गुरुवार, 7 अगस्त 2008
झूठ और सच
सच और झूठ के बड़े फर्क के बावजूद हमारे समाज में वह झूठ प्रचलित और स्वीकार्य रहा है, जिसमें सच का कुछ अंश मौजूद रहता है। कह सकते हैं कि वह झूठ, जो सिर्फ झूठ हो और जिसमें लेशमात्र भी सच न हो, कभी भी लोगों का यकीन नहीं पा सका। कोई बात झूठ हो, पर उतनी हो कि उसमें हमारा भरोसा जग सके, तो वह एक कामयाब झूठ कहलाएगी। यानी झूठ की सफलता भी तभी है, जब उसे सच का आसरा मिले। लोग उस पर यकीन करें और उसे ही सच मान लें। और चाहें तो इस विडंबना पर हम हंस सकते हैं कि अविश्वसनीय सा लगने वाला सच भी कई बार झूठ लगता है। लोग उसमें खोट निकालते हैं, उसे गैरवाजिब ठहराने के रास्ते खोजते हैं। हम यह भी कह सकते हैं कि जिस सच या झूठ की हमें आदत हो गई है, उससे इतर कोई भी अनूठी बात भरोसे के काबिल नहीं लगती। ऐसे सच में भी हम अक्सर झूठ की मात्रा खोजते हैं। यह हमारे जीवन की ट्रैजिडी ही है कि हमें कुछ फीसदी सच और कुछ फीसदी झूठ के साथ जीना पड़ रहा है।
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