-'नहाय-खायÓ के साथ शुरू होगी छठ पूजा
-पंचमी को लगेगा रसिया का भोग, फिर होगा 36 घंटे का अखंड उपवास
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सूर्य शक्ति का महापुंज है, उसके बिना सृष्टि की कल्पना भी असंभव है। इसीलिए अथर्ववेद में कहा गया है कि, 'हे सूर्यदेव! आप हमारी आयु दीर्घ करें, हमें कष्टों से रहित करें, हम पर आपकी अनुकंपा बनी रहे।Ó यही 'छठ पूजाÓ का सार भी है।
मूलत: बिहार, झारंखड और पूर्वी उत्तर प्रदेश का यह पर्व आज देहरादून समेत पूरे देश का लोक पर्व बन गया है। चूंकि यह पर्व छह-छह महीने में षष्ठी तिथि को अनुष्ठित होता है, शायद इसीलिए इसे छठ कहा गया। छठ की एक पूजा चैत्र के महीने में भी होती है, लेकिन कार्तिक मास की पूजा को ज्यादा लोक महत्व मिला। इस पर्व पर सफाई व पवित्रता का विशेष ध्यान रखा जाता है। चाहे वह घर हो या व्रत स्थल, गोबर से उसकी लिपाई की जाती है। तालाब, पोखर या नदी के किनारे घाट बनाकर उसे केला समेत अन्य पेड़ों की पत्तियों से सजाते हैं। घाट पर गीली मिट्टी से 'सिरसोप्ताÓ बनाकर उसमें सिंदूर, चावल, अघ्र्य सामग्री रखकर छठ मैया का ध्यान किया जाता है।
छठ पूजा आरंभ होती है 'नहाय-खायÓ से, जब व्रती घर की सफाई करने के बाद सात्विक भोजन कर जमीन पर सोते हैं। अगले दिन 'खरनाÓ पर सांध्य बेला में गुड़ के साथ साठी के चावल की खीर बनाकर केले के पत्ते में उसका भोग लगता है। षष्ठी की सुबह से ही डूबते सूर्य को अघ्र्य देने की तैयारी आरंभ हो जाती है। बिहारी महासभा देहरादून के अध्यक्ष सत्येंद्र सिंह ने बताया कि
अघ्र्य में मौसमी सब्जियोंं व फलों को बांस के सूप या मिट्टी के ढक्कन में सजाया जाता है। व्रती इस सजी हुई सुपली को लेकर पश्चिम दिशा में पानी में खड़े होकर सूर्य को नमन करते हैं। यह एक मात्र पर्व है, जब अस्त होते सूर्य की पूजा की जाती है। सूर्य अस्त होने के बाद ही व्रतधारी अपने घरों को लौटते हैं। अद्र्धरात्रि के बाद दोबारा स्नान के बाद नए वस्त्र धारण करके व्रती फिर से व्रतस्थल की ओर प्रस्थान करते हैं और प्रतीक्षा होने लगती है अघ्र्य देने के लिए सूर्याेदय की। सूर्य को अघ्र्य देने के बाद व्रती घर लौटकर घर के देवताओं को नमन करते हैं और शुरू होती है अदरक मुंह में डालकर व्रत खोलने की प्रक्रिया।
पखेव से छठ तक
दीवाली के छह दिन बाद यह व्र्रत सुनिश्चित किया गया है, जो एक तरह से अमावस्या के अगले दिन से ही प्रारंभ हो जाता है। इसे 'पखेवÓ कहते हैं। दूसरा दिन 'सरपनाÓ हुआ, जिसे भाईदूज भी कहते हैं। चौथे दिन को 'नहाय-खायÓ और पांचवें दिन को 'खरनाÓ कहा गया है। छठे दिन अस्ताचलगामी सूर्य को अघ्र्य देने की परंपरा है।
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