सोमवार, 17 अगस्त 2009

जरा कल्पना करें, जब मां नहीं रहेगी

मदर्स डे पर यह कल्पना करना अजीब लगता है कि एक दिन मां नहीं रहेगी। यह किसी खास मां क
ा जिक्र नहीं है। मैं उस वक्त के बारे में सोच रहा हूं, जब इंसानों की पीढ़ियों को पैदा होने और पाले जाने के लिए मां की जरूरत नहीं रह जाएगी। मानवीय विकास (कुछ लोग इसे अमानवीय विकास कहना चाहेंगे) जिस दिशा में जा रहा है, वहां मां की जरूरत धीरे-धीरे, लेकिन शर्तिया तौर पर घटती जा रही है। मां, जो हमारे होने का आधार रही है, जिसके बिना हमारी सभ्यता का जिक्र नहीं हो सकता, जो हमारी आत्मा के रेशे-रेशे में मौजूद होती है, एक दिन इतिहास की बात हो जाएगी। पिता के साथ यह दुर्घटना उससे भी पहले घट जाने वाली है। परिवार को चलाने के लिए मर्द की अनिवार्यता का अब खास मतलब नहीं रहा। जो बायलॉजिकल अहमियत थी, उसकी हवा क्लोनिंग ने निकाल दी है। इस धरती पर मानव जाति के कायम रहने के लिए पुरुष की जरूरत तकनीकी तौर पर खत्म हो चुकी है। अगर एक सेक्स की जरूरत (अपनी असल भूमिका प्रजनन के लिए) खत्म हो रही है, तो दूसरा सेक्स भी इस हादसे से कब तक बचा रह सकता है? प्रजनन के लिए स्त्री की जरूरत उस क्षण खत्म हो जाएगी, जब नकली गर्भाशय बना लिया जाएगा या कोई एजंसी बच्चे तैयार करने का काम संभाल लेगी। सुनने में यह आपको एक घटिया और हवाई-सा किस्सा लग सकता है, लेकिन अपने आसपास देखिए और आप जान जाएंगे कि हम उस ओर कदम उठा चुके हैं। इसका पहली संकेत है विवाह की बढ़ती उम्र, अस्थिर परिवार और बच्चे पैदा करने को लेकर घटता उत्साह। आपको ऐसे अनगिनत जोड़े मिल जाएंगे, जो या तो बच्चा होने को लेकर असमंजस में हैं और इसे स्थगित किए जा रहे हैं या एक के बाद दूसरा बच्चा पैदा करने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे। आप कहेंगे कि यह पेरंटिंग को लेकर किसी कुदरती अरुचि की वजह से नहीं, बिजी शहरी लाइफ की मजबूरी के चलते है। लेकिन हम जिन्हें कुदरती मानते हैं, वे जीने के हालात से पैदा हुए गुण होते हैं। मां या पिता बनने की इच्छा तो वैसे भी सामाजिक संस्कार है। बरसों पहले जब इंडस्ट्रियल ऐज के साथ महिलाओं को आजादी मिली और घर की चारदीवारी से निकलकर वे कामगार बनने लगीं, तो जेंडर की सामाजिक भूमिका तेजी से बदली। तभी यह समझ लिया गया था कि परिवार कमजोर पड़ेंगे, क्योंकि औरतें महज मां बनकर खुश नहीं रहने वाली हैं। बर्टेंड रसल जैसे विचारक यह सुझाव लेकर सामने आए कि महिलाओं को मां की जिम्मेदारी से आजाद कर दिया जाए। बच्चे पैदा करना और पालना भी एक प्रफेशन समझा जाए, जिसके लिए सरकार पेमंट करे। तबसे हम काफी आगे बढ़ चुके हैं। यूरोप और जापान जैसे विकसित समाजों में बच्चे पैदा करने में महिलाओं की अरुचि साफ दिख रही है। वहां कम बच्चे पैदा हो रहे हैं और आबादी गिर रही है। इन देशों को देर-सवेर रसल के सुझाव पर अमल करना पड़ सकता है। जैसा मैंने कहा, ममता की छाया में पले हम लोगों के लिए उस दिन की कल्पना करना तकलीफदेह है, जब बच्चे किसी सरकारी योजना के तहत पैदा होंगे, उन्हें या तो प्रफेशनल मांएं जन्म देंगी या वे इनक्युबेटर से निकलेंगे, कोई परिवार उनका इंतजार नहीं कर रहा होगा और उनका बचपन बालघरों में बीतेगा। हम जैसे ही इस बारे में सोचते हैं, मानवीय खुशियों से वंचित एक बीमार नस्ल की तस्वीर हमारे सामने आ जाती है। लेकिन ऐसा नहीं है। सुख और दुख, सही और गलत के पैमाने जमाने के हिसाब से बदलते रहते हैं। जिन बातों में और जिस तरह हमें खुशी मिलती हो, जरूरी नहीं कि भविष्य में भी काम करें। धीरे-धीरे जब पेरंटिंग का चलन खत्म हो जाएगा, लोग उसका अनुभव भी भूल जाएंगे। लेकिन उम्मीद करें कि तब भी बच्चे हमें अच्छे लगेंगे।

भारत की किस्मत का दूसरा नाम है मॉनसून

हम समझे थे कि हमारी हवाओं पर डाका पड़ गया है, वे हफ्ते भर से ज्यादा दक्कन में अटकी रहीं, ले
किन जब उन्होंने रफ्तार पकड़ी तो दिल्ली पहुंचने में सिर्फ एक दिन का फर्क रहा, शायद उससे भी कम। आखिरकार मॉनसून के मेघ हम पर बरस रहे थे और हमेशा की तरह वह वक्त आ चुका था, जब हम उत्तर भारत की गर्मी, थकान और चिढ़ से निजात पाकर अपनी दुनिया को उम्मीद की नई रोशनी में देखने लगते हैं। मॉनसून कुदरत का चमत्कार है, जो भारत पर अपना जादू बिखेरता है। यह धूप से तप उठे तिब्बत के पठारों के ऊपर पैदा हो उठे खिंचाव से बहती आती नम समुद्री हवाओं का खेल भर नहीं है, यह जिंदगी को फिर से उम्मीदों से लबालब कर देने और साल दर साल करते चले जाने का अनुष्ठान है। इस देश का इतिहास, समाजशास्त्र, अर्थशास्त्र और भूगोल बहुत हद तक इन हवाई नेमतों से बनते रहे हैं। कहना मुश्किल है कि अगर नहीं होता तो हमारी शक्ल कैसी होती, हमारे रीति-रिवाजों, त्योहार-उत्सव, खेत-खलिहान का क्या होता! भारत के अलावा दुनिया में कुछ और मॉनसून सिस्टम हैं। मॉनसून सिस्टम का मतलब ऐसी मौसमी हवाओं से है, जो किसी खास समय में बरसात लाती हैं। बाकी दुनिया में लोकल वजहों से बार-बार बारिश होती रहती है, उसके लिए साल का कोई खास महीना मुकर्रर नहीं होता। वे सिर्फ दो सीजनों-जाड़े और गर्मी में बंटे इलाके हैं, उनके लिए यह समझना मुश्किल है कि तीसरा सीजन- बरसात, होने का क्या मतलब है और जब एक पूरा मुल्क आसमान के काले हो उठने का इंतजार करता है, तो कैसे वह सामाजिकता का एक अलग पाठ सीख रहा होता है। जिन लोगों को खेती की फिक्र रहती है, वे मॉनसून की तुनकमिजाजी, तिकड़मों से अक्सर खफा रहते हैं। यह भी कोई तुक है कि देश की भूख बादलों की मेहरबानी पर टिकी रहे? इसलिए बार-बार कहा जाता है कि हमें मॉनसून पर निर्भर नहीं रहना चाहिए, हालांकि अगर हम बांध और नहरें बनाकर सिंचाई का भरपूर इंतजाम कर लें तो भी नदियों-तालाबों को भरने के लिए हमें आखिर में मॉनसून की मेहरबानी लेनी ही होगी। मॉनसून भारत की किस्मत का दूसरा नाम है। क्या मॉनसून से कभी हमारा रिश्ता खत्म हो सकता है? कुदरती तौर पर तो नहीं, क्योंकि जब तक सूरज-चांद रहेंगे, भारत में बरसात की ऋतु रहेगी। इस कायदे को बदला नहीं जा सकता। लेकिन इंसान की फितरत है कुदरत के बनाए बंधनों से ज्यादा-से-ज्यादा दूर भागना। साइंस और टेक्नॉलजी का तमाम तामझाम इसके लिए है। लिहाजा हम चाहेंगे कि मॉनसून हमें कम-से-कम छुए, हम उसके बिना काम चलाना सीख लें। या फिर अल्टिमेट इलाज यह है कि हम कुदरत का हुलिया ही इतना बिगाड़ दें कि मौसमों का कोई अता-पता ही न रहे, धरती या तो बंजर हो जाए या फिर हम स्टील और प्लास्टिक की दुनिया में रहने लगें जैसा कि फैंटेसी फिल्मों में दिखाया जाता है। लेकिन जब तक ऐसा नहीं होगा (और उसमें वैसे भी काफी वक्त लगेगा) तब तक हम और हमारी कई पीढ़ियां इस साझा अनुभव में भागीदारी करती रहेंगी, जिसका नाम मॉनसून है, जिसने आषाढ़ को आषाढ़ और सावन को सावन बनाया है, जिससे हमारे भोजन में रस है और जो अपनी सौंधी गंध से हमारी आत्मा में ताजगी भर देता है। क्या हम इस अनुभव की इज्जत करेंगे, जिसने हमें बनाया है? क्या हम कुदरत के साथ बिताए उन लमहों को जिंदा रखना चाहेंगे, जिनके बिना अपनी धड़कनों को सुन पाना नामुमकिन होता? इस सवाल का जवाब देना मेरे बस का नहीं है। मैं सिर्फ यह उम्मीद कर सकता हूं कि ये धरती, ये आसमान, ये बादल और ये बारिश बचे रहें। मैं मानता हूं कि एक दिन इन सबके बिना इंसान का काम चल जाएगा, लेकिन जो दुनिया रिमझिम फुहारों के बीच एक कप चाय का सुख नहीं दिला सकेगी, उसका हम क्या करेंगे?

क्या भारतीय मर्द कर पायंगे सच का सामना

जी नहीं, अपने कॉलम के माध्यम से मैं कोई ऐसा प्रस्ताव नहीं दे रहा हूं कि राजीव
खंडेलवाल के कार्यक्रम को 'सच का सामना' की जगह पर 'सेक्स का सामना' नाम दे दिया जाए। मेरा मूल इरादा दिल्ली के दीनदयाल उपाध्याय अस्पताल में किए गए एक सर्वेक्षण पर टिप्पणी करने का था, जिसमें कहा गया है कि सेक्स की कमी से महिलाओं में अवसाद की बीमारी बढ़ रही है। 'सच का सामना' को मैं एक दूसरा नाम देना चाहूंगा- 'स्ट्रिपटीज'। जैसे नाइट क्लब में महिलाएं (कुछ प्राइवेट पार्टियों में पुरुष भी) खा-पी रहे ग्राहकों के सामने एक-एक करके कपड़े उतारती हैं, कुछ वैसा ही 'सच का सामना' में हो रहा है। किसी व्यक्ति के निजी जीवन में अनेक त्रासद अनुभव होते हैं और उनमें से अनेक सेक्स से जुड़े होते हैं। एक मनोविश्लेषक के सामने बैठकर व्यक्ति जब इस तथाकथित सच को बताता है, तो उसका उद्देश्य पैसा कमाने के लिए कपडे़ उतारना नहीं होता है। वह अपनी दमित इच्छाओं से मुक्ति पाना चाहता है। राजीव खंडेलवाल जब कुर्सी पर बैठे व्यक्ति की किसी 'पेनफुल सचाई' को सार्वजनिक कर देते हैं, तो उनकी अगली टिप्पणी इनाम की बढ़ती राशि से जुड़ी होती है कि और कपड़े उतारो, पैसे मिलेंगे।
सप्ताह के एक कार्यक्रम में एक महिला अपने पति के अपनी भाभी से रिश्तों के संदेह की बात लाई क्टर मशीन पर स्वीकार कर लेती है। पति (जो उस महिला से अलग रह रहा है) को राजीव खंडेलवाल सफाई देने का मौका देते हैं और जवाब मिलता है कि मेरे भाई को भी यही शक था, पर वास्तव में ऐसा कुछ नहीं है। लाइन क्लियर। लेकिन इस सवाल के जवाब के लिए तो पति महोदय के लाई डिटेक्टर टेस्ट की जरूरत थी। बेचाई पत्नी को लाई डिटेक्टर पर बैठा रखा है और संदिग्ध व्यक्ति बिना मशीन के अपनी सफाई देने के लिए स्वतंत्र है। स्ट्रिपटीज (जिसे कैबरे भी कहा जाता है) अब नाइट क्लब के अंधेरे में नहीं- टेलिविजन सेट की रोशनी में हो रही है। खैर, पिछले दिनों महंगाई के अलावा देश में तीन ही चीजों पर बातें हो पा रही हैं- शाइनी आहूजा, राखी सावंत और सच का सामना। एक दिलचस्प खबर के अनुसार अमेरिका में एक वेबसाइट ने 4 अगस्त को 'द मेगन फॉक्स मीडिया ब्लैकआउट डे' घोषित कर दिया, चूंकि मेगन फॉक्स राखी सावंत की तरह हॉलिवुड में रोज खबरों में रहने के तरीके खोजती रहती हैं। भारत में 15 अगस्त को 'राखी सावंत ब्लैक आउट डे' घोषित किया जा सकता है। शुरू में राखी सावंत का अंग्रेजी न जानने के बावजूद प्रभु चावला, करण जौहर और आमिर खान की नजरों में आ जाना एक उपलब्धि लग रही थी। लेकिन अब वह मीडिया की एक महाबोरियत हो चुकी हैं। राखी सावंत की छवि का रिश्ता भी सेक्स से है। आइटम गर्ल आखिर कल की हैलेन का समकालीन अवतार है। अब स्वयंवर के नाटक में सब कुछ देखकर ऐसा लग रहा था कि सत्तर चूहे खाकर बिल्ली हज करने को चली है। वैसे एनआरआई से मंगनी के बाद राखी सावंत अंग्रेजी सीख जाएंगी और उनका रहा-सहा 'चार्म' भी खत्म हो जाएगा। दीन दयाल उपाध्याय अस्पताल की रिपोर्ट बताती है कि डिप्रेशन की शिकायत के साथ आई 80 फीसदी महिलाएं अपने पति के साथ सेक्स संबंधों से संतुष्ट नहीं हैं। सर्वेक्षण में मल्टीनेशनल कंपनियों में काम करने वाली महिलाओं से शुरू होकर साधारण गृहणियों को भी शामिल किया गया था। यानी राखी सावंत, राजीव खंडेलवाल आदि से अधिक महत्वपूर्ण मुद्दा यह है कि भारतीय पुरुष अपने घनघोर मर्दवादी रवैये को बदलें। उनका सच जानने के लिए किसी लाई डिटेक्टर मशीन की भी जरूरत नहीं है।