रविवार, 10 अगस्त 2008
प्यार तो होना ही है
अब्बास टायरवाला जब प्यार में दोस्ती, दोस्ती में प्यार की उलझन का किस्सा (जाने तू या जाने ना) हमें सुना रहे थे, तब उनके दिमाग में कैंपस रोमैंस को एक और हिट फिल्म में बदल डालने से ज्यादा कुछ नहीं रहा होगा। उन्हें इस बात का खयाल कतई नहीं होगा कि वे एक सामाजिक हकीकत को सामने रख रहे हैं। वह यह कि एक लड़के और लड़की, एक मर्द और एक औरत, यानी अपॉजिट सेक्स के बीच जो हो सकता है, वह लव रिलेशन ही होगा, फ्रेंडशिप नहीं। आखिर क्यों अदिति और जय प्यारे दोस्त बनकर नहीं रह सकते? क्यों जरूरी है कि दोस्ती को प्यार और शादी में बदला जाए? क्यों दोस्ती को दोस्ती की तरह नहीं निभाया जा सकता? दोस्ती और प्यार के कन्फ्यूज़न में हमेशा प्यार की जीत होती है। इसलिए दिल तो पागल है में जब दोस्ती को प्यार का दर्जा नहीं मिलता तो दिल टूटता है और फिल्मकार को खासी कसरत करनी पड़ती है कि सब कुछ ठीक हो जाए। इसीलिए कुछ कुछ होता है, में दोस्ती को प्यार नहीं मान लिए जाने की सजा हीरोइन आत्म निर्वासन के जरिए खुद को देती है और किसी को बीच से हटाना पड़ता है, ताकि दोस्ती अपने अंजाम तक पहुंचे, जो कि प्यार ही है। इन आज की मॉडर्न और जवान कहानियों को देखते हुए मुझे यह अहसास सालता है कि जमाना ज्यादा नहीं बदला है, खासकर औरत और मर्द की दोस्ती के मामले में। पुराने दौर में औरत और मर्द की दोस्ती नाम की कोई चीज थी ही नहीं। उनके बीच या तो रोमैंस हो सकता था या फिर एक किस्म का कामचलाऊ रिश्ता, जिसे दोस्ती का नाम नहीं दिया जा सकता। हर किस्से (हकीकत या फिल्मी या लिटररी) में हीरो-हीरोइन की दोस्ती की थीम नहीं चल सकती थी। प्यार तो होना ही था। सामाजिक कायदे (जो हमारी सोच को अपने मुताबिक ढाल देते हैं) ऐसी दोस्ती की गुंजाइश नहीं छोड़ते थे। कोई ऐसी दोस्ती रखना चाहे, तो उसका अंजाम बुरा होता था। लेकिन जब जमाना बदला, को-ऐड आम बात हो गई, ऑफिसों में औरतें बहुत बड़ी तादाद में दिखने लगीं, तो फिल्मों में 'दोस्ती' का कॉन्सेप्ट खासा नजर आने लगा। मिक्स्ड ग्रुप आम हो गए, जो जिंदगी में भी उतने ही सहज हैं, लेकिन वे तभी तक थे, जब तक कि प्यार उन पर हावी न हो जाए। कुछ कुछ होता है ने हमें एक और सीख दी- अपॉजिट सेक्स में दोस्ती तभी तक मुमकिन थी, जब तक कि लड़की लड़की न लगे, वह टॉम बॉय हो। यानी एक-दूसरे को फेमिनिन या मैस्कुलिन मानते हुए दोस्ती नहीं की जा सकती थी। क्या यह सिर्फ इसलिए था कि हमारी फिल्में अनिवार्य तौर पर रोमैंटिक होती हैं और इसलिए उन्हें मुहब्बत का ही झंडा बुलंद करना होता है? या इसलिए कि सोसायटी में औरत और मर्द के बीच सेक्स का ऐंगल आएगा ही आएगा? कुदरत के इस विधान से बचने का कोई उपाय नहीं? मैं इसे सोसायटी के विकास में एक खामी के तौर पर देखता हूं। हम लगातार इतने समझदार होते जा रहे हैं कि जेंडर के भेदभाव से खुद को आजाद करने लगे हैं। इसलिए लड़के-लड़कियों के दोस्ताना या असेक्शुअल ग्रुप बन जाते हैं। उनके बीच बहुत सहज सखा-भाव भी होता है, जिसमें किसी भी मुद्दे पर चर्चा वर्जित नहीं है। लेकिन जैसे ही कहीं रोमैंस की जरूरत महसूस होती है और कोई रिश्ता बनता है, तो सब कुछ उलट-पुलट हो जाता है। अपने पार्टनर पर कब्जे की, उसे दूसरों से अलग रखने की, जलन और हक जमाने का जटिल गेम शुरू हो जाता है। जाने तू या जाने ना में अदिति और जय अपनी दोस्ती को आजमाने और उसे प्यार की छाया से बचाने का पूरा जतन करते हैं, लेकिन इस दौरान पाते हैं कि वे दूसरे को गैरों की बांहों में नहीं देख सकते। आखिर में उसी से साबित होता है कि उनके बीच जो है, वह दोस्ती नहीं, प्यार है। प्यार संकरा होता है, दोस्ती उदार। मुझे लगता है कि हम उदार नहीं हैं, इसलिए अपॉजिट सेक्स की दोस्ती अब भी हमें अपने पूर्वजों की तरह डराती है। सोसायटी उसे सिर्फ सेक्शुअल ऐंगल से देखती है और हम भी। इसलिए हम या तो उसे प्यार में बदल डालते हैं या फिर उससे पीछा छुड़ा लेते हैं। औरत-मर्द रिश्तों को लेकर हमारे कट्टरपंथी सोच की एक बानगी वे फिल्मी गॉसिप भी हैं, जहां किसी पार्टी में दो लोगों को साथ देखे जाने का एक ही मतलब लगाया जाता है- अफेयर। तमाम तरक्की और जेंडर इक्वेलिटी के बावजूद हमारे लिए औरत और मर्द अब भी अपनी बायॉलजी से ज्यादा नहीं हैं। वे सिर्फ रिप्रॉडक्टिव ऑर्गन्स हैं, माइंड या पर्सनैलिटी नहीं।
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