--वैश्विक पहचान वाले लोकनृत्य का राजनीति भी कर रही इस्तेमाल---- संरक्षण व विकास के लिए नहीं हो रहा सरकार से कोई काम ------
अशोक सिंह, जमशेदपुर : खरकइ नदी के तट पर बसा है सरायकेला। भले ही यह छोटा शहर हो, मगर इसकी ख्याति विश्व के कोने कोने तक है। आखिर क्यों? यह सवाल यदि आपके भी जेहन में आये तो इसका सरल जवाब है छऊ नृत्य। जी, हां। इसी छऊ नृत्य ने सरायकेला को दी है वैश्विक पहचान। और, आजकल का समय तो चुनाव का है। इस बार चुनाव प्रचार में भी छऊ नृत्य का सहारा लिया जा रहा है। मगर इस नृत्य कला का और विकास कैसे होगा? कलाकारों की दशा कैसे सुधरेगी? इसकी चिंता किसे व कितनी है? यदि आपकी संवेदना को भी ये या इन जैसे दूसरे सवाल झकझोर रहे हों तो हम आपको ले चलते हैं सरायकेला की सड़कों पर। आपको मिलाते हैं एक रिक्शाचालक से। जब वह छऊ नृत्य पेश करता है तो लक्जरी वाहनों में जिन्दगी के सफर का मजा लेने वाले तालियां बजाते हैं, परन्तु जब वही कलाकार सड़क पर रिक्शा खींचता है तो सम्मान के बदले मिलता अपमान, बाह्य के साथ आंतरिक भी। सरायकेला छऊ का इतिहास बहुत पुराना रहा है। यहां की जीवन पद्धति से लेकर संस्कृति एवं आस्था से यह इस कदर जुड़ा हुआ है कि ब्रिटिश राज में हरेक साल छऊ नृत्य महोत्सव के आयोजन के लिए शासन सहयोग करता था। देश आजाद होने के बाद भारत में भाषा के आधार पर राज्यों के विलय की प्रक्रिया शुरू हुई थी तो तत्कालीन सरायकेला राजघराने ने महोत्सव आयोजन के लिए भारत सरकार से हरेक साल आर्थिक सहयोग का करार किया था। राजपाट के एवज में छऊ। लेकिन कितनी बड़ी विडंबना है कि झारखंड में 'अपना राज' कायम होने के बाद व्यावहारिक अर्थो में शासन ने छऊ को बेगाना कर दिया। हालांकि सरायकेला जिला प्रशासन द्वारा हरेक साल छऊ महोत्सव का आयोजन जरूर किया जा रहा मगर यह तपती दोपहरी में बूंद के समान है। सरायकेला रियासत के तत्कालीन राजा कुवंर विजय प्रताप सिंहदेव ने वर्ष 1920 में छऊ नृत्य को गांवों से निकालकर शहर में लाये थे। छऊ नृत्य कला के संरक्षण के लिए राज्य सरकार ने वर्ष 1960-61 में एक केन्द्र की स्थापना की। यहां के प्रशिक्षण केन्द्र से निकले कलाकारों ने राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय कला के क्षेत्र में छऊ नृत्य को लोकप्रिय बनाने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इस केन्द्र से निकले कलाकारों ने सोवियत संघ, जापान, दक्षिण कोरिया, इंडोनेशिया, मलेशिया में कई सांस्कृतिक कार्यक्रम पेश किये।आज से सौ साल पहले तक छऊ नृत्य के पारंपरिक नियम कायदे थे। जिनका आज भी पालन किया जाता है। पेड़ों की टहनियों को शरीर में बांधकर छऊ नृत्य करते हैं। इससे पहले तक सरायकेला में छह अखाड़ों में छऊ नृत्य हुआ करता था। कुवंर विजय प्रताप सिंहदेव ने छऊ नृत्य को मार्शल आर्ट व क्लासिक डांस के साथ सामंजस्य कराया था। हालांकि जो छऊ नृत्य राजपरिवार के लोग करते थे उस नृत्य को प्रजा नहीं करती थी। छऊ नृत्य को आगे बढ़ाने में सुधीरेन्द्र नारायण सिंहदेव ने काफी अहम भूमिका निभाई। इसके लिए उन्हें पद्मश्री से नवाजा गया था। इसके अलावा स्वर्गीय केदार नाथ साहू को भी पद्मश्री पुरस्कार मिला था। कला केन्द्र में दस से बारह की संख्या में छात्र-छात्राएं छऊ नृत्य की शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं। छऊ नृत्य की तीन शैली1। सरायकेला शैली : इस शैली में मुखौटा लगाया जाता है जो नृत्य की भाव-भंगिमा को प्रदर्शित करने वाला होता है।2. खरसांवा शैली : इस शैली में मुखौटा नहीं होता है। इसमें सिर्फ कला का प्रदर्शन किया जाता है।3. मानभूम शैली : इस शैली में मुखौटा बहुत बड़ा होता है। इस शैली के कलाकार बहुत कलाबाजी करते हैं।