कई बार रिसर्च के नाम पर भी कुछ सच या झूठ प्रचारित किए जाते हैं। मिसाल के लिए रेड वाइन के बारे में अक्सर यह बात प्रचारित की गई है कि उससे दिल को फायदा होता है। अक्सर कॉकटेल पार्टियों में लोगों को रेड वाइन के प्रति सम्मान दिखाते देखा जाता है। कई बार तो वे यह भी भूल जाते हैं कि रिसर्च में रेड वाइन के सीमित सेवन की भी बात की जाती है। खैर! सबसे मजेदार बातें आइसक्रीम और चॉकलेट को लेकर प्रचारित हैं। इतालवी लोग आइसक्रीम के बहुत शौकीन होते हैं। वे उसे रोमांस का इन्वेंशन मानते हैं। यह अलग बात है कि चीनी भी अपने को आइसक्रीम का जन्मदाता मानते हैं, लेकिन इटली शायद दुनिया का एक अकेला देश है, जहां आइसक्रीम सिर्फ बच्चों और किशोरों में ही नहीं - बूढ़ों में भी लोकप्रिय है। वेनिस में बूढ़ी औरतों को खूब चाव से आइसक्रीम खाते हुए देखना एक दिलचस्प दृश्य होता है। लेकिन, चॉकलेट को लेकर पिछले दिनों जो एक सर्वे सामने आया है, वह सबसे दिलचस्प और चौंकाने वाला है। एक रिसर्च लैब के सर्वे में 13 देशों की 3,571 स्त्रियों से बातचीत की गई। इनमें से एक देश भारत भी था। सर्वे आधी स्त्रियों ने यह चौंकाने वाली बात कही कि चॉकलेट खाने से उन्हें जो सुख मिलता है, वह सेक्स सुख के बराबर है। जाहिर है कि इस सर्वे से सेक्स इंडस्ट्री को कोई खास फायदा नहीं होगा, पर चॉकलेट उद्योग खूब तेजी से आगे बढ़ जाएगा। फ्रांस की एक मशहूर फिल्म का नाम ही 'चॉकलेट' है, जिसकी नायिका एक कस्बे में चॉकलेट की दुकान खोल कर उसके एरोमा को जादुई ढंग से फैला देती है। इस सर्वे के बाद एक भारतीय अखबार ने कुछ ग्लैमरस महिलाओं से यह अनोखा सवाल किया- चॉकलेट या सेक्स ? ऐक्ट्रिस श्रेया शरण ने तो सीधा जवाब दे दिया- मैं सेक्स के मुकाबले में चॉकलेट पसंद करती हूं, लेकिन मुझसे यह न पूछा जाए कि क्यों? वैसे चॉकलेट खाने से और दूसरे लाभ जो भी हों, पर डेंटिस्ट जरूर फायदे में रहते हैं। उधर सेक्स का उद्योग भी चाहे तो चॉकलेट उद्योग से गठबंधन कर सकता है। मौज ही मौज! वैसे इस सर्वे की एक व्याख्या इस प्रकार से भी की जा सकती है कि बड़ी संख्या में अगर स्त्रियां चॉकलेट को सेक्स का लगभग विकल्प मानने को तैयार हैं तो इसका एक अर्थ यह है कि वे मर्दों के सेक्स के प्रति प्रिमिटिव कहे जा सकने वाले नजरिए से भी असंतुष्ट हैं। चॉकलेट के आनंद और उसके एरोमा के लिए किसी दूसरे पर निर्भर नहीं रहना पड़ता है। अपनी जीभ ही काफी है। आज भी अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डों की ड्यूटी फ्री शॉप्स में सबसे अधिक मांग चॉकलेट की होती है। इतालवी अगर अपनी आइसक्रीम पर गर्व करते हैं तो स्विट्जरलैंड के लोग अपनी चॉकलेट पर गर्व कर सकते हैं। स्विस चॉकलेट तो सुख का खास द्वार खोल देती है।

शनिवार, 2 अगस्त 2008

क्या लीडर को दर्द नहीं होता

इस गुजरे हफ्ते की सबसे बड़ी खबर आप किसे समझते हैं? गुर्जर आंदोलन? पेट्रोलियम के दामों में बढ़ोतरी? बराक ओबामा की जीत? या फिर कुछ और? मेरे खयाल से ये और ऐसे ही वाकये सबसे बड़ी खबर नहीं थे। सबसे बड़ी खबर थी आडवाणी के आंसू। पिछले दिनों एक सम्मेलन में स्वाति पीरामल की कविता सुनकर आडवाणी इतने भावुक हो उठे कि उनकी आंखें भर आईं। आडवाणी की वे तस्वीरें आपने देखी होंगी। इन्हें इस जिक्र के साथ दिलचस्प अंदाज में पेश किया गया था कि आडवाणी को भारतीय सियासत का आयरन मैन यानी लौह पुरुष कहा जाता है। लेकिन हम जानते हैं कि आडवाणी रोबॉट नहीं हैं। वे साइबोर्ग भी नहीं हैं, जिनके कुछ पुर्जे स्टील के हों। जाहिर है, उनके पास एक अदद दिल भी है, जो भावुक होना जानता है। मुझे याद पड़ता है कि इससे पहले भी हम आडवाणी के आंसू देख चुके हैं। इस हिसाब से रोना उनके लिए नई बात नहीं है। तो भी मैं इसे सबसे बड़ी खबर इसलिए मानता हूं कि हमारे देश में सियासतदां रोया नहीं करते। वे आम तौर पर हंसते भी नहीं हैं। थोड़ा-बहुत मुस्कराते उन्हें देखा जा सकता है, लेकिन वह रस्म अदायगी की तरह होता है। उन्हें खिलखिलाते हुए नहीं देखा जाता। वे सियासत की जिम्मेदारी को बेहद संजीदगी से लेते हैं और चुटकुले तो कभी नहीं सुनाते। वे हमेशा संजीदा और सच कहें तो तनावग्रस्त दिखते हैं। वे बहुत सोच-समझकर बोलते हैं, जैसे निशाना साध रहे हों। वे एक ही इमोशन जाहिर करते हैं- नाराजगी। वे हमेशा चिढ़े हुए दिखते हैं। हमारा समाज मर्दवादी है और माना जाता है कि मर्द को दर्द नहीं होता। हमारे राजनेता इस सिद्धांत के सबसे बड़े अनुयायी हैं। वे अपनी तकलीफ, अपनी खुशी अपने भीतर छिपाए रखते हैं। हमें पता है कि अकेले में, अपने लोगों के बीच वे इमोशनल होते होंगे, लेकिन पब्लिक में उनका परफॉरमेंस अलग होता है। वे बापवादी हैं। अभी हाल तक परिवार का मर्द खिलंदड़ होना गवारा नहीं कर सकता था। इससे औरतों को शह मिलती थी और बच्चे बिगड़ जाते थे। डिसिप्लिन बनाए रखने के लिए बाप को उनसे हाथ भर की दूरी बनाए रखनी होती थी और वह चुप रहकर अपनी धाक कायम करता था। हमारे राजनेता खुद को इस बाप के रोल में देखते हैं। लेकिन आज का बाप बदल गया है। वह पहले से ज्यादा स्मार्ट, मिलनसार और मजाकिया है। अनुपम खेर लगभग हर फिल्म में मसखरे बाप बनकर आते हैं। लेकिन मैं समझता हूं कि अगर उन्हें प्राइम मिनिस्टर बना दिया जाए, तो उनसे ज्यादा सीरियस कोई नहीं होगा। हमारे पीएम कभी नहीं हंसते। पीएम के लिए हंसना मना है। लेकिन ये सभी नेता उस डेमोक्रेसी की संतान हैं, जिसे पंडित जवाहरलाल नेहरू ने परवान चढ़ाया था, और नेहरू खुद काफी दिलचस्प शख्सियत थे। उन्हें हंसते हुए देखा जा सकता था। वे नाराज भी खूब खुलकर होते थे। बच्चों के बीच उनकी खिलंदड़ी के किस्से मशहूर हैं। हालांकि उनके आंसुओं का जिक्र हमें कहीं नहीं मिलता। लेकिन हर कहीं ऐसा नहीं है। जापान और कोरिया में तो बड़े-बड़े नेता जब फंस जाते हैं, तो बाकायदा आंसू टपकाते हैं और माफी मांगते हैं। अमेरिका के नेता इस मामले में बेमिसाल हैं। वे कभी रोबॉट की तरह नहीं दिखते। साल भर से भी लंबे अपने इलेक्शन कैंपेन में वे हर मूड की झलक दिखाते हैं। हिलेरी क्लिंटन ने आंसू बहाकर एक बार चुनाव की धारा लगभग पलट ही दी थी। बुश रोते नहीं हैं, लेकिन हंसते खूब खुलकर हैं। वे नॉनवेज किस्म के चुटकुले सुनाते पाए गए हैं। एकाध बार वे पब्लिक में चकराकर गिर पड़े। उन्होंने इसका बुरा नहीं माना। हमारे पूर्व प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी के बारे में कहा जाता है कि वे अपने कार्टूनों से सख्त चिढ़ते थे। वैसे भी वे मजाक करें, तो उसे उलटबांसी समझ लिया जाता। लालू प्रसाद जरूर सबसे अलग और दिलचस्प हैं, लेकिन यह अलग स्टाइल की पॉलिटिक्स है। मैं समझता हूं कि अगर कभी उन्हें पीएम बनने का मौका मिला, तो उनके सलाहकार उन्हें देवगौड़ा बनाने पर आमादा हो जाएंगे। पूरे चांस यही हैं कि वे मान भी जाएंगे, क्योंकि यही रिवाज है। हम सब इंसान हैं, तो इंसान जैसा दिखने से डर किस बात का होना चाहिए? हमारे नेताओं को यह डर क्यों सताता है कि वे अपने इमोशन चेहरे पर आने देंगे, तो हल्के हो जाएंगे, उन्हें राज चलाने के नाकाबिल मान लिया जाएगा और वोट मिलने बंद हो जाएंगे? यह फिजूल का डर है। मैं इसे आउटडेटेड भी नहीं कहूंगा, क्योंकि पुराने जमाने के हमारे राजा-महाराजा तो ऐसा बर्ताव नहीं करते थे। उनके बारे में जो भी जानकारी हमें है, उसके हिसाब से वे बड़े कलारसिक, मौज-मजा करने वाले, खिलंदड़, शौकीन और बेशर्म थे। वे हंसने के लिए दरबार में विदूषक रखते थे। विदूषक का पद सरकारी था। फुर्सत में वे प्यार-रोमांस का वही खेल खेलते थे, जो उनकी प्रजा खेलती थी और इसे बाकायदा किताबों में दर्ज करवाते थे। उनके खिलाफ अक्सर बगावत हो जाती थी, लेकिन इस वजह से कभी नहीं कि राजा बहुत हंसता या रोता है। तमाम पुराणों को देखिए, हमारे अवतारी पुरुष भी अपने चमत्कारी हथियारों और ताकत के बावजूद बिल्कुल नॉर्मल नजर आते हैं। सीता के वियोग में बिलखते राम को याद कीजिए। लेकिन फिर बीच में यह 'नेता को दर्द नहीं होता' का सिद्धांत कहां से आ गया? मैं समझता हूं यह उसी फ्यूडल सोच का नतीजा है, जिससे दूसरी भी कई गड़बड़ियां पैदा हुईं। जबकि डेमोक्रेसी में इससे बड़ी रणनीतिक भूल और कुछ नहीं हो सकती। नाराज नेता हमारे दिल में इज्जत पैदा कर सकता है, लेकिन मौका पाते ही हम हंसते हुए नेता को वोट देना पसंद करेंगे, क्योंकि वह हमारे दिल तक पहुंच सकता है। रोता हुआ नेता उस नेता से हमेशा बेहतर होगा जिसके इमोशंस सूख गए हों, क्योंकि हम समझेंगे कि उसके दिल में जनता के लिए दर्द बचा है। इंसान किसी रोबॉट को अपना नेता बनाना क्यों चाहेंगे? अभी हाल में आडवाणी ने अपनी जीवनी छपवाई है। इसे पीएम पद के दावेदार का पब्लिक रिलेशन कहा गया। लेकिन जो काम आडवाणी अपनी हंसी या आंसू से कर सकते हैं, उसके बरक्स यह कवायद बेकार थी। उन्हें चाहिए कि वे अपने साथियों से भी ऐसा करने को कहें, खास तौर से अरुण जेटली से। हमारे नेताओं को बिल क्लिंटन या निकोलस सार्कोजी जितना आगे बढ़ने की जरूरत नहीं, लेकिन वे मेहरबानी करके खूसट बाप बनने की कोशिश न करें। उन्हें पता होना चाहिए कि उन्होंने दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र को सबसे बोर लोकतंत्र बना डाला है।