रविवार, 9 मई 2010

मां को मां कहने का वक्त नहीं..

-9 मई मदर्स डे पर विशेष
जमशेदपुर : आंखों से झरझर बहता नीर। झुर्रियों में रचा-बसा चेहरा। इर्द-गिर्द तैरता खालीपन और सूनापन। बेबसी, लाचारी से क्षण दर क्षण सामना करने का डर। इस फानी दुनिया में अकेले होने का एहसास। एक महीन सा एहसास जिंदा होने का। कड़वी सच्चाई अपने बेमायने होने की। ताजिंदगी जिसके लिए जिये उसकी यादों में कहीं भी नहीं होने का दर्द। निगाह रास्ते पर कि कोई कभी तो आएगा। इंतजार कि कहीं से एक आवाज आएगी, मां..। ये मां है। औलाद ने फेंक दिया। इस जहान में चारों तरफ देखने पर भी कोई अपना नहीं दिखता। दिल तड़पता है। बड़ा दर्द होता है। उम्र के इस मुकाम पर अपने बेसबब, बेमतलब होने पर कलेजा कांपता है। एक हूक सी उठती है कि हम क्यों जिंदा हैं। जेहन में सवाल उठता है कि खून से बने दूध का कोई मायने नहीं। आंचल की छांव का कोई मतलब नहीं। रात-रात भर जाग कर जिस औलाद को पाला-पोसा उसके दिल दिमाग में 'मां' कहीं भी नहीं।

यह सवाल है निर्मल हृदय, साकची में रह रही 75 साल की उम्र पार चुकी एक मां जोबा हेम्ब्रम का। पल-दर पल अपनी आंखें बंद होने का इंतजार कर रही जोबा से कुछ भी पूछने पर उनकी आंखें बरस पड़ती हैं। अहक-अहक कर बड़ी मुश्किल से बताती हैं कि कभी मेरा भी एक घर था। पति और एक बेटे से भरा-पूरा। पति असमय भगवान के घर चले गए। बेटे को बड़ी मेहनत और मशक्कत करके पाला। बड़ा किया। कहीं न कहीं उम्मीद थी कि बुढ़ापे की लाठी बनेगा। बहुत ज्यादा तो नहीं, पर थोड़ा प्यार तो जरूर करेगा। उम्मीदें टूट गई। उम्र बढ़ने पर मेरे शरीर और दिमाग ने जवाब देना शुरू कर दिया। बेटे ने छोड़ दिया। भटकते-भटकते निर्मल हृदय में आ गई। यहां रह तो रहीं हूं, मेरी सेवा भी होती है और इलाज भी। लेकिन, आत्मा अभी भी घर में बसती है। अपने बेटे के पास। यहां रहते हुए 6-7 साल हो गए। इतने दिनों में किसी ने एक बार भी खोज-खबर नहीं ली। अब तो यह उम्मीद भी जाती रही कि कोई मेरा अपना कफन-दफन भी करेगा।

आज मदर्स डे है। मां का दिन। 60 वर्ष की भारती सोरेन का दर्द भी कुछ कम नहीं है। निर्मल हृदय में रहते हुए इन्हें 15-16 साल हो गए। भारती अपनी मर्जी से यहां आई। किसी ने इन्हें घर से भगाया नहीं। पति गुजर गए। तीन बेटियों और दो बेटों से भरा-पूरा इनका परिवार है। निर्मल हृदय में आने के कुछ साल पहले ही घर में इनका होना न होना एक बराबर हो गया था। बेटे-बेटियों ने इस कदर इन्हें अपने घर और जिंदगी से दरकिनार किया कि इन्होंने घर छोड़ दिया। दर-दर की ठोकर खाते पहुंच गई निर्मल हृदय। शरीर यहां जरूर है, लेकिन लाख दुत्कार के बावजूद अभी भी भारती की आत्मा अपने बच्चों से मिलने और दुलारने के लिए तड़पती है।

इलाहाबाद से भटक कर यहां आई 50 वर्ष की शीला की मानसिक स्थिति ठीक नहीं थी। यहां इलाज होने के बाद हालत थोड़ी सी सुधरी। इनकी मानसिक हालत पूरी तरह से बिगड़ी भी नहीं थी, तभी इनके परिवार ने इनको त्याग दिया। पति किसी दूसरी औरत के साथ रहने लगा। बच्चों ने इन्हें बेमतलब मान लिया। न जाने कितनी रातें कितने दिन इन्होंने बिना खाए-पिये सड़कों पर गुजार दी। किसी तरह यहां पहुचीं। शीला अब तो यह भी भूल चुकी हैं कि इनका घर और परिवार भी है।

यह दर्द अकेले किसी जोबा, भारती और शीला का नहीं है। निर्मल हृदय में दर्जनों मां हैं, जिनके दिल का दर्द अब नासूर बन चुका है। मदर्स डे पर मैं जगत जननी जगदम्बा, अल्लाह तवाख तआला और गॉड से यह दुआ करता हूं कि इन मांओं के बच्चों के दिल में तड़प पैदा करें, उन्हें उनकी मां का दूध याद दिलाएं और यह सद्बुद्धि दें कि मां फेंकने, भगाने के लिए नहीं कलेजे से लगाने के लिए है, आंचल में पनाह लेने के लिए है। आमीन..

मां की लोरी का एहसास तो है,

पर मां को मां कहने का वक्त नहीं।

सारे रिश्तों को तो हम मार चुके,

उन्हें दफनाने का भी वक्त नहीं।