गुरुवार, 7 अगस्त 2008
मॉल में नींबू-मिर्च और मिडल क्लास
मैं मॉल के अंदर कभी कभी जाता हूं पर जाग्रति (पत्नी) के दबाव में अधिक जाना पड़ता है। पिछले दिनों एक मॉल में एक ऐसी चीज़ देखी, जिस पर मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ। हो सकता है दूसरे लोगों के लिए यह बहुत साधारण बात हो पर मेरे लिए यह खास थी। मैंने एक शोरूम में एक कोने में छत से नींबू-मिर्च लटकते देखी जो आपस में नत्थी की हुई थी। तत्काल मुझे अपने शहर की गली का दुकानदार नंदू साव याद आ गया। पहली बार इस तरह की नींबू-मिर्च मैंने उसी की दुकान में देखी थी। मैंने उससे पूछा तो उसने कहा, 'यह टोटका है। बुरी नज़र से बचाने के लिए।' मैं उस पर हंसा था। लेकिन बाद में मुझे अफसोस भी हुआ कि इस बेचारे अशिक्षित पर हंसने का क्या मतलब है। फिर कुछ घरों और ऑटोरिक्शा में नींबू-मिर्च के दर्शन हुए। लेकिन किसी मॉल के अत्याधुनिक माहौल में नामी-गिरामी विदेशी ब्रैंड्स के बीच नींबू-मिर्च की अपेक्षा मैंने न की थी। क्या मेल है! एक तरफ नए-नए प्रॉडक्ट, दुकानदारी का नया रंग-ढंग, सजे-धजे आधुनिक ग्राहक और उनके बीच अति प्राचीन टोटका, बुरी नज़र से बचाने के लिए। किसकी बुरी नज़र से? आखिर दुकानदार को किसका डर सता रहा है? नुकसान का? वाकई यह मज़ेदार बात है। मॉडर्न इकॉनमी में अपनी जगह बचाए रखने के लिए भी वही सामंती तरीका कारगर नज़र आता है। क्या बाज़ार के पैरोकारों के पास उस दुकानदार के डर को दूर करने का कोई मॉडर्न तरीका नहीं? कोई आधुनिक टोटका ही सही! मुझे मॉल में भी हर दुकान पर नंदू सवो ही नज़र आता है। फर्क इतना है कि इस नंदू साव ने थोड़ा पढ़ लिख लिया है, अंग्रेज़ी (वह भी अधकचरी) बोलना जानता है। वह मेरे शहर के नंदू साव की तरह दुकान पर लुंगी गंजी पहनकर नहीं बैठता, वह आधुनिक कपड़े पहनता है, परफ्यूम लगाता है, मोबाइल पर बात करता है। यही आज के औसत मध्यवर्ग का चेहरा है। नई इकॉनमी ने मिडल क्लास को संपन्न होने का अभूतपूर्व अवसर दिया और इसने इसका लाभ भी उठाया। निजी बैंकों ने आसान दर पर लोन उपलब्ध कराए जिससे इस तबके को अपना मकान हासिल करने और अपनी गाड़ी लेने की सहूलियत मिली। रोज़गार और कारोबार के कुछ नए दरवाज़े खुले। आवागमन आसान हुआ तो विदेश जाना भी संभव हुआ। लेकिन यह बदलाव ऊपर तक ही सीमित है। इसे कॉस्मेटिक चेंज कह सकते हैं। विचार या सोच के स्तर पर कोई बुनियादी परिवर्तन इस वर्ग के भीतर नज़र नहीं आता है। वह आधुनिक जीवन में अपने भीतर तमाम सामंती अवशेष लिए दाखिल हुआ है बल्कि कई मामलों में तो वह पहले से ज़्यादा कूढ़मगज़ नज़र आ रहा है। विडंबना यह है कि हमारे राजनीतिक नेतृत्व और योजनाकारों को यही वर्ग ज़्यादा नज़र आता है। इसी वर्ग को ध्यान में रखकर सारी योजनाएं बन रही हैं। यही नहीं मीडिया की दिशा तय करने वाला भी यही तबका है। यही आज न्यूज़ चैनलों पर भूत-प्रेत और नाग-नागिनों की कहानियों का सबसे बड़ा दर्शक है। टीआरपी की चाबी इसी के हाथ में है। इसी के डर से मीडिया ने गंभीर विषयों और विचार को देश निकाला दे दिया है और एक तरह से यह मान लिया है कि अब इन चीज़ों की कोई ज़रूरत समाज को नहीं रह गई है। मिडल क्लास चाहता है कि उसे सुंदर, स्वस्थ और संपन्न होने के नुस्खे बताए जाएं लेकिन कोई यह न कहे कि वह सड़क पर ट्रैफिक नियमों का पालन करे, मोहल्ले में सफाई रखे, समाज के प्रति अपनी जवाबदेही निभाए। मध्य वर्ग अपने को हमेशा सही मानता है। वह अपनी दुनिया में आत्मतुष्ट और मगन रहना चाहता है। क्या यही भावी हिंदुस्तान का प्रतिनिधि चेहरा है?
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