मंगलवार, 12 अगस्त 2008
एक डैड की कहानी का सुखद अंत
राजधानी में बुजुर्गों पर हमले, हत्याएं इन दिनों एक आम खबर होती जा रही है। जिस समाज को आज हम बना रहे हैं, उसके बारे में एक नए सिरे से सोचने की जरूरत है। कंस्यूमर कल्चर और जबर्दस्त गैरबराबरी ने नौकरों की तथाकथित वफादारी का अर्थ और संदर्भ बदल दिया है। पन्ना दाई का जमाना नहीं है। वे खाते हैं मलाई, तो तुम्हें भी क्यों न मिले मलाई का जमाना है। तथाकथित अमीर या उच्च मध्य वर्ग में बच्चे कम हैं। इन बच्चों को बेस्ट एजुकेशन मिलती है और वे अमेरिका या ऑस्ट्रेलिया जाकर बस जाते हैं। बुजुर्ग माता-पिता या तो बेटे की भेजी हुई शानदार तस्वीरें देख कर खुश रहते हैं (स्विमिंग पूल भी है मेरे बेटे के घर में) या फिर पोता-पोती होने पर अचानक विदेशj में उनकी जरूरत सामने आ जाती है। मनोविज्ञान की अमेरिकी किताबों में अक्सर 'नीड फॉर अचीवमेंट' के बारे में हम पढ़ा करते थे। उन किताबों में एक भारतीय व्यक्ति की चर्चा होती थी, जो धूप में पेड़ के नीचे पड़ा चैन की नींद ले रहा है। विदेशी उसके पास आता है और पूछता है कि तुम समय (नोट किया जाए - टाइम इज मनी) को बर्बाद क्यों कर रहे हो? तुम यह-यह कर सकते थे। बहुत देर तक भारतीय व्यक्ति विदेशी की बातें गौर से सुनता है। अंत में वह पूछता है कि इतना सब कुछ करने के बाद मुझे आखिर मिलता क्या? 'तुम बहुत अमीर आदमी होते और चैन की नींद सोते।' भारतीय व्यक्ति दोबारा चादर तान कर सोने से पहले उस विदेशी से कहता है, 'मैं चैन की नींद ही तो ले रहा हूं।' पश्चिमी मनोविज्ञान की भाषा में इस व्यक्ति की नीड फॉर अचीवमेंट दरअसल 'लो' है। अब हम यहां दूसरी मिसाल लें। दिल्ली शहर के एक मध्यवर्गीय व्यक्ति से उसका अमीर दोस्त कह रहा है कि तुम अपने इकलौते लड़के को शेरवुड क्यों नहीं पढ़ने भेज देते। मेरे बच्चे वहीं पढ़ते हैं। बेचारा मध्यवर्गीय व्यक्ति शेरवुड की फीस कहां से जुटाए। वह पूछता है 'फिर क्या होगा?' 'तुम्हारे बेटे को आईआईटी में एडमिशन मिल जाएगा।' 'फिर क्या होगा?' 'वह अमेरिका चला जाएगा।' 'तो मैं अपनी सारी कमाई बेटे को अमेरिका भेजने में लगा दूं ताकि वह वहां शादी करे और तीन साल में एक बार यहां आ जाया करे।' जाहिर है कि यहां भी नीड फॉर अचीवमेंट 'लो' है। अब एक और थोड़ा दिलचस्प उदाहरण लिया जाए। एक ऊंचे सरकारी अफसर जब रिटायर हुए तो जमशेदपुर में उनके एक पॉश और बहुत बड़े मकान की कीमत करोड़ों में पहुंच गई। बेटा एक विदेशी कंपनी में काम करने लगा। सुंदर बहू आ गई (हमने सुशील शब्द का इस्तेमाल नहीं किया है)। बच्चे हो गए। अफसर की पत्नी का देहांत हो गया। बहू ने कहा डैड को प्राइवेसी मिलनी चाहिए। हमारे यहां अक्सर पार्टियां होती हैं। डैड को तेज म्यूजिक सुनना पड़ता है। हमें भी उनके सामने नाचने-गाने में परेशानी होती है। देखिए, उस दिन डांस करते हुए मेरा क्लीवेज बहुत प्रॉमिनेंट हो गया। डैड सामने बैठे थे। कितनी शर्म की बात है। खैर, डैड को प्राइवेसी दे दी गई। पीछे तीन मंजिला सर्वेंट क्वॉर्टर के ग्राउंड फ्लोर में कूलर लगा दिया गया और डैड को गीता प्रेस की किताबें देकर मुक्ति पा ली गई। ज्यादातर पाठक इस कहानी के दुखद अंत के लिए तैयार हो चुके होंगे, लेकिन डैड बेटे से ज्यादा स्मार्ट थे। बेटा एक साल के लिए फॉरन पोस्टिंग पर सपरिवार गया। डैड ने ऊंची कीमत पर मकान बेचा। एक छोटा फ्लैट खरीदा, लेकिन अपने रहने के लिए नहीं। उसने बेटे का सारा सामान बड़ी सफाई से फ्लैट में शिफ्ट करा दिया। पर वह खुद हरिद्वार नहीं गए। उन्होंने एक फाइव स्टार होटल में एक कमरा बुक किया। बैंक बैलेंस का ब्याज काफी था, बची-खुची जिंदगी आराम से जीने के लिए। घंटी बजाइये और वेटर हाजिर हो जाता था। मनोवैज्ञानिक इसे क्या कहेंगे? नीड फॉर एक्साइटमेंट! संक्षेप में कहा जाए- आजकल बुढ़ापा देर से आता है और बुजुर्ग भी शौकीन किस्म के हो गए हैं। बच्चे को अच्छा पढ़ा-लिखा कर विदेश जरूर भेजिए। पर अकेले अपने बल पर रहने की ताकत पैदा कीजिए। और पश्चिम की तरह नौकरों पर पूरी तरह आश्रित न रहने के तरीके सीखिए। भारत में नौकर सस्ते हैं। इसीलिए विदेशी डिप्लोमेट यहां महाराजा की तरह रहते हैं और अपने देश में जाकर अपने घर की पुताई भी खुद करते हैं!
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