हम समझे थे कि हमारी हवाओं पर डाका पड़ गया है, वे हफ्ते भर से ज्यादा दक्कन में अटकी रहीं, ले
किन जब उन्होंने रफ्तार पकड़ी तो दिल्ली पहुंचने में सिर्फ एक दिन का फर्क रहा, शायद उससे भी कम। आखिरकार मॉनसून के मेघ हम पर बरस रहे थे और हमेशा की तरह वह वक्त आ चुका था, जब हम उत्तर भारत की गर्मी, थकान और चिढ़ से निजात पाकर अपनी दुनिया को उम्मीद की नई रोशनी में देखने लगते हैं। मॉनसून कुदरत का चमत्कार है, जो भारत पर अपना जादू बिखेरता है। यह धूप से तप उठे तिब्बत के पठारों के ऊपर पैदा हो उठे खिंचाव से बहती आती नम समुद्री हवाओं का खेल भर नहीं है, यह जिंदगी को फिर से उम्मीदों से लबालब कर देने और साल दर साल करते चले जाने का अनुष्ठान है। इस देश का इतिहास, समाजशास्त्र, अर्थशास्त्र और भूगोल बहुत हद तक इन हवाई नेमतों से बनते रहे हैं। कहना मुश्किल है कि अगर नहीं होता तो हमारी शक्ल कैसी होती, हमारे रीति-रिवाजों, त्योहार-उत्सव, खेत-खलिहान का क्या होता! भारत के अलावा दुनिया में कुछ और मॉनसून सिस्टम हैं। मॉनसून सिस्टम का मतलब ऐसी मौसमी हवाओं से है, जो किसी खास समय में बरसात लाती हैं। बाकी दुनिया में लोकल वजहों से बार-बार बारिश होती रहती है, उसके लिए साल का कोई खास महीना मुकर्रर नहीं होता। वे सिर्फ दो सीजनों-जाड़े और गर्मी में बंटे इलाके हैं, उनके लिए यह समझना मुश्किल है कि तीसरा सीजन- बरसात, होने का क्या मतलब है और जब एक पूरा मुल्क आसमान के काले हो उठने का इंतजार करता है, तो कैसे वह सामाजिकता का एक अलग पाठ सीख रहा होता है। जिन लोगों को खेती की फिक्र रहती है, वे मॉनसून की तुनकमिजाजी, तिकड़मों से अक्सर खफा रहते हैं। यह भी कोई तुक है कि देश की भूख बादलों की मेहरबानी पर टिकी रहे? इसलिए बार-बार कहा जाता है कि हमें मॉनसून पर निर्भर नहीं रहना चाहिए, हालांकि अगर हम बांध और नहरें बनाकर सिंचाई का भरपूर इंतजाम कर लें तो भी नदियों-तालाबों को भरने के लिए हमें आखिर में मॉनसून की मेहरबानी लेनी ही होगी। मॉनसून भारत की किस्मत का दूसरा नाम है। क्या मॉनसून से कभी हमारा रिश्ता खत्म हो सकता है? कुदरती तौर पर तो नहीं, क्योंकि जब तक सूरज-चांद रहेंगे, भारत में बरसात की ऋतु रहेगी। इस कायदे को बदला नहीं जा सकता। लेकिन इंसान की फितरत है कुदरत के बनाए बंधनों से ज्यादा-से-ज्यादा दूर भागना। साइंस और टेक्नॉलजी का तमाम तामझाम इसके लिए है। लिहाजा हम चाहेंगे कि मॉनसून हमें कम-से-कम छुए, हम उसके बिना काम चलाना सीख लें। या फिर अल्टिमेट इलाज यह है कि हम कुदरत का हुलिया ही इतना बिगाड़ दें कि मौसमों का कोई अता-पता ही न रहे, धरती या तो बंजर हो जाए या फिर हम स्टील और प्लास्टिक की दुनिया में रहने लगें जैसा कि फैंटेसी फिल्मों में दिखाया जाता है। लेकिन जब तक ऐसा नहीं होगा (और उसमें वैसे भी काफी वक्त लगेगा) तब तक हम और हमारी कई पीढ़ियां इस साझा अनुभव में भागीदारी करती रहेंगी, जिसका नाम मॉनसून है, जिसने आषाढ़ को आषाढ़ और सावन को सावन बनाया है, जिससे हमारे भोजन में रस है और जो अपनी सौंधी गंध से हमारी आत्मा में ताजगी भर देता है। क्या हम इस अनुभव की इज्जत करेंगे, जिसने हमें बनाया है? क्या हम कुदरत के साथ बिताए उन लमहों को जिंदा रखना चाहेंगे, जिनके बिना अपनी धड़कनों को सुन पाना नामुमकिन होता? इस सवाल का जवाब देना मेरे बस का नहीं है। मैं सिर्फ यह उम्मीद कर सकता हूं कि ये धरती, ये आसमान, ये बादल और ये बारिश बचे रहें। मैं मानता हूं कि एक दिन इन सबके बिना इंसान का काम चल जाएगा, लेकिन जो दुनिया रिमझिम फुहारों के बीच एक कप चाय का सुख नहीं दिला सकेगी, उसका हम क्या करेंगे?
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