शनिवार, 2 अगस्त 2008
क्या लीडर को दर्द नहीं होता
इस गुजरे हफ्ते की सबसे बड़ी खबर आप किसे समझते हैं? गुर्जर आंदोलन? पेट्रोलियम के दामों में बढ़ोतरी? बराक ओबामा की जीत? या फिर कुछ और? मेरे खयाल से ये और ऐसे ही वाकये सबसे बड़ी खबर नहीं थे। सबसे बड़ी खबर थी आडवाणी के आंसू। पिछले दिनों एक सम्मेलन में स्वाति पीरामल की कविता सुनकर आडवाणी इतने भावुक हो उठे कि उनकी आंखें भर आईं। आडवाणी की वे तस्वीरें आपने देखी होंगी। इन्हें इस जिक्र के साथ दिलचस्प अंदाज में पेश किया गया था कि आडवाणी को भारतीय सियासत का आयरन मैन यानी लौह पुरुष कहा जाता है। लेकिन हम जानते हैं कि आडवाणी रोबॉट नहीं हैं। वे साइबोर्ग भी नहीं हैं, जिनके कुछ पुर्जे स्टील के हों। जाहिर है, उनके पास एक अदद दिल भी है, जो भावुक होना जानता है। मुझे याद पड़ता है कि इससे पहले भी हम आडवाणी के आंसू देख चुके हैं। इस हिसाब से रोना उनके लिए नई बात नहीं है। तो भी मैं इसे सबसे बड़ी खबर इसलिए मानता हूं कि हमारे देश में सियासतदां रोया नहीं करते। वे आम तौर पर हंसते भी नहीं हैं। थोड़ा-बहुत मुस्कराते उन्हें देखा जा सकता है, लेकिन वह रस्म अदायगी की तरह होता है। उन्हें खिलखिलाते हुए नहीं देखा जाता। वे सियासत की जिम्मेदारी को बेहद संजीदगी से लेते हैं और चुटकुले तो कभी नहीं सुनाते। वे हमेशा संजीदा और सच कहें तो तनावग्रस्त दिखते हैं। वे बहुत सोच-समझकर बोलते हैं, जैसे निशाना साध रहे हों। वे एक ही इमोशन जाहिर करते हैं- नाराजगी। वे हमेशा चिढ़े हुए दिखते हैं। हमारा समाज मर्दवादी है और माना जाता है कि मर्द को दर्द नहीं होता। हमारे राजनेता इस सिद्धांत के सबसे बड़े अनुयायी हैं। वे अपनी तकलीफ, अपनी खुशी अपने भीतर छिपाए रखते हैं। हमें पता है कि अकेले में, अपने लोगों के बीच वे इमोशनल होते होंगे, लेकिन पब्लिक में उनका परफॉरमेंस अलग होता है। वे बापवादी हैं। अभी हाल तक परिवार का मर्द खिलंदड़ होना गवारा नहीं कर सकता था। इससे औरतों को शह मिलती थी और बच्चे बिगड़ जाते थे। डिसिप्लिन बनाए रखने के लिए बाप को उनसे हाथ भर की दूरी बनाए रखनी होती थी और वह चुप रहकर अपनी धाक कायम करता था। हमारे राजनेता खुद को इस बाप के रोल में देखते हैं। लेकिन आज का बाप बदल गया है। वह पहले से ज्यादा स्मार्ट, मिलनसार और मजाकिया है। अनुपम खेर लगभग हर फिल्म में मसखरे बाप बनकर आते हैं। लेकिन मैं समझता हूं कि अगर उन्हें प्राइम मिनिस्टर बना दिया जाए, तो उनसे ज्यादा सीरियस कोई नहीं होगा। हमारे पीएम कभी नहीं हंसते। पीएम के लिए हंसना मना है। लेकिन ये सभी नेता उस डेमोक्रेसी की संतान हैं, जिसे पंडित जवाहरलाल नेहरू ने परवान चढ़ाया था, और नेहरू खुद काफी दिलचस्प शख्सियत थे। उन्हें हंसते हुए देखा जा सकता था। वे नाराज भी खूब खुलकर होते थे। बच्चों के बीच उनकी खिलंदड़ी के किस्से मशहूर हैं। हालांकि उनके आंसुओं का जिक्र हमें कहीं नहीं मिलता। लेकिन हर कहीं ऐसा नहीं है। जापान और कोरिया में तो बड़े-बड़े नेता जब फंस जाते हैं, तो बाकायदा आंसू टपकाते हैं और माफी मांगते हैं। अमेरिका के नेता इस मामले में बेमिसाल हैं। वे कभी रोबॉट की तरह नहीं दिखते। साल भर से भी लंबे अपने इलेक्शन कैंपेन में वे हर मूड की झलक दिखाते हैं। हिलेरी क्लिंटन ने आंसू बहाकर एक बार चुनाव की धारा लगभग पलट ही दी थी। बुश रोते नहीं हैं, लेकिन हंसते खूब खुलकर हैं। वे नॉनवेज किस्म के चुटकुले सुनाते पाए गए हैं। एकाध बार वे पब्लिक में चकराकर गिर पड़े। उन्होंने इसका बुरा नहीं माना। हमारे पूर्व प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी के बारे में कहा जाता है कि वे अपने कार्टूनों से सख्त चिढ़ते थे। वैसे भी वे मजाक करें, तो उसे उलटबांसी समझ लिया जाता। लालू प्रसाद जरूर सबसे अलग और दिलचस्प हैं, लेकिन यह अलग स्टाइल की पॉलिटिक्स है। मैं समझता हूं कि अगर कभी उन्हें पीएम बनने का मौका मिला, तो उनके सलाहकार उन्हें देवगौड़ा बनाने पर आमादा हो जाएंगे। पूरे चांस यही हैं कि वे मान भी जाएंगे, क्योंकि यही रिवाज है। हम सब इंसान हैं, तो इंसान जैसा दिखने से डर किस बात का होना चाहिए? हमारे नेताओं को यह डर क्यों सताता है कि वे अपने इमोशन चेहरे पर आने देंगे, तो हल्के हो जाएंगे, उन्हें राज चलाने के नाकाबिल मान लिया जाएगा और वोट मिलने बंद हो जाएंगे? यह फिजूल का डर है। मैं इसे आउटडेटेड भी नहीं कहूंगा, क्योंकि पुराने जमाने के हमारे राजा-महाराजा तो ऐसा बर्ताव नहीं करते थे। उनके बारे में जो भी जानकारी हमें है, उसके हिसाब से वे बड़े कलारसिक, मौज-मजा करने वाले, खिलंदड़, शौकीन और बेशर्म थे। वे हंसने के लिए दरबार में विदूषक रखते थे। विदूषक का पद सरकारी था। फुर्सत में वे प्यार-रोमांस का वही खेल खेलते थे, जो उनकी प्रजा खेलती थी और इसे बाकायदा किताबों में दर्ज करवाते थे। उनके खिलाफ अक्सर बगावत हो जाती थी, लेकिन इस वजह से कभी नहीं कि राजा बहुत हंसता या रोता है। तमाम पुराणों को देखिए, हमारे अवतारी पुरुष भी अपने चमत्कारी हथियारों और ताकत के बावजूद बिल्कुल नॉर्मल नजर आते हैं। सीता के वियोग में बिलखते राम को याद कीजिए। लेकिन फिर बीच में यह 'नेता को दर्द नहीं होता' का सिद्धांत कहां से आ गया? मैं समझता हूं यह उसी फ्यूडल सोच का नतीजा है, जिससे दूसरी भी कई गड़बड़ियां पैदा हुईं। जबकि डेमोक्रेसी में इससे बड़ी रणनीतिक भूल और कुछ नहीं हो सकती। नाराज नेता हमारे दिल में इज्जत पैदा कर सकता है, लेकिन मौका पाते ही हम हंसते हुए नेता को वोट देना पसंद करेंगे, क्योंकि वह हमारे दिल तक पहुंच सकता है। रोता हुआ नेता उस नेता से हमेशा बेहतर होगा जिसके इमोशंस सूख गए हों, क्योंकि हम समझेंगे कि उसके दिल में जनता के लिए दर्द बचा है। इंसान किसी रोबॉट को अपना नेता बनाना क्यों चाहेंगे? अभी हाल में आडवाणी ने अपनी जीवनी छपवाई है। इसे पीएम पद के दावेदार का पब्लिक रिलेशन कहा गया। लेकिन जो काम आडवाणी अपनी हंसी या आंसू से कर सकते हैं, उसके बरक्स यह कवायद बेकार थी। उन्हें चाहिए कि वे अपने साथियों से भी ऐसा करने को कहें, खास तौर से अरुण जेटली से। हमारे नेताओं को बिल क्लिंटन या निकोलस सार्कोजी जितना आगे बढ़ने की जरूरत नहीं, लेकिन वे मेहरबानी करके खूसट बाप बनने की कोशिश न करें। उन्हें पता होना चाहिए कि उन्होंने दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र को सबसे बोर लोकतंत्र बना डाला है।
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