मदर्स डे पर यह कल्पना करना अजीब लगता है कि एक दिन मां नहीं रहेगी। यह किसी खास मां क
ा जिक्र नहीं है। मैं उस वक्त के बारे में सोच रहा हूं, जब इंसानों की पीढ़ियों को पैदा होने और पाले जाने के लिए मां की जरूरत नहीं रह जाएगी। मानवीय विकास (कुछ लोग इसे अमानवीय विकास कहना चाहेंगे) जिस दिशा में जा रहा है, वहां मां की जरूरत धीरे-धीरे, लेकिन शर्तिया तौर पर घटती जा रही है। मां, जो हमारे होने का आधार रही है, जिसके बिना हमारी सभ्यता का जिक्र नहीं हो सकता, जो हमारी आत्मा के रेशे-रेशे में मौजूद होती है, एक दिन इतिहास की बात हो जाएगी। पिता के साथ यह दुर्घटना उससे भी पहले घट जाने वाली है। परिवार को चलाने के लिए मर्द की अनिवार्यता का अब खास मतलब नहीं रहा। जो बायलॉजिकल अहमियत थी, उसकी हवा क्लोनिंग ने निकाल दी है। इस धरती पर मानव जाति के कायम रहने के लिए पुरुष की जरूरत तकनीकी तौर पर खत्म हो चुकी है। अगर एक सेक्स की जरूरत (अपनी असल भूमिका प्रजनन के लिए) खत्म हो रही है, तो दूसरा सेक्स भी इस हादसे से कब तक बचा रह सकता है? प्रजनन के लिए स्त्री की जरूरत उस क्षण खत्म हो जाएगी, जब नकली गर्भाशय बना लिया जाएगा या कोई एजंसी बच्चे तैयार करने का काम संभाल लेगी। सुनने में यह आपको एक घटिया और हवाई-सा किस्सा लग सकता है, लेकिन अपने आसपास देखिए और आप जान जाएंगे कि हम उस ओर कदम उठा चुके हैं। इसका पहली संकेत है विवाह की बढ़ती उम्र, अस्थिर परिवार और बच्चे पैदा करने को लेकर घटता उत्साह। आपको ऐसे अनगिनत जोड़े मिल जाएंगे, जो या तो बच्चा होने को लेकर असमंजस में हैं और इसे स्थगित किए जा रहे हैं या एक के बाद दूसरा बच्चा पैदा करने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे। आप कहेंगे कि यह पेरंटिंग को लेकर किसी कुदरती अरुचि की वजह से नहीं, बिजी शहरी लाइफ की मजबूरी के चलते है। लेकिन हम जिन्हें कुदरती मानते हैं, वे जीने के हालात से पैदा हुए गुण होते हैं। मां या पिता बनने की इच्छा तो वैसे भी सामाजिक संस्कार है। बरसों पहले जब इंडस्ट्रियल ऐज के साथ महिलाओं को आजादी मिली और घर की चारदीवारी से निकलकर वे कामगार बनने लगीं, तो जेंडर की सामाजिक भूमिका तेजी से बदली। तभी यह समझ लिया गया था कि परिवार कमजोर पड़ेंगे, क्योंकि औरतें महज मां बनकर खुश नहीं रहने वाली हैं। बर्टेंड रसल जैसे विचारक यह सुझाव लेकर सामने आए कि महिलाओं को मां की जिम्मेदारी से आजाद कर दिया जाए। बच्चे पैदा करना और पालना भी एक प्रफेशन समझा जाए, जिसके लिए सरकार पेमंट करे। तबसे हम काफी आगे बढ़ चुके हैं। यूरोप और जापान जैसे विकसित समाजों में बच्चे पैदा करने में महिलाओं की अरुचि साफ दिख रही है। वहां कम बच्चे पैदा हो रहे हैं और आबादी गिर रही है। इन देशों को देर-सवेर रसल के सुझाव पर अमल करना पड़ सकता है। जैसा मैंने कहा, ममता की छाया में पले हम लोगों के लिए उस दिन की कल्पना करना तकलीफदेह है, जब बच्चे किसी सरकारी योजना के तहत पैदा होंगे, उन्हें या तो प्रफेशनल मांएं जन्म देंगी या वे इनक्युबेटर से निकलेंगे, कोई परिवार उनका इंतजार नहीं कर रहा होगा और उनका बचपन बालघरों में बीतेगा। हम जैसे ही इस बारे में सोचते हैं, मानवीय खुशियों से वंचित एक बीमार नस्ल की तस्वीर हमारे सामने आ जाती है। लेकिन ऐसा नहीं है। सुख और दुख, सही और गलत के पैमाने जमाने के हिसाब से बदलते रहते हैं। जिन बातों में और जिस तरह हमें खुशी मिलती हो, जरूरी नहीं कि भविष्य में भी काम करें। धीरे-धीरे जब पेरंटिंग का चलन खत्म हो जाएगा, लोग उसका अनुभव भी भूल जाएंगे। लेकिन उम्मीद करें कि तब भी बच्चे हमें अच्छे लगेंगे।
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