अशोक सिंह, जमशेदपुर
वर्षों का सपना सच होने जा रहा था। मन में उमंग-उल्लास के साथ उत्साह। साथ में कोल्हान के गांवों की तस्वीर बदलने की तमन्ना। हर गांव की हो सरकार, गांधीजी के इस सपने को साकर करने का दिन रहा शनिवार। सुबह हल्की-फुल्की ठंड। उजाला जैसे-जैसे बढ़ा, ठंड गायब। फिर क्या था, हर एक मतदाता चल पड़ा मतदान केंद्रों की ओर। ढेरों सपनों के साथ पूरे जोश, जज्बे व जुनून के साथ 32 साल बाद लोगों ने नई इबारत लिखी। ग्रामीण क्षेत्रों के बूथों पर युवाओं व महिलाओं की लंबी-लंबी कतारें गांव की सरकार बनाने को बेताब थीं। आत्मविश्वास से लबरेज युवा मतदाता बदलाव के लिए उतावले दिखे। परिणाम, कोल्हान में 70 फीसदी मतदान रहा।
पश्चिम सिंहभूमजिले के पांच प्रखंडों में पंचायत चुनाव के प्रथम चरण में ओवर आल 68.41 प्रतिशत मतदान हुए। चाईबासा भाग-1 में 68.2 प्रतिशत, भाग दो में 69.1 प्रतिशत, हाटगम्हरिया में 66.4 प्रतिशत वोट पड़े। जगन्नाथपुर-1 में 61.5 प्रतिशत, जगन्नाथपुर-72.0 प्रतिशत, टोंटो, 63.0 प्रतिशत, मझगांव 58.3 प्रतिशत व कुमारडुंगी 62.2 मतदान हुए। जिले के लोगों में वोट देने को ले गजब का उत्साह था। पश्चिम सिंहभूम में सबसे ज्यादा महिलाओं व युवाओं की कतार दिखाई पड़ी। नक्सल प्रभावित इलाका होने के बावजूद लोग जमकर मतदान में भाग लिए। अति नक्सल प्रभावित प्रखंडों में व्यापक सुरक्षा व्यवस्था के दावे फेल हो गए। जिले के अतिनक्सल प्रभावित प्रखंड के सुदूर गावों में सुरक्षा बलों की तैनाती नहीं दिखी। शहर से सटे बूथों पर ही जवान दिखाई दिये। टोंटो के एक पंचायत में मतपेटी नहीं खुलने से मतदान देर से शुरू हुआ। जगन्नाथपुर के दो-तीन बूथों पर छिटपुट हाथापाई हुई। विस व लोस से बिल्कुल अलग दिखा गांवों का माहौल।
---
पूर्वी सिंहभूम
जिले में करीब 65.5 प्रतिशत मतदान हुआ। यहां के दो प्रखंडों पोटका में 75 प्रतिशत व मुसाबनी में 63 प्रतिशत मतदान हुआ। पूर्वी सिंहभूम जिले के दोनों हीं प्रखंड अति नक्सल प्रभावित क्षेत्र माने जाते हैं लेकिन यहां के मतदाताओं ने इस महापर्व में जमकर भाग लिया। महिलाएं सुबह से ही अपने घरों के काम निपटाकर महापर्व में भाग लेने के लिए निकल चुकी थीं। पूर्वी सिंहभूम के हल्दीपोखर पंचायत के माड़कू बूथ पर मतपत्रों में गड़बड़ी से अव्यवस्था की स्थिति उत्पन्न हो गई। इस पंचायत पर दोबारा मतदान होने की संभावना है। कतारबद्ध कराने के लिए पुलिस को हल्का बल प्रयोग करना पड़ा। मतदान के दौरान सुरक्षा व्यवस्था पुख्ता थी। लोग जोश के साथ मतदान में भाग लेना चाह रहे थे। हालांकि ग्रामीण इलाकों में शहर से सटे इलाकों के अपेक्षा वोट देने वालों की संख्या ज्यादा दिखी।
------
सरायकेला-खरसांवा
जिले के चार प्रखंडों ईचागढ़, कुकडू, नीमडीह व चांडिल में ओवर आल 79 प्रतिशत मतदान हुआ। ईचागढ़ में 81 प्रतिशत, कुकडू में 75 प्रतिशत, नीमडीह व चांडिल में 80 प्रतिशत का आंकड़ा रहा। इस दौरान कई पंचायत के बूथों पर बिना सुरक्षा बल के ही मतदान हुए। बाहर से मतदान कराने गए मतदानकर्मी काफी सहमे रहे। हालांकि मतदान के दौरान अधिकांश युवाओं में वोट डालने को उत्सुकता देखी गई। जिले के नीमडीह व चांडिल प्रखंड अति नक्सल प्रभावित क्षेत्र माने जाते हैं। यहां सुरक्षा के व्यापक बंदोबस्त किए गए थे। इस दौरान पंचायत चुनाव के लिए हुए मतदान में महिलाओं ने भी बढ़चढ़ कर हिस्सा लिया। हालांकि लोगों में थोड़ी अफरा-तफरी की स्थिति जरूर रही। लेकिन समय जैसे-जैसे बढ़ता गया, लोग ट्रैक पर आते गये। इस दौरान युवा मतदाताओं में काफी उत्सुकता देखी गई। जिले में पंचायत चुनाव के दौरान कहीं भी अप्रियघटना व हिंसा की खबर नहीं है।
रविवार, 28 नवंबर 2010
बुधवार, 17 नवंबर 2010
छऊ नृत्य भारत की 'अतुल्य धरोहर
-भारत की तीन विधाएं यूनेस्को की सूची में शामिल
-सरायकेला छऊ ने झारखंड का मान बढ़ाया : शशधर आचार्य
-------------------
अशोक सिंह, जमशेदपुर : सरायकेला छऊ समेत भारत के तीन मानवता की अमूर्त सांस्कृतिक विरासत को यूनेस्को द्वारा अतुल्य धरोहर की सूची में शामिल किया गया है। जिसमें राजस्थान के 'कालबेलियाÓ लोक गीत व केरल के मुदियतू को यूनाइटेड नेशन साइंनटिफिक एंड कल्चरल आर्गनाइजेशन (यूनेस्को) की विश्व विरासत की इस वर्ष की सूची में जगह मिली है। भारत सरकार ने सात प्राकृतिक स्मारकों, स्थलों व कलाओं को अक्टूबर 2009 में अतुल्य धरोहर (इनटांजिबल हेरिटेज) के लिए यूनेस्को भेजा था। जिसका यूनेस्को ने मंगलवार को विधिवत घोषणा करते हुए कहा कि भारत की तीन कलाएं छऊ नृत्य, कालबेलिया व मुदियतू अतुल्य धरोहर है।
-सरायकेला छऊ ने झारखंड का मान बढ़ाया : शशधर आचार्य
-------------------
अशोक सिंह, जमशेदपुर : सरायकेला छऊ समेत भारत के तीन मानवता की अमूर्त सांस्कृतिक विरासत को यूनेस्को द्वारा अतुल्य धरोहर की सूची में शामिल किया गया है। जिसमें राजस्थान के 'कालबेलियाÓ लोक गीत व केरल के मुदियतू को यूनाइटेड नेशन साइंनटिफिक एंड कल्चरल आर्गनाइजेशन (यूनेस्को) की विश्व विरासत की इस वर्ष की सूची में जगह मिली है। भारत सरकार ने सात प्राकृतिक स्मारकों, स्थलों व कलाओं को अक्टूबर 2009 में अतुल्य धरोहर (इनटांजिबल हेरिटेज) के लिए यूनेस्को भेजा था। जिसका यूनेस्को ने मंगलवार को विधिवत घोषणा करते हुए कहा कि भारत की तीन कलाएं छऊ नृत्य, कालबेलिया व मुदियतू अतुल्य धरोहर है।
मूल रूप से सरायकेला निवासी छऊ गुरू शशधर आचार्य ने दिल्ली से फोन पर बताया कि गुरुओं की वर्षों की कड़ी मेहनत व संघर्ष के बाद विश्व के अतुल धरोहरों में झारखंड के छऊ नृत्य को शामिल होना गौरव की बात है। उन्होंने बताया कि भारत संगीत नाट्य अकादमी के सचिव जैन कस्तुवार के नेतृत्व में भारत सरकार ने इन कलाओं को यूनेस्को भेजा था। नेश्नल स्कूल आफ ड्रामा में कार्यरत शशधर आचार्य ने छऊ पर दस मिनट का एक फिल्म बनाया था। जिसका आर्टिस्टिक डायरेक्टर संगुना भुटानी थी। उन्होंने बताया कि पूरे विश्व से इनटांजिबल हेरिटेज के 54 नोमिनेशन हुए थे। जिसमें भारत की तीन कलाओं को अतुल्य धरोहर माना गया। इसकी सूचना यूनेस्को की बेवसाईट पर जारी हो चुकी है। उन्होंने बताया कि भारत संगीत नाट्य अकादमी के सचिव व जमशेदपुर निवासी जैन कस्तुवार ने भी छऊ के लिए काफी मेहनत किया है।
---------------
छऊ नृत्य : झारखंड, उड़ीसा व पश्चिम बंगाल के आदिवासी इलाकों में इसका काफी प्रचलन है। इस नृत्य में नकली मास्क पहनकर मार्शल डांस किया जाता है। उड़ीसा के मयूरभंज के पूर्व रियासत ने छऊ की तीन कलाओं सरायकेला छऊ, मयूरभंज छऊ व पुरुलिया छऊ को विकसित किया था। जिसमें सरायकेला छऊ आज अतुल्य धरोहर बना।
कालबेलिया : यह कला मूल रूप से राजस्थान के सपेरों की समुदाय में काफी प्रचलित है। इस कला के गीतों व नृत्यों के माध्यम से नागों का आह्वन किया जाता है। मुदियतू : यह धार्मिक नृत्य केरल में गर्मियों की फसलों की कटाई के बाद किया जाता है। संभत: यह कला 250 साल पुरानी है।
सोमवार, 8 नवंबर 2010
हे सूर्यदेव! आपकी अनुकंपा बनी रहे
-'नहाय-खायÓ के साथ शुरू होगी छठ पूजा
-पंचमी को लगेगा रसिया का भोग, फिर होगा 36 घंटे का अखंड उपवास
----------------------
सूर्य शक्ति का महापुंज है, उसके बिना सृष्टि की कल्पना भी असंभव है। इसीलिए अथर्ववेद में कहा गया है कि, 'हे सूर्यदेव! आप हमारी आयु दीर्घ करें, हमें कष्टों से रहित करें, हम पर आपकी अनुकंपा बनी रहे।Ó यही 'छठ पूजाÓ का सार भी है।
मूलत: बिहार, झारंखड और पूर्वी उत्तर प्रदेश का यह पर्व आज देहरादून समेत पूरे देश का लोक पर्व बन गया है। चूंकि यह पर्व छह-छह महीने में षष्ठी तिथि को अनुष्ठित होता है, शायद इसीलिए इसे छठ कहा गया। छठ की एक पूजा चैत्र के महीने में भी होती है, लेकिन कार्तिक मास की पूजा को ज्यादा लोक महत्व मिला। इस पर्व पर सफाई व पवित्रता का विशेष ध्यान रखा जाता है। चाहे वह घर हो या व्रत स्थल, गोबर से उसकी लिपाई की जाती है। तालाब, पोखर या नदी के किनारे घाट बनाकर उसे केला समेत अन्य पेड़ों की पत्तियों से सजाते हैं। घाट पर गीली मिट्टी से 'सिरसोप्ताÓ बनाकर उसमें सिंदूर, चावल, अघ्र्य सामग्री रखकर छठ मैया का ध्यान किया जाता है।
छठ पूजा आरंभ होती है 'नहाय-खायÓ से, जब व्रती घर की सफाई करने के बाद सात्विक भोजन कर जमीन पर सोते हैं। अगले दिन 'खरनाÓ पर सांध्य बेला में गुड़ के साथ साठी के चावल की खीर बनाकर केले के पत्ते में उसका भोग लगता है। षष्ठी की सुबह से ही डूबते सूर्य को अघ्र्य देने की तैयारी आरंभ हो जाती है। बिहारी महासभा देहरादून के अध्यक्ष सत्येंद्र सिंह ने बताया कि
अघ्र्य में मौसमी सब्जियोंं व फलों को बांस के सूप या मिट्टी के ढक्कन में सजाया जाता है। व्रती इस सजी हुई सुपली को लेकर पश्चिम दिशा में पानी में खड़े होकर सूर्य को नमन करते हैं। यह एक मात्र पर्व है, जब अस्त होते सूर्य की पूजा की जाती है। सूर्य अस्त होने के बाद ही व्रतधारी अपने घरों को लौटते हैं। अद्र्धरात्रि के बाद दोबारा स्नान के बाद नए वस्त्र धारण करके व्रती फिर से व्रतस्थल की ओर प्रस्थान करते हैं और प्रतीक्षा होने लगती है अघ्र्य देने के लिए सूर्याेदय की। सूर्य को अघ्र्य देने के बाद व्रती घर लौटकर घर के देवताओं को नमन करते हैं और शुरू होती है अदरक मुंह में डालकर व्रत खोलने की प्रक्रिया।
पखेव से छठ तक
दीवाली के छह दिन बाद यह व्र्रत सुनिश्चित किया गया है, जो एक तरह से अमावस्या के अगले दिन से ही प्रारंभ हो जाता है। इसे 'पखेवÓ कहते हैं। दूसरा दिन 'सरपनाÓ हुआ, जिसे भाईदूज भी कहते हैं। चौथे दिन को 'नहाय-खायÓ और पांचवें दिन को 'खरनाÓ कहा गया है। छठे दिन अस्ताचलगामी सूर्य को अघ्र्य देने की परंपरा है।
-----------------
-पंचमी को लगेगा रसिया का भोग, फिर होगा 36 घंटे का अखंड उपवास
----------------------
सूर्य शक्ति का महापुंज है, उसके बिना सृष्टि की कल्पना भी असंभव है। इसीलिए अथर्ववेद में कहा गया है कि, 'हे सूर्यदेव! आप हमारी आयु दीर्घ करें, हमें कष्टों से रहित करें, हम पर आपकी अनुकंपा बनी रहे।Ó यही 'छठ पूजाÓ का सार भी है।
मूलत: बिहार, झारंखड और पूर्वी उत्तर प्रदेश का यह पर्व आज देहरादून समेत पूरे देश का लोक पर्व बन गया है। चूंकि यह पर्व छह-छह महीने में षष्ठी तिथि को अनुष्ठित होता है, शायद इसीलिए इसे छठ कहा गया। छठ की एक पूजा चैत्र के महीने में भी होती है, लेकिन कार्तिक मास की पूजा को ज्यादा लोक महत्व मिला। इस पर्व पर सफाई व पवित्रता का विशेष ध्यान रखा जाता है। चाहे वह घर हो या व्रत स्थल, गोबर से उसकी लिपाई की जाती है। तालाब, पोखर या नदी के किनारे घाट बनाकर उसे केला समेत अन्य पेड़ों की पत्तियों से सजाते हैं। घाट पर गीली मिट्टी से 'सिरसोप्ताÓ बनाकर उसमें सिंदूर, चावल, अघ्र्य सामग्री रखकर छठ मैया का ध्यान किया जाता है।
छठ पूजा आरंभ होती है 'नहाय-खायÓ से, जब व्रती घर की सफाई करने के बाद सात्विक भोजन कर जमीन पर सोते हैं। अगले दिन 'खरनाÓ पर सांध्य बेला में गुड़ के साथ साठी के चावल की खीर बनाकर केले के पत्ते में उसका भोग लगता है। षष्ठी की सुबह से ही डूबते सूर्य को अघ्र्य देने की तैयारी आरंभ हो जाती है। बिहारी महासभा देहरादून के अध्यक्ष सत्येंद्र सिंह ने बताया कि
अघ्र्य में मौसमी सब्जियोंं व फलों को बांस के सूप या मिट्टी के ढक्कन में सजाया जाता है। व्रती इस सजी हुई सुपली को लेकर पश्चिम दिशा में पानी में खड़े होकर सूर्य को नमन करते हैं। यह एक मात्र पर्व है, जब अस्त होते सूर्य की पूजा की जाती है। सूर्य अस्त होने के बाद ही व्रतधारी अपने घरों को लौटते हैं। अद्र्धरात्रि के बाद दोबारा स्नान के बाद नए वस्त्र धारण करके व्रती फिर से व्रतस्थल की ओर प्रस्थान करते हैं और प्रतीक्षा होने लगती है अघ्र्य देने के लिए सूर्याेदय की। सूर्य को अघ्र्य देने के बाद व्रती घर लौटकर घर के देवताओं को नमन करते हैं और शुरू होती है अदरक मुंह में डालकर व्रत खोलने की प्रक्रिया।
पखेव से छठ तक
दीवाली के छह दिन बाद यह व्र्रत सुनिश्चित किया गया है, जो एक तरह से अमावस्या के अगले दिन से ही प्रारंभ हो जाता है। इसे 'पखेवÓ कहते हैं। दूसरा दिन 'सरपनाÓ हुआ, जिसे भाईदूज भी कहते हैं। चौथे दिन को 'नहाय-खायÓ और पांचवें दिन को 'खरनाÓ कहा गया है। छठे दिन अस्ताचलगामी सूर्य को अघ्र्य देने की परंपरा है।
-----------------
सोमवार, 25 अक्तूबर 2010
बिहार में उम्मीदों को मिली इजाजात
बारह-तेरह साल पहले जानेमाने लेखक और पत्रकार अरविंद एन दास ने लिखा था, 'बिहार विल राइज़ फ़्रॉम इट्स ऐशेज़' यानी बिहार अपनी राख में से उठ खड़ा होगा। एक बिहारी की नज़र से उसे पढ़ें तो वो एक भविष्यवाणी नहीं एक प्रार्थना थी।
लेकिन उनकी मृत्यु के चार सालों के बाद यानी 2005 में बिहार गया तो यही लगा मानो वहां किसी बदलाव की उम्मीद तक करने की इजाज़त दूर-दूर तक नहीं थी।
मैं 2000 के दशक में बिहार की तुलना सम्राट अशोक और शेरशाह सूरी के बिछाए राजमार्गों के लिए मशहूर बिहार से या कभी शिक्षा और संस्कृति की धरोहर के रूप में विख्यात बिहार से नहीं कर रहा था। पटना से सासाराम और बाद में जमशेदपुर से सासाराम की यात्रा के दौरान मैं तो ये नहीं समझ पा रहा था कि सड़क कहां हैं और खेत कहां। मैं रोहतास जिले के चेनारी का रहने वाला हूं। चेनारी के सरकारी अस्पताल में गया तो ज़्यादातर बिस्तर खाली थे, इसलिए नहीं कि लोग स्वस्थ हैं बल्कि इसलिए कि जिसके पास ज़रा भी कुव्वत थी वो निजी डॉक्टरों के पास जा रहे थे.
इक्का-दुक्का ऑपरेशन टॉर्च या लालटेन की रोशनी में होते थे क्योंकि जेनरेटर के लिए जो डीज़ल सप्लाई पटना से चलती थी ओर सासाराम के चेनारी पहुंचते-पहुंचते न जाने कितनों की जेब गर्म कर चुकी होती थी। लगभग 60 प्रतिशत जली हुई एक 70-वर्षीय महिला को धूप में चारपाई पर लिटा रखा था और इंफ़ेक्शन से बचाने के लिए चारपाई पर लगी हुई थी एक फटी हुई मच्छरदानी!
ये वो बिहार था जहां लालू यादव 15 साल से सीधे या परोक्ष रूप से सत्ता पर काबिज़ थे।
ऐसे तो घर होने के नाते साल में दो तीन बार बिहार जाना हुआ करता था। लेकिन लगभग दस सालों बाद यानि 2010 की मई में फिर से बिहार जाने का मौका मिला. काश मैं कह पाता कि नीतीश के बिहार में सब कुछ बदल चुका था और बिहार भी शाइनिंग इंडिया की चमक से दमक रहा था। परेशानियां अभी भी थीं, लोगों की शिकायतें भी थीं लेकिन कुछ नया भी था.
अर्थव्यवस्था तरक्की के संकेत दे रही थी. हर दूसरा व्यक्ति कानून व्यवस्था को खरी खोटी सुनाता हुआ या अपहरण उद्दोग की बात करता नहीं सुनाई दिया। दोपहर को स्कूल की छुट्टी के बाद साइकिल पर सवार होकर घर लौटती छात्राएं मानो भविष्य के लिए उम्मीद पैदा कर रही थीं।
डॉक्टर मरीज़ों को देखने घर से बाहर निकल रहे थे. उन्हें ये डर नहीं था कि निकलते ही कोई उन्हे अगवा न कर ले। किसान खेती में पैसा लगाने से झिझक नहीं रहा था क्योंकि बेहतर सड़क और बेहतर क़ानून व्यवस्था अच्छे बाज़ारों तक उसकी पहुंच बढ़ा रही थी।
कम शब्दों में कहूं तो लगा मानो बिहार में उम्मीद को इजाज़त मिलती नज़र आ रही थी।
और एक बिहारी होने के नाते ( भले ही मैं बिहार से बाहर हूं) ये मेरे लिए बड़ी चीज़ है।
इस चुनाव में नीतीश कुमार समेत सभी राजनीतिक खिलाड़ियों के लिए बहुत कुछ दांव पर है।
लेकिन बिहारियों के लिए दांव पर है उम्मीद. उम्मीद कि शायद अब बिहार का राजनीतिक व्याकरण उनकी जात नहीं विकास के मुद्दे तय करेंगे, उम्मीद कि बिहारी होने का मतलब सिर्फ़ भाड़े का मजदूर बनना नहीं रहेगा, उम्मीद कि भारत ही नहीं दुनिया के किसी कोने में बिहारी कहलाना मान की बात होगी।
लेकिन उनकी मृत्यु के चार सालों के बाद यानी 2005 में बिहार गया तो यही लगा मानो वहां किसी बदलाव की उम्मीद तक करने की इजाज़त दूर-दूर तक नहीं थी।
मैं 2000 के दशक में बिहार की तुलना सम्राट अशोक और शेरशाह सूरी के बिछाए राजमार्गों के लिए मशहूर बिहार से या कभी शिक्षा और संस्कृति की धरोहर के रूप में विख्यात बिहार से नहीं कर रहा था। पटना से सासाराम और बाद में जमशेदपुर से सासाराम की यात्रा के दौरान मैं तो ये नहीं समझ पा रहा था कि सड़क कहां हैं और खेत कहां। मैं रोहतास जिले के चेनारी का रहने वाला हूं। चेनारी के सरकारी अस्पताल में गया तो ज़्यादातर बिस्तर खाली थे, इसलिए नहीं कि लोग स्वस्थ हैं बल्कि इसलिए कि जिसके पास ज़रा भी कुव्वत थी वो निजी डॉक्टरों के पास जा रहे थे.
इक्का-दुक्का ऑपरेशन टॉर्च या लालटेन की रोशनी में होते थे क्योंकि जेनरेटर के लिए जो डीज़ल सप्लाई पटना से चलती थी ओर सासाराम के चेनारी पहुंचते-पहुंचते न जाने कितनों की जेब गर्म कर चुकी होती थी। लगभग 60 प्रतिशत जली हुई एक 70-वर्षीय महिला को धूप में चारपाई पर लिटा रखा था और इंफ़ेक्शन से बचाने के लिए चारपाई पर लगी हुई थी एक फटी हुई मच्छरदानी!
ये वो बिहार था जहां लालू यादव 15 साल से सीधे या परोक्ष रूप से सत्ता पर काबिज़ थे।
ऐसे तो घर होने के नाते साल में दो तीन बार बिहार जाना हुआ करता था। लेकिन लगभग दस सालों बाद यानि 2010 की मई में फिर से बिहार जाने का मौका मिला. काश मैं कह पाता कि नीतीश के बिहार में सब कुछ बदल चुका था और बिहार भी शाइनिंग इंडिया की चमक से दमक रहा था। परेशानियां अभी भी थीं, लोगों की शिकायतें भी थीं लेकिन कुछ नया भी था.
अर्थव्यवस्था तरक्की के संकेत दे रही थी. हर दूसरा व्यक्ति कानून व्यवस्था को खरी खोटी सुनाता हुआ या अपहरण उद्दोग की बात करता नहीं सुनाई दिया। दोपहर को स्कूल की छुट्टी के बाद साइकिल पर सवार होकर घर लौटती छात्राएं मानो भविष्य के लिए उम्मीद पैदा कर रही थीं।
डॉक्टर मरीज़ों को देखने घर से बाहर निकल रहे थे. उन्हें ये डर नहीं था कि निकलते ही कोई उन्हे अगवा न कर ले। किसान खेती में पैसा लगाने से झिझक नहीं रहा था क्योंकि बेहतर सड़क और बेहतर क़ानून व्यवस्था अच्छे बाज़ारों तक उसकी पहुंच बढ़ा रही थी।
कम शब्दों में कहूं तो लगा मानो बिहार में उम्मीद को इजाज़त मिलती नज़र आ रही थी।
और एक बिहारी होने के नाते ( भले ही मैं बिहार से बाहर हूं) ये मेरे लिए बड़ी चीज़ है।
इस चुनाव में नीतीश कुमार समेत सभी राजनीतिक खिलाड़ियों के लिए बहुत कुछ दांव पर है।
लेकिन बिहारियों के लिए दांव पर है उम्मीद. उम्मीद कि शायद अब बिहार का राजनीतिक व्याकरण उनकी जात नहीं विकास के मुद्दे तय करेंगे, उम्मीद कि बिहारी होने का मतलब सिर्फ़ भाड़े का मजदूर बनना नहीं रहेगा, उम्मीद कि भारत ही नहीं दुनिया के किसी कोने में बिहारी कहलाना मान की बात होगी।
बुधवार, 29 सितंबर 2010
शनिवार, 11 सितंबर 2010
रविवार, 5 सितंबर 2010
बुधवार, 25 अगस्त 2010
ये मासूम हैं!
ये मासूम हैं! इन्हें नहीं पता कि सावधानी हटी, दुर्घटना घटी, पर यह नजारा जानलेवा जरूर है। ये बच्चे पश्चिमी सिंहभूम जिले के डांगवापोसी के कई स्कूलों के छात्र हैं। ये सभी रेलवे ओवरब्रिज के अभाव में जान-जोखिम में डाल कर हर दिन शिक्षा की ज्योति जलाने जाते हैं। लेकिन इस नाजारे के लिए कौन है जिम्मेदार? नागरिक प्रशासन, रेल प्रशासन या अभिभावक। हम तो यही चाहेंगे कि हम सभी समय रहते जल्द से जल्द चेत जाएं।
रविवार, 15 अगस्त 2010
शनिवार, 14 अगस्त 2010
अतुल्य भारत!
जहां शहीदों को मिलते हैं सिर्फ एक लाख रुपये
-चावल 40 रुपये किलो, सिम कार्ड मुफ्त
देश जहां स्वतंत्रता दिवस की 63वीं वर्षगांठ मना रहा है, वहीं दूसरे ओर पूरा भारत महंगाई व भ्रष्टचार से जूझ रहा है।
देश को 'अतुल्य भारत' की संज्ञा दी जा रही है। लेकिन एक बहुत बड़सा सवाल है हमारे देश में 'ओलंपिक निशानेबाज को स्वर्ण पदक मिलता है तो सरकार उसे तीन करोड़ रुपये देती है। मगर जब हमारे बहादुर सैनिक आतंकवादियों से मोर्चा लेते हुए शहीद हो जाते हैं तो सरकार की जेब से सिर्फ एक लाख रुपये ही निकल पाते हैं। वाकई अतुल्य भारत!'
डायन महंगाई खाये जात है।
'हमारे देश में चावल 40 रुपये किलो मिलता है लेकिन मोबाइल का सिम कार्ड मुफ्त मिलता है। ऐसा देश है मेरा! यहां कार लोन पांच प्रतिशत ब्याज दर जबकि छात्रों को शिक्षा ऋण 12 प्रतिशत ब्याज दर पर मिलता है।'
देश में लगातार बढ़ रही कन्या भ्रूण हत्या की घटना बढ़ रही है। मंदिरों में कुछ लोग दुर्गा देवी की पूजा करते हैं पर घर में लड़कियों के पैदा होने से पहले उनकी हत्या कर देते हैं। यही नहीं पिज्जा यहां एम्बुलेंस से पहले पहुंच जाता है.. ऐसा देश है मेरा।'
-चावल 40 रुपये किलो, सिम कार्ड मुफ्त
देश जहां स्वतंत्रता दिवस की 63वीं वर्षगांठ मना रहा है, वहीं दूसरे ओर पूरा भारत महंगाई व भ्रष्टचार से जूझ रहा है।
देश को 'अतुल्य भारत' की संज्ञा दी जा रही है। लेकिन एक बहुत बड़सा सवाल है हमारे देश में 'ओलंपिक निशानेबाज को स्वर्ण पदक मिलता है तो सरकार उसे तीन करोड़ रुपये देती है। मगर जब हमारे बहादुर सैनिक आतंकवादियों से मोर्चा लेते हुए शहीद हो जाते हैं तो सरकार की जेब से सिर्फ एक लाख रुपये ही निकल पाते हैं। वाकई अतुल्य भारत!'
डायन महंगाई खाये जात है।
'हमारे देश में चावल 40 रुपये किलो मिलता है लेकिन मोबाइल का सिम कार्ड मुफ्त मिलता है। ऐसा देश है मेरा! यहां कार लोन पांच प्रतिशत ब्याज दर जबकि छात्रों को शिक्षा ऋण 12 प्रतिशत ब्याज दर पर मिलता है।'
देश में लगातार बढ़ रही कन्या भ्रूण हत्या की घटना बढ़ रही है। मंदिरों में कुछ लोग दुर्गा देवी की पूजा करते हैं पर घर में लड़कियों के पैदा होने से पहले उनकी हत्या कर देते हैं। यही नहीं पिज्जा यहां एम्बुलेंस से पहले पहुंच जाता है.. ऐसा देश है मेरा।'
मंगलवार, 10 अगस्त 2010
इंसान एक बार जीता है, एक बार मरता है और एक बार ही प्यार करता है...
जिंदगी में इंसान को कई बार प्यार हो सकता है। यह बात दूसरी है कि पहला प्यार कोई भुला नहीं पाता। लेकिन सच्चा प्यार बड़ी ही मुश्किल से किसी को नसीब होता है...आज की हाईटेक लाइफस्टाइल में प्यार की परिभाषा बदल गई है...प्यार भी हाईटेक हो गया है...लोग प्यार कई चीजें देखकर करने लगे हैं...मसलन जेब...सैलरी...लाइफस्टाइल...और इन सबसे बढ़कर ये मायने रखता है कि आप सामनेवाले से ज्यादा हाईप्रोफाइल हैं या नहीं...साथ ही उनके जैसी समतुल्यता (equilibrium) रखते हैं या नहीं...आज प्यार ने अपनी परिपक्वता (puberty) को हासिल कर लिया है...
शनिवार, 7 अगस्त 2010
गुरुवार, 5 अगस्त 2010
झारखंड : इनपुट
स्थापना : 15 नवंबर, 2000 (भगवान बिरसा मुंडा की जयंती के अवसर पर।)
जनसंख्या : 2,69,09,428 (2001 की जनगणना के अनुसार)
पुरुष : 1,38,61,277
महिला : 1,30,48,151
प्रति व्यक्ति आय : 4161 रुपये
कुल साक्षरता : 59.6 फीसदी (2007 में)
पुरुष साक्षरता : 69.7 फीसदी (2001 में)
महिला साक्षरता : 39.38 फीसदी
(2001 में)
जनसंख्या घनत्व : 338 व्यक्ति प्रति वर्ग किमी।
जिला : 24
अनुमंडल : 35
ब्लॉक : 212
गांव : 32,620
विद्युतीकरण : 45 फीसदी गांवों में।
सड़क : 4662 गांवों में
कुल क्षेत्रफल : 79.70 लाख हेक्टेयर
कृषि योग्य क्षेत्र : 38 लाख हेक्टेयर
कृषि उपयोग में आ रहे क्षेत्र : 18.04 लाख हेक्टेयर (कुल क्षेत्र का 25 फीसदी)
सिंचित क्षेत्र : 1.57 लाख हेक्टेयर (कृषि उपयोग में आने वाली भूमि का मात्र आठ फीसदी)
----------------------
झारखंड और नक्सलवाद :
बहुमूल्य खनिजों को अपने समेटे झारखंड की धरती की लाली नक्सली करतूतों से भी लंबे अरसे से रक्तरंजित होती रही है। यह राज्य नक्सली और माओवादी हिंसाओं की सबसे अधिक विभीषिका झेलने वाले राज्यों में से एक रहा है। देश के कुल क्षेत्रफल का महज 7.8 होने के बावजूद झारखंड का 92,000 वर्ग किलोमीटर नक्सल प्रभावित लाल गलियारे में तब्दील हो चुका है। हालांकि यह भी गौर करने वाली बात है कि प्रभावित क्षेत्र की एक बड़ी आबादी घोर गरीबी और उपेक्षा से पीडि़त है। सुविधाएं यहां नगण्य हैं। जबकि यह इलाका प्राकृतिक संसाधनों और वनौषधियों से संपन्न हैं। साथ ही देश की अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण योगदान देता है।
जनसंख्या : 2,69,09,428 (2001 की जनगणना के अनुसार)
पुरुष : 1,38,61,277
महिला : 1,30,48,151
प्रति व्यक्ति आय : 4161 रुपये
कुल साक्षरता : 59.6 फीसदी (2007 में)
पुरुष साक्षरता : 69.7 फीसदी (2001 में)
महिला साक्षरता : 39.38 फीसदी
(2001 में)
जनसंख्या घनत्व : 338 व्यक्ति प्रति वर्ग किमी।
जिला : 24
अनुमंडल : 35
ब्लॉक : 212
गांव : 32,620
विद्युतीकरण : 45 फीसदी गांवों में।
सड़क : 4662 गांवों में
कुल क्षेत्रफल : 79.70 लाख हेक्टेयर
कृषि योग्य क्षेत्र : 38 लाख हेक्टेयर
कृषि उपयोग में आ रहे क्षेत्र : 18.04 लाख हेक्टेयर (कुल क्षेत्र का 25 फीसदी)
सिंचित क्षेत्र : 1.57 लाख हेक्टेयर (कृषि उपयोग में आने वाली भूमि का मात्र आठ फीसदी)
----------------------
झारखंड और नक्सलवाद :
बहुमूल्य खनिजों को अपने समेटे झारखंड की धरती की लाली नक्सली करतूतों से भी लंबे अरसे से रक्तरंजित होती रही है। यह राज्य नक्सली और माओवादी हिंसाओं की सबसे अधिक विभीषिका झेलने वाले राज्यों में से एक रहा है। देश के कुल क्षेत्रफल का महज 7.8 होने के बावजूद झारखंड का 92,000 वर्ग किलोमीटर नक्सल प्रभावित लाल गलियारे में तब्दील हो चुका है। हालांकि यह भी गौर करने वाली बात है कि प्रभावित क्षेत्र की एक बड़ी आबादी घोर गरीबी और उपेक्षा से पीडि़त है। सुविधाएं यहां नगण्य हैं। जबकि यह इलाका प्राकृतिक संसाधनों और वनौषधियों से संपन्न हैं। साथ ही देश की अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण योगदान देता है।
बुधवार, 7 जुलाई 2010
खाकी वर्दी की लाज हुई नीलाम
नौ पर प्राथमिकी, 847 निलंबित, कई पर हत्या, चोरी-डकैती व बलात्कार जैसे आरोप
दागदार वर्दीधारी
अजीत राय(कांस्टेबल) साकची- धारा 387/120बी
चंदन सान्याल(कांस्टेबल)-साकची- धारा-387/120बी
जमीरा बानरा-(कांस्टेबल मृत), सिदगोड़ा-धारा-302/201/34
ओ. उरांव-(डीएसपी)-सिदगोड़ा-धारा-341/323/379/504/34
प्रमोद यादव-(कांस्टेबल),परसुडीह-धारा-392
गुलाब रवानी(थाना प्रभारी), मानगो-धारा-341/323/325/504/34/379
उमेश प्रसाद सिंह(कांस्टेबल)-मानगो-धारा-342/323/354/379
अशोक कुमार सिंह(कांस्टेबल)-मानगो-धारा -279/337/338
राजेश पासवान(कांस्टेबल)-मानगो-धारा -363/366/376/504/323/494
अशोक सिंह, जमशेदपुर : अपराधियों पर लगाम लगाने वाली पुलिस जब खुद ही अपराधी के रूप में नजर आये तो इसे क्या कहा जायेगा। जमशेदपुर के कुछ पुलिसकर्मियों पर हत्या, चोरी, डकैती, बलात्कार व धोखाधड़ी जैसे संगीन आरोप लगना चौकने वाली है। ऐसे ही नौ पुलिस अधिकारियों व जवानों के खिलाफ शहर के विभिन्न थानों में मुकदमे दर्ज हैं। वहीं पिछले पांच वर्ष में ऐसे 847 पुलिस अधिकारी व सिपाही आदेश का उल्लंघन करने व ड्यूटी में लापरवाही के आरोप में निलंबित किये जा चुके हैं। सूचनाधिकार के तहत जमशेदपुर पुलिस उपाधीक्षक सह जनसूचना पदाधिकारी से मिली जानकारी के अनुसार आरोपी पुलिसवालों में से चार की गिरफ्तारी हो चुकी है, पांच जमानत पर हैं और चार मामले लंबित हैं। इनमें एक की मौत हो चुकी है जबकि पांच पर विभागीय कार्रवाई चल रही है। साकची थाने में वर्ष 2008 व 2010 में दो पुलिस कांस्टेबल अजीत राय व चंदन सान्याल के खिलाफ मामला दर्ज किया गया तो सिदगोड़ा में जमीरा बानरा कानून के घेरे में आए। हालांकि जमीरा की मौत हो चुकी है। सिदगोड़ा थाने में डीएसपी ओ. उरांव के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज हुई थी। इन पर चोरी, शांति व्यवस्था को भंग करने व जान-बूझकर चोट पहुंचाने का मामला दर्ज है। हालांकि इस मामले में विभाग ने आरोप पत्र दाखिल कर दिया है। परसुडीह थाने में कंस्टेबल प्रमोद यादव पर डकैती का आरोप है। यह मामला अदालत में लंबित है। जनवरी 2010 को मानगो में थाना प्रभारी गुलाब रवानी खान के खिलाफ चोरी व महिला से अभद्र व्यवहार के संगीन मामले दर्ज हुए। वहीं मानगो थाने में दो और कांस्टेबल पर मामले दर्ज किये गये। जवान अशोक कुमार सिंह पर दूसरों की व्यक्तिगत सुरक्षा खतरे में डालने का आरोप है जबकि राजेश पासवान अपहरण व बलात्कार का आरोपी है। इस केस में आरोप पत्र दाखिल किया जा चुका है।
दागदार वर्दीधारी
अजीत राय(कांस्टेबल) साकची- धारा 387/120बी
चंदन सान्याल(कांस्टेबल)-साकची- धारा-387/120बी
जमीरा बानरा-(कांस्टेबल मृत), सिदगोड़ा-धारा-302/201/34
ओ. उरांव-(डीएसपी)-सिदगोड़ा-धारा-341/323/379/504/34
प्रमोद यादव-(कांस्टेबल),परसुडीह-धारा-392
गुलाब रवानी(थाना प्रभारी), मानगो-धारा-341/323/325/504/34/379
उमेश प्रसाद सिंह(कांस्टेबल)-मानगो-धारा-342/323/354/379
अशोक कुमार सिंह(कांस्टेबल)-मानगो-धारा -279/337/338
राजेश पासवान(कांस्टेबल)-मानगो-धारा -363/366/376/504/323/494
बुधवार, 30 जून 2010
..नशा शराब में होता तो नाचती बोतल
मानव सभ्यता की शुरुआत होने के साथ ही किसी न किसी रूप में आम आदमी को नशे की लत होती चली गयी। संसार की इस सबसे पुरानी व गंभीर बीमारी का उतनी ही तेजी से विकास हो रहा है जितनी तेजी से विश्व की आबादी बढ़ रही है। भारत सहित विश्व के लगभग सभी देश इस बीमारी की गिरफ्तर में हैं। नशे के कई रूप हैं। इससे आम लोगों को जागरूक करने के लिए ही पूरे विश्व में 2
जून को नशा उन्मूलन दिवस मनाया जाता है।
------------------------
नशा मुक्ति के लिए वरदान है पीबीएसटी
पश्चिम बंगाल के पश्चिम मेदिनीपुर जिले के खड़गपुर शहर में प्रबुद्ध भारती शिशु तीर्थ (पीबीएसटी) उन नशेडि़यों के लिए वरदान साबित हो रहा है, जिनके अंदर इससे दूर होने की भावना जाग्रत होती है। शहर के इंदा रोड पर वर्ष 2003 से यह संस्था समाज कल्याण विभाग के सहयोग से इंटीग्रेटेड रिहैबिलेशन सेंटर फार एडिक्टस नामक एक प्रोजेक्ट चला रही है। इसकी सफलता को इसी बात से समझा जा सकता है कि उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड जैसे सुदूर राज्यों के मरीजों का भी यहां पर उपचार किया गया है और उन्हें लाभ भी हुआ। पश्चिम मेदिनीपुर जिले के साथ ही पूर्व मेदिनीपुर, बांकुड़ा, पुरुलिया, बर्द्धवान, हुगली, हावड़ा सहित अन्य जनपदों से यहां मरीजों का आना लगा रहता है। संस्था के महासचिव चित्त रंजन राज कहते हैं कि इस केंद्र में 15 रोगियों के उपचार की व्यवस्था है। 12 कर्मचारियों की मदद से रोगियों को नशे से मुक्ति दिलाने का प्रयास चल रहा है। आज यह संस्था पूरे जिले में नशा उन्मूलन के खिलाफ सक्रिय रूप से काम कर रही है।
---------------------
नशीले पदार्थ व उनका उपयोग :
1. ब्राउन सुगर - चेजिंग, स्मोकिंग व इंजेक्टिंग
2. गांजा : स्मोकिंग
3. चरस : स्मोकिंग
4. कप सीरप : डि्रंक
5. एलएसडी-(केमिकल्स) : ड्रिंक
6. क्लब ड्रग्स : डि्रंक में मिलाकर
डेंडराइट : सूंघ कर
8. एल्कोहल : डि्रंक
9. कोकेन : सूंघ कर
10. आईडीयू : इंजेक्सन द्वारा
11 : तंबाकू : चबाकर, स्मोकिंग
12. स्नैक बाइट : सांप से कटवाना
बताते चलें कि उपरोक्त नशीले पदाथरें में से खड़गपुर में कोकेन उपलब्ध नहीं है। इसके अलावा सांप से कटाकर नशा करने के मामले भी राजधानी कोलकाता में ही पाये गये हैं। यहां यह भी बताना आवश्यक है कि दृढ़ इच्छा शक्ति के बाद कोई भी व्यक्ति एल्कोहल का नशा सबसे आसानी से छोड़ सकता है।
---------------------
कहां से आता है नशे का सामान : पश्चिम मेदिनीपुर जिले का संपर्क यूं तो सड़क व रेल मार्ग के माध्यम से आंध्र प्रदेश, बिहार, झारखंड, उत्तर प्रदेश, उड़ीसा व तमिलनाडु से अधिक है। इसलिए जितनी आसानी से वहां से माल की आपूर्ति हो जाती है उतनी ही आसानी से यहां पर बाहरी पेशेंट भी पाए जाते हैं। इसके अलावा हुगली, बोनगा, सियालदह, बारासात व मुशीरहाट के रास्ते बांग्लादेश से नशीले पदाथरें का जखीरा पूर्व व पश्चिम मेदिनीपुर पहुंचता है। इससे भी अधिक चौकाने वाली बात यह होगी कि जनपद के सबंग प्रखंड में गांजे की खेती भी बहुतायत से होती है।
--------------------
केस स्टडी : ड्राइवरी लाइन में सीख लिया पीना
पश्चिम मेदिनीपुर जनपद के माओवाद प्रभावित ग्वालतोड़ थाना क्षेत्र निवासी एके दास ने गाड़ी चलाने के दौरान ही पीने की लत डाल ली। मध्यवर्गीय परिवार से ताल्लुक रखने वाले दास यूं तो ज्वेलरी दुकान में काम करते थे पंरतु सीजन आफ होने पर वहन चलाने लगे। इसी बीच उन्होंने शराब पीनी शुरू कर दी। एक बच्ची के पिता दास की यह लत इतनी अधिक बिगड़ गयी थी कि सुबह आंख खुलने के साथ ही उन्हें बोतल चाहिए थी। घर वालों की मदद से वह खड़गपुर स्थित नशा उन्मूलन केंद्र पहुंचे और यहां पर उनका लगभग 51 दिनों तक उपचार चला। इस बीच उनके अंदर नशा छोड़ने की इच्छा शक्ति काफी प्रबल हो गयी और एक लंबी प्रक्रिया के बाद अब वह शराब से कोसों दूर चले गये। आज वह इलाके में नशेडि़यों के लिए एक उदाहरण बन गये हैं। अपने आसपास के करीब 10 लोगों को नशा छुड़ाने के लिए वह खुद पहल कर चुके हैं।
---------------------
परिवार की दूरी से पड़ गयी शराब की लत : खड़गपुर रेलवे सुरक्षा बल में सेवारत ए.क्षेत्री अपने परिवार से दूरी के कारण शराब के नशे में पड़ गये। संपन्न मध्यवर्गीय परिवार के क्षेत्री को नशे से दूर करने के लिए उनके सहयोगियों ने ही पहल की और नशा उन्मूलन केंद्र में भर्ती कराया। फिलहाल वह अब अपने आपको शराब से दूर बताते हैं।
---------------
रईसी ने बना दिया शराबी : कभी-कभी संपन्नता कई प्रकार की बुराइयों को भी पैदा कर देती है। इस तरह का एक मामला प्रकाश में आया खड़गपुर तहसील के केशियाड़ी थाना क्षेत्र निवासी यू.दास का। 28 वर्षीय दास का परिवार इलाके में काफी संपन्न माना जाता है। लंबे कारोबार व ऊंची पहुंच के कारण दास हास्टल में रहने के बाद भी सातवीं कक्षा से अधिक नहीं पढ़ सके। ट्रांसपोर्ट का कारोबार किया और नशे की लग लग गयी। प्रतिदिन चार-पांच हजार रुपये वह अपने इस शौक को पूरा करने में खर्च कर देते। विवाह हुआ पर दास में सुधार नहीं हो सका। परिवार के लोगों की मदद से वह नशा उन्मूलन केंद्र में भर्ती हुए और लगभग 50 दिनों के उपचार के बाद इस बीमारी से अपने को दूर कर सके।
--------------
प्रतिवर्ष बढ़ रही है नशेडि़यों की संख्या : लोगों को नशे से दूर रखने की लाख कोशिशों के बाद भी जनपद में प्रतिवर्ष नशेडि़यों की संख्या में इजाफा हो रहा है। नशा उन्मूलन केंद्र के महासचिव चित्त रंजन राज बताते हैं कि वर्ष 08-09 में जहां उनके यहां 116 मरीज भर्ती हुए वहीं वर्ष 09-10 में यह संख्या 128 तक पहुंच गयी।
------------
शहरी क्षेत्र की अपेक्षा ग्रामीण रहते हैं फैसले पर अडिग
: नशे से दूर रहने के प्रति लिये गये अपने निर्णय पर शहरी क्षेत्रों की अपेक्षा ग्रामीण इलाकों के लोग अधिक सक्रिय रहते हैं। इसका कारण यह बताया जाता है कि ग्रामीण परिवेश जहां नशा छोड़ने में सहायक होता है वहीं शहरी परिवेश नशीली वस्तुओं को उपलब्ध कराने में। फलस्वरूप केंद्र में उपचार के बाद घर वापस जाने के बाद शहरी क्षेत्र के लोग जहां अपने दोस्तों के साथ रह कर इसकी गिरफ्त में फिर आ जाते हैं वही ग्रामीण क्षेत्रों के अधिकांश निवासी एक बार नशा छोड़ने के बाद इसकी चपेट में आने से बचते हैं।
--------------
गरीब ही नहीं अमीर वर्ग भी नशे की गिरफ्त में है शामिल : जनपद का गरीब वर्ग ही नहीं बल्कि वह तबका भी नशे की गिरफ्त में बुरी तरह से फंसा हुआ है जिसे समाज में सभ्य व संपन्न माना जाता है। शहर में कई वरीय रेलवे अधिकारियों व बड़े व्यवसायियों के बच्चे आज नशे की गिरफ्त में फंस गये हैं। अपने इस शौक को पूरा करने के लिए वह मोटरसाइकिल, कार, मोबाइल सहित अन्य कीमती वस्तुओं की चोरी भी कर रहे हैं।
जून को नशा उन्मूलन दिवस मनाया जाता है।
------------------------
नशा मुक्ति के लिए वरदान है पीबीएसटी
पश्चिम बंगाल के पश्चिम मेदिनीपुर जिले के खड़गपुर शहर में प्रबुद्ध भारती शिशु तीर्थ (पीबीएसटी) उन नशेडि़यों के लिए वरदान साबित हो रहा है, जिनके अंदर इससे दूर होने की भावना जाग्रत होती है। शहर के इंदा रोड पर वर्ष 2003 से यह संस्था समाज कल्याण विभाग के सहयोग से इंटीग्रेटेड रिहैबिलेशन सेंटर फार एडिक्टस नामक एक प्रोजेक्ट चला रही है। इसकी सफलता को इसी बात से समझा जा सकता है कि उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड जैसे सुदूर राज्यों के मरीजों का भी यहां पर उपचार किया गया है और उन्हें लाभ भी हुआ। पश्चिम मेदिनीपुर जिले के साथ ही पूर्व मेदिनीपुर, बांकुड़ा, पुरुलिया, बर्द्धवान, हुगली, हावड़ा सहित अन्य जनपदों से यहां मरीजों का आना लगा रहता है। संस्था के महासचिव चित्त रंजन राज कहते हैं कि इस केंद्र में 15 रोगियों के उपचार की व्यवस्था है। 12 कर्मचारियों की मदद से रोगियों को नशे से मुक्ति दिलाने का प्रयास चल रहा है। आज यह संस्था पूरे जिले में नशा उन्मूलन के खिलाफ सक्रिय रूप से काम कर रही है।
---------------------
नशीले पदार्थ व उनका उपयोग :
1. ब्राउन सुगर - चेजिंग, स्मोकिंग व इंजेक्टिंग
2. गांजा : स्मोकिंग
3. चरस : स्मोकिंग
4. कप सीरप : डि्रंक
5. एलएसडी-(केमिकल्स) : ड्रिंक
6. क्लब ड्रग्स : डि्रंक में मिलाकर
डेंडराइट : सूंघ कर
8. एल्कोहल : डि्रंक
9. कोकेन : सूंघ कर
10. आईडीयू : इंजेक्सन द्वारा
11 : तंबाकू : चबाकर, स्मोकिंग
12. स्नैक बाइट : सांप से कटवाना
बताते चलें कि उपरोक्त नशीले पदाथरें में से खड़गपुर में कोकेन उपलब्ध नहीं है। इसके अलावा सांप से कटाकर नशा करने के मामले भी राजधानी कोलकाता में ही पाये गये हैं। यहां यह भी बताना आवश्यक है कि दृढ़ इच्छा शक्ति के बाद कोई भी व्यक्ति एल्कोहल का नशा सबसे आसानी से छोड़ सकता है।
---------------------
कहां से आता है नशे का सामान : पश्चिम मेदिनीपुर जिले का संपर्क यूं तो सड़क व रेल मार्ग के माध्यम से आंध्र प्रदेश, बिहार, झारखंड, उत्तर प्रदेश, उड़ीसा व तमिलनाडु से अधिक है। इसलिए जितनी आसानी से वहां से माल की आपूर्ति हो जाती है उतनी ही आसानी से यहां पर बाहरी पेशेंट भी पाए जाते हैं। इसके अलावा हुगली, बोनगा, सियालदह, बारासात व मुशीरहाट के रास्ते बांग्लादेश से नशीले पदाथरें का जखीरा पूर्व व पश्चिम मेदिनीपुर पहुंचता है। इससे भी अधिक चौकाने वाली बात यह होगी कि जनपद के सबंग प्रखंड में गांजे की खेती भी बहुतायत से होती है।
--------------------
केस स्टडी : ड्राइवरी लाइन में सीख लिया पीना
पश्चिम मेदिनीपुर जनपद के माओवाद प्रभावित ग्वालतोड़ थाना क्षेत्र निवासी एके दास ने गाड़ी चलाने के दौरान ही पीने की लत डाल ली। मध्यवर्गीय परिवार से ताल्लुक रखने वाले दास यूं तो ज्वेलरी दुकान में काम करते थे पंरतु सीजन आफ होने पर वहन चलाने लगे। इसी बीच उन्होंने शराब पीनी शुरू कर दी। एक बच्ची के पिता दास की यह लत इतनी अधिक बिगड़ गयी थी कि सुबह आंख खुलने के साथ ही उन्हें बोतल चाहिए थी। घर वालों की मदद से वह खड़गपुर स्थित नशा उन्मूलन केंद्र पहुंचे और यहां पर उनका लगभग 51 दिनों तक उपचार चला। इस बीच उनके अंदर नशा छोड़ने की इच्छा शक्ति काफी प्रबल हो गयी और एक लंबी प्रक्रिया के बाद अब वह शराब से कोसों दूर चले गये। आज वह इलाके में नशेडि़यों के लिए एक उदाहरण बन गये हैं। अपने आसपास के करीब 10 लोगों को नशा छुड़ाने के लिए वह खुद पहल कर चुके हैं।
---------------------
परिवार की दूरी से पड़ गयी शराब की लत : खड़गपुर रेलवे सुरक्षा बल में सेवारत ए.क्षेत्री अपने परिवार से दूरी के कारण शराब के नशे में पड़ गये। संपन्न मध्यवर्गीय परिवार के क्षेत्री को नशे से दूर करने के लिए उनके सहयोगियों ने ही पहल की और नशा उन्मूलन केंद्र में भर्ती कराया। फिलहाल वह अब अपने आपको शराब से दूर बताते हैं।
---------------
रईसी ने बना दिया शराबी : कभी-कभी संपन्नता कई प्रकार की बुराइयों को भी पैदा कर देती है। इस तरह का एक मामला प्रकाश में आया खड़गपुर तहसील के केशियाड़ी थाना क्षेत्र निवासी यू.दास का। 28 वर्षीय दास का परिवार इलाके में काफी संपन्न माना जाता है। लंबे कारोबार व ऊंची पहुंच के कारण दास हास्टल में रहने के बाद भी सातवीं कक्षा से अधिक नहीं पढ़ सके। ट्रांसपोर्ट का कारोबार किया और नशे की लग लग गयी। प्रतिदिन चार-पांच हजार रुपये वह अपने इस शौक को पूरा करने में खर्च कर देते। विवाह हुआ पर दास में सुधार नहीं हो सका। परिवार के लोगों की मदद से वह नशा उन्मूलन केंद्र में भर्ती हुए और लगभग 50 दिनों के उपचार के बाद इस बीमारी से अपने को दूर कर सके।
--------------
प्रतिवर्ष बढ़ रही है नशेडि़यों की संख्या : लोगों को नशे से दूर रखने की लाख कोशिशों के बाद भी जनपद में प्रतिवर्ष नशेडि़यों की संख्या में इजाफा हो रहा है। नशा उन्मूलन केंद्र के महासचिव चित्त रंजन राज बताते हैं कि वर्ष 08-09 में जहां उनके यहां 116 मरीज भर्ती हुए वहीं वर्ष 09-10 में यह संख्या 128 तक पहुंच गयी।
------------
शहरी क्षेत्र की अपेक्षा ग्रामीण रहते हैं फैसले पर अडिग
: नशे से दूर रहने के प्रति लिये गये अपने निर्णय पर शहरी क्षेत्रों की अपेक्षा ग्रामीण इलाकों के लोग अधिक सक्रिय रहते हैं। इसका कारण यह बताया जाता है कि ग्रामीण परिवेश जहां नशा छोड़ने में सहायक होता है वहीं शहरी परिवेश नशीली वस्तुओं को उपलब्ध कराने में। फलस्वरूप केंद्र में उपचार के बाद घर वापस जाने के बाद शहरी क्षेत्र के लोग जहां अपने दोस्तों के साथ रह कर इसकी गिरफ्त में फिर आ जाते हैं वही ग्रामीण क्षेत्रों के अधिकांश निवासी एक बार नशा छोड़ने के बाद इसकी चपेट में आने से बचते हैं।
--------------
गरीब ही नहीं अमीर वर्ग भी नशे की गिरफ्त में है शामिल : जनपद का गरीब वर्ग ही नहीं बल्कि वह तबका भी नशे की गिरफ्त में बुरी तरह से फंसा हुआ है जिसे समाज में सभ्य व संपन्न माना जाता है। शहर में कई वरीय रेलवे अधिकारियों व बड़े व्यवसायियों के बच्चे आज नशे की गिरफ्त में फंस गये हैं। अपने इस शौक को पूरा करने के लिए वह मोटरसाइकिल, कार, मोबाइल सहित अन्य कीमती वस्तुओं की चोरी भी कर रहे हैं।
सोमवार, 24 मई 2010
बदलाव के पहिये पर बेटियों का फर्राटा
बिहार में रिजल्टर में बिहार की बेटियों ने जो फर्राटा भरा है वह काबिलेतारिफ है। इससे यह अहसास होने लगा है कि बिहार में बदलाव की बयार बह रही है। हालांकि अभी भी राज्य में शिक्षा के क्षे में मूलभूत सुविधाओं की कमी है। मगर आने वाले समय में इसी तरह की हवा बहती रही तो वह दिन दूर नहीं होगा जब बेटियों की जीवन बेहतर होगी।
बेटियों की इस उडान में मैं उन्हेंह जोश भरते हुये उनके जब्जेब को सैल्यूट करता हूं।
बेटियों की इस उडान में मैं उन्हेंह जोश भरते हुये उनके जब्जेब को सैल्यूट करता हूं।
सोमवार, 10 मई 2010
रविवार, 9 मई 2010
मां को मां कहने का वक्त नहीं..
-9 मई मदर्स डे पर विशेष
जमशेदपुर : आंखों से झरझर बहता नीर। झुर्रियों में रचा-बसा चेहरा। इर्द-गिर्द तैरता खालीपन और सूनापन। बेबसी, लाचारी से क्षण दर क्षण सामना करने का डर। इस फानी दुनिया में अकेले होने का एहसास। एक महीन सा एहसास जिंदा होने का। कड़वी सच्चाई अपने बेमायने होने की। ताजिंदगी जिसके लिए जिये उसकी यादों में कहीं भी नहीं होने का दर्द। निगाह रास्ते पर कि कोई कभी तो आएगा। इंतजार कि कहीं से एक आवाज आएगी, मां..। ये मां है। औलाद ने फेंक दिया। इस जहान में चारों तरफ देखने पर भी कोई अपना नहीं दिखता। दिल तड़पता है। बड़ा दर्द होता है। उम्र के इस मुकाम पर अपने बेसबब, बेमतलब होने पर कलेजा कांपता है। एक हूक सी उठती है कि हम क्यों जिंदा हैं। जेहन में सवाल उठता है कि खून से बने दूध का कोई मायने नहीं। आंचल की छांव का कोई मतलब नहीं। रात-रात भर जाग कर जिस औलाद को पाला-पोसा उसके दिल दिमाग में 'मां' कहीं भी नहीं।
यह सवाल है निर्मल हृदय, साकची में रह रही 75 साल की उम्र पार चुकी एक मां जोबा हेम्ब्रम का। पल-दर पल अपनी आंखें बंद होने का इंतजार कर रही जोबा से कुछ भी पूछने पर उनकी आंखें बरस पड़ती हैं। अहक-अहक कर बड़ी मुश्किल से बताती हैं कि कभी मेरा भी एक घर था। पति और एक बेटे से भरा-पूरा। पति असमय भगवान के घर चले गए। बेटे को बड़ी मेहनत और मशक्कत करके पाला। बड़ा किया। कहीं न कहीं उम्मीद थी कि बुढ़ापे की लाठी बनेगा। बहुत ज्यादा तो नहीं, पर थोड़ा प्यार तो जरूर करेगा। उम्मीदें टूट गई। उम्र बढ़ने पर मेरे शरीर और दिमाग ने जवाब देना शुरू कर दिया। बेटे ने छोड़ दिया। भटकते-भटकते निर्मल हृदय में आ गई। यहां रह तो रहीं हूं, मेरी सेवा भी होती है और इलाज भी। लेकिन, आत्मा अभी भी घर में बसती है। अपने बेटे के पास। यहां रहते हुए 6-7 साल हो गए। इतने दिनों में किसी ने एक बार भी खोज-खबर नहीं ली। अब तो यह उम्मीद भी जाती रही कि कोई मेरा अपना कफन-दफन भी करेगा।
आज मदर्स डे है। मां का दिन। 60 वर्ष की भारती सोरेन का दर्द भी कुछ कम नहीं है। निर्मल हृदय में रहते हुए इन्हें 15-16 साल हो गए। भारती अपनी मर्जी से यहां आई। किसी ने इन्हें घर से भगाया नहीं। पति गुजर गए। तीन बेटियों और दो बेटों से भरा-पूरा इनका परिवार है। निर्मल हृदय में आने के कुछ साल पहले ही घर में इनका होना न होना एक बराबर हो गया था। बेटे-बेटियों ने इस कदर इन्हें अपने घर और जिंदगी से दरकिनार किया कि इन्होंने घर छोड़ दिया। दर-दर की ठोकर खाते पहुंच गई निर्मल हृदय। शरीर यहां जरूर है, लेकिन लाख दुत्कार के बावजूद अभी भी भारती की आत्मा अपने बच्चों से मिलने और दुलारने के लिए तड़पती है।
इलाहाबाद से भटक कर यहां आई 50 वर्ष की शीला की मानसिक स्थिति ठीक नहीं थी। यहां इलाज होने के बाद हालत थोड़ी सी सुधरी। इनकी मानसिक हालत पूरी तरह से बिगड़ी भी नहीं थी, तभी इनके परिवार ने इनको त्याग दिया। पति किसी दूसरी औरत के साथ रहने लगा। बच्चों ने इन्हें बेमतलब मान लिया। न जाने कितनी रातें कितने दिन इन्होंने बिना खाए-पिये सड़कों पर गुजार दी। किसी तरह यहां पहुचीं। शीला अब तो यह भी भूल चुकी हैं कि इनका घर और परिवार भी है।
यह दर्द अकेले किसी जोबा, भारती और शीला का नहीं है। निर्मल हृदय में दर्जनों मां हैं, जिनके दिल का दर्द अब नासूर बन चुका है। मदर्स डे पर मैं जगत जननी जगदम्बा, अल्लाह तवाख तआला और गॉड से यह दुआ करता हूं कि इन मांओं के बच्चों के दिल में तड़प पैदा करें, उन्हें उनकी मां का दूध याद दिलाएं और यह सद्बुद्धि दें कि मां फेंकने, भगाने के लिए नहीं कलेजे से लगाने के लिए है, आंचल में पनाह लेने के लिए है। आमीन..
मां की लोरी का एहसास तो है,
पर मां को मां कहने का वक्त नहीं।
सारे रिश्तों को तो हम मार चुके,
उन्हें दफनाने का भी वक्त नहीं।
जमशेदपुर : आंखों से झरझर बहता नीर। झुर्रियों में रचा-बसा चेहरा। इर्द-गिर्द तैरता खालीपन और सूनापन। बेबसी, लाचारी से क्षण दर क्षण सामना करने का डर। इस फानी दुनिया में अकेले होने का एहसास। एक महीन सा एहसास जिंदा होने का। कड़वी सच्चाई अपने बेमायने होने की। ताजिंदगी जिसके लिए जिये उसकी यादों में कहीं भी नहीं होने का दर्द। निगाह रास्ते पर कि कोई कभी तो आएगा। इंतजार कि कहीं से एक आवाज आएगी, मां..। ये मां है। औलाद ने फेंक दिया। इस जहान में चारों तरफ देखने पर भी कोई अपना नहीं दिखता। दिल तड़पता है। बड़ा दर्द होता है। उम्र के इस मुकाम पर अपने बेसबब, बेमतलब होने पर कलेजा कांपता है। एक हूक सी उठती है कि हम क्यों जिंदा हैं। जेहन में सवाल उठता है कि खून से बने दूध का कोई मायने नहीं। आंचल की छांव का कोई मतलब नहीं। रात-रात भर जाग कर जिस औलाद को पाला-पोसा उसके दिल दिमाग में 'मां' कहीं भी नहीं।
यह सवाल है निर्मल हृदय, साकची में रह रही 75 साल की उम्र पार चुकी एक मां जोबा हेम्ब्रम का। पल-दर पल अपनी आंखें बंद होने का इंतजार कर रही जोबा से कुछ भी पूछने पर उनकी आंखें बरस पड़ती हैं। अहक-अहक कर बड़ी मुश्किल से बताती हैं कि कभी मेरा भी एक घर था। पति और एक बेटे से भरा-पूरा। पति असमय भगवान के घर चले गए। बेटे को बड़ी मेहनत और मशक्कत करके पाला। बड़ा किया। कहीं न कहीं उम्मीद थी कि बुढ़ापे की लाठी बनेगा। बहुत ज्यादा तो नहीं, पर थोड़ा प्यार तो जरूर करेगा। उम्मीदें टूट गई। उम्र बढ़ने पर मेरे शरीर और दिमाग ने जवाब देना शुरू कर दिया। बेटे ने छोड़ दिया। भटकते-भटकते निर्मल हृदय में आ गई। यहां रह तो रहीं हूं, मेरी सेवा भी होती है और इलाज भी। लेकिन, आत्मा अभी भी घर में बसती है। अपने बेटे के पास। यहां रहते हुए 6-7 साल हो गए। इतने दिनों में किसी ने एक बार भी खोज-खबर नहीं ली। अब तो यह उम्मीद भी जाती रही कि कोई मेरा अपना कफन-दफन भी करेगा।
आज मदर्स डे है। मां का दिन। 60 वर्ष की भारती सोरेन का दर्द भी कुछ कम नहीं है। निर्मल हृदय में रहते हुए इन्हें 15-16 साल हो गए। भारती अपनी मर्जी से यहां आई। किसी ने इन्हें घर से भगाया नहीं। पति गुजर गए। तीन बेटियों और दो बेटों से भरा-पूरा इनका परिवार है। निर्मल हृदय में आने के कुछ साल पहले ही घर में इनका होना न होना एक बराबर हो गया था। बेटे-बेटियों ने इस कदर इन्हें अपने घर और जिंदगी से दरकिनार किया कि इन्होंने घर छोड़ दिया। दर-दर की ठोकर खाते पहुंच गई निर्मल हृदय। शरीर यहां जरूर है, लेकिन लाख दुत्कार के बावजूद अभी भी भारती की आत्मा अपने बच्चों से मिलने और दुलारने के लिए तड़पती है।
इलाहाबाद से भटक कर यहां आई 50 वर्ष की शीला की मानसिक स्थिति ठीक नहीं थी। यहां इलाज होने के बाद हालत थोड़ी सी सुधरी। इनकी मानसिक हालत पूरी तरह से बिगड़ी भी नहीं थी, तभी इनके परिवार ने इनको त्याग दिया। पति किसी दूसरी औरत के साथ रहने लगा। बच्चों ने इन्हें बेमतलब मान लिया। न जाने कितनी रातें कितने दिन इन्होंने बिना खाए-पिये सड़कों पर गुजार दी। किसी तरह यहां पहुचीं। शीला अब तो यह भी भूल चुकी हैं कि इनका घर और परिवार भी है।
यह दर्द अकेले किसी जोबा, भारती और शीला का नहीं है। निर्मल हृदय में दर्जनों मां हैं, जिनके दिल का दर्द अब नासूर बन चुका है। मदर्स डे पर मैं जगत जननी जगदम्बा, अल्लाह तवाख तआला और गॉड से यह दुआ करता हूं कि इन मांओं के बच्चों के दिल में तड़प पैदा करें, उन्हें उनकी मां का दूध याद दिलाएं और यह सद्बुद्धि दें कि मां फेंकने, भगाने के लिए नहीं कलेजे से लगाने के लिए है, आंचल में पनाह लेने के लिए है। आमीन..
मां की लोरी का एहसास तो है,
पर मां को मां कहने का वक्त नहीं।
सारे रिश्तों को तो हम मार चुके,
उन्हें दफनाने का भी वक्त नहीं।
रविवार, 2 मई 2010
मैं भारत हूँ
मैं भरत नाम के दो पुत्रों से हूँ भारत .
मैं भारत हूँ, मैं भा-रत हूँ , मैं प्रतिभा-रत..
----------------
जब जब असभ्य इरविन कोई इतराएगा.
तब तब यह भारत,भगत सिंह बन जाएगा.
----------------------
है बहुत गहरा अन्धेरा , रास्ते मुश्किल भरे .
पर मेरे दिल को पता है-अब सुबह होने को है.
________________________________________
मैं भारत हूँ, मैं भा-रत हूँ , मैं प्रतिभा-रत..
----------------
जब जब असभ्य इरविन कोई इतराएगा.
तब तब यह भारत,भगत सिंह बन जाएगा.
----------------------
है बहुत गहरा अन्धेरा , रास्ते मुश्किल भरे .
पर मेरे दिल को पता है-अब सुबह होने को है.
________________________________________
बुधवार, 28 अप्रैल 2010
शनिवार, 10 अप्रैल 2010
चिठ्ठी भारत की, इंडिया को
डियर इंडिया
मैं भारत...पहचाना?
अब तो काफ़ी आना-जाना होता है आपका हमारी तरफ. सड़कें जो अच्छी हो गई हैं.....और हां, वो जो तीसरी और चौथी लेन देख रहें हैं न हाइवे पर, वो मेरी ही ज़मीन थी. सरकार ने हमें पीछे धकेल दिया जिससे आपको कोई परेशानी न हो.
अरे नहीं शिकायत कहां कर रहा हूं. इंडिया चमकता है तो हमें भी अच्छा लगता है. बस ज़रा रिमाइंड करा रहा था आपको कि वो जो ज़मीन ली थी आपने आठ साल पहले सड़कों के लिए, तब जिस टुकड़े का आपने दो हज़ार दिया था वो पचास हज़ार की हो गई है.
और जब मंत्रीजी कहते हैं इन्कलूसिव ग्रोथ की बात यानि हमें भी आपकी चमक में शामिल करने की बात तो हमें लगा कि अब जब सोना बरस रहा है तो थोड़ी बारिश इधर भी हो जाए. आख़िर ज़मीन हमारे बाप दादाओं की ही तो थी.
अब देखिए भगवान कृष्ण पवार को. गांव से तरबूज़ लेकर बेचने आते हैं भागते ट्रकों के सामने जान जोखिम में डालकर. जहां खड़े होते हैं इन्हीं की ज़मीन थी सड़क के किनारे. लेकिन तभी तक खड़े हो पाएंगे जब तक पांचवीं और छठी लेन का काम शुरू नहीं हो जाता.
कहते हैं रोज़ी रोटी के लिए कुछ तो करना ही पड़ेगा. जो ज़मीन तीन हज़ार में सरकार ने ली थी वो पचास की बिक रही है लेकिन अब हम क्या कर सकते हैं.
आप सोच रहे होंगे किस रोंदू से पाला पड़ा है. ख़ैर छोड़िए, कंट्रीसाइड कैसा लगा? अब सड़कें तो यूरोप अमरीका जैसी हैं, गांव का लुक हम कैसे बदलें.
वैसे हमारी झोपड़ी की दीवार का नया पेंट कैसा लगा. बारिश हो या गर्मी, ये पेंट ख़राब नहीं होते. बड़े अच्छे लोग हैं बेचारे. मुफ्त में पेंट कर जाते हैं बस उस पर लिख देते हैं एयरटेल, वोडाफ़ोन, आइडिया.
अब महेश मिराजकर का घर देखिए. बिल्कुल काली पीली टैक्सी की तरह. चकाचक. सीढ़ी, छत, खिड़की सब पीला और उस पर हर जगह काले से लिखा है आइडिया. और भलमनसाहत देखिए बेचारों की, एक हज़ार रूपए भी दिए, बस एक छोटा सा दस्तख़त करवा लिया कि किसी और को पेंट नहीं करने देना है.
वैसे भी जनाब हमें पहचानता कौन था. किसी को घर का पता पूछना होता था तो बताते थे पीपल के पेड़ के पास वाला घर. सड़क की वजह से पेड़ कट गया तो अता पता भी मुश्किल. अब शान से कहते हैं आइडिया वाला घर, दूसरा कहता है एयरटेल वाला. नाम, पहचान, अस्मिता ये सब बड़े लोगों के चोंचले हैं.
और कितने दिनों तक गोबर से लिपे-पुते घरों में रहते. समझता हूं उन्हें देखकर आपको कविताएं सूझती थीं, गांव गांव जैसा लगता था, लेकिन हमने सोचा इमेज विमेज को गोली मारो, चांस पर डांस करते हैं. सड़क के किनारे हैं तो घर बिलबोर्ड बन जाए तो क्या फ़र्क पड़ता है.
वैसे एक प्राब्लम वाली बात है. ये जो नई पीढ़ी आई है न, बात ही नहीं सुनती है. किसी को अब खेत पर नहीं काम करना है, सब आपकी तरह बनना चाहते हैं. सूटबूट में ऑफ़िस जाना है, सड़क के किनारे जो बड़ी बड़ी फ़ैक्ट्रियां आई हैं वहां काम करना है, कार में घूमना है, सोफ़े पर पांव फैलाकर 42 इंच के प्लाज़मा टीवी पर आईपीएल देखना है.
टेंशन वाली बात है इंडिया जी. अगर सबने खेती छोड़ दी तो आपको अब चावल, दाल, सब्ज़ी भी विदेशों से मंगानी होगी. बेहतर होगा ज़रा आप भी खेतीबाड़ी पर ध्यान दें.
वैसे भी आपकी इकॉनोमी इन्हीं की बदौलत निकल पड़ी है. अब आप 'हम दो हमारे दो' वाले परिवार के लिए एक लिटर की शैंपू खरीदते हैं, अब इन्हें भी ये सब चाहिए. तो पंद्रह-बीस लोगों के परिवार के लिए दस-दस मिलीलीटर के शैंपू के पाउच खरीदते हैं और आर्थिक तरक्की की गाड़ी में बूंद-बूंद तेल डालते रहते हैं.
वैसे घबराने की ज़रूरत नहीं है. ये सब इतनी जल्दी नहीं होगा. साठ साल लगे हैं इन्हें आपसे सीधा खड़ा होकर बात करने में अभी आपकी बराबरी पर पहुंचने में देर है. लेकिन कॉंफ़िडेंस क़ाबिले तारीफ़ है.
अब इस लड़की सुनीता को देखिए, आठवीं में पढ़ती है गांव के स्कूल में. न अंग्रेज़ी बोलनी आती है न हिंदी, बस कन्नड़. लेकिन बाई गॉड, आंखों की जो चमक है न उसे देखकर लगता है कि मौका मिला तो किसी दिन लाल किले पर झंडा फहराएगी..
हाथ में अलजेब्रा के सवालों का बड़ा सा पोस्टर लिए चार लेन की सड़क यूं पार करती है मानो लक्ष्मीबाई.
एक भाई साहब हैं ज्योति केसरी. अच्छे भले ढाबे पर रोटी सेंकते हैं लेकिन नज़र हमेशा आसमान की ओर है.
कहते हैं पढ़ना तो हमें हर हाल में है, तभी मैं अपना और अपने परिवार का नाम रौशन कर पाउंगा.
इंडिया जी ऐसा नहीं है कि हम आगे नहीं बढ़ना चाहते. सड़कों के किनारे जो आलीशान यूनिवर्सिटीज़ खुली हैं, हमारा भी दिल करता है कि हमारे बच्चे वहीं पढ़ें. तो एक छोटा सा ही दरवाज़ा हमारे लिए भी खुला रखते तो अच्छा होता. ये बच्चे समझदार हैं, पढ़ेंगे भी और ज़मीन से भी जुड़े रहेंगे.
इंडिया जी, बहुत बकबक कर चुका मैं. बस आख़िरी बात.
सड़कें चौड़ी हो गई हैं लेकिन हमारे लिए भी जगह रखिएगा, हम भी आ रहे हैं
अगर सारे लोग लेन में चलेंगे न, तो सब के लिए जगह बन जाएगी. पूरी सड़क पर फैलेंगे, तो दुर्घटना का ख़तरा बना रहेगा. और हंस कर या रोकर गुज़रना तो आपको यहीं से होगा न.
कैसी बात करते हैं...मैं और धमकी, कभी नहीं.
सदैव आपका
भारत
मैं भारत...पहचाना?
अब तो काफ़ी आना-जाना होता है आपका हमारी तरफ. सड़कें जो अच्छी हो गई हैं.....और हां, वो जो तीसरी और चौथी लेन देख रहें हैं न हाइवे पर, वो मेरी ही ज़मीन थी. सरकार ने हमें पीछे धकेल दिया जिससे आपको कोई परेशानी न हो.
अरे नहीं शिकायत कहां कर रहा हूं. इंडिया चमकता है तो हमें भी अच्छा लगता है. बस ज़रा रिमाइंड करा रहा था आपको कि वो जो ज़मीन ली थी आपने आठ साल पहले सड़कों के लिए, तब जिस टुकड़े का आपने दो हज़ार दिया था वो पचास हज़ार की हो गई है.
और जब मंत्रीजी कहते हैं इन्कलूसिव ग्रोथ की बात यानि हमें भी आपकी चमक में शामिल करने की बात तो हमें लगा कि अब जब सोना बरस रहा है तो थोड़ी बारिश इधर भी हो जाए. आख़िर ज़मीन हमारे बाप दादाओं की ही तो थी.
अब देखिए भगवान कृष्ण पवार को. गांव से तरबूज़ लेकर बेचने आते हैं भागते ट्रकों के सामने जान जोखिम में डालकर. जहां खड़े होते हैं इन्हीं की ज़मीन थी सड़क के किनारे. लेकिन तभी तक खड़े हो पाएंगे जब तक पांचवीं और छठी लेन का काम शुरू नहीं हो जाता.
कहते हैं रोज़ी रोटी के लिए कुछ तो करना ही पड़ेगा. जो ज़मीन तीन हज़ार में सरकार ने ली थी वो पचास की बिक रही है लेकिन अब हम क्या कर सकते हैं.
आप सोच रहे होंगे किस रोंदू से पाला पड़ा है. ख़ैर छोड़िए, कंट्रीसाइड कैसा लगा? अब सड़कें तो यूरोप अमरीका जैसी हैं, गांव का लुक हम कैसे बदलें.
वैसे हमारी झोपड़ी की दीवार का नया पेंट कैसा लगा. बारिश हो या गर्मी, ये पेंट ख़राब नहीं होते. बड़े अच्छे लोग हैं बेचारे. मुफ्त में पेंट कर जाते हैं बस उस पर लिख देते हैं एयरटेल, वोडाफ़ोन, आइडिया.
अब महेश मिराजकर का घर देखिए. बिल्कुल काली पीली टैक्सी की तरह. चकाचक. सीढ़ी, छत, खिड़की सब पीला और उस पर हर जगह काले से लिखा है आइडिया. और भलमनसाहत देखिए बेचारों की, एक हज़ार रूपए भी दिए, बस एक छोटा सा दस्तख़त करवा लिया कि किसी और को पेंट नहीं करने देना है.
वैसे भी जनाब हमें पहचानता कौन था. किसी को घर का पता पूछना होता था तो बताते थे पीपल के पेड़ के पास वाला घर. सड़क की वजह से पेड़ कट गया तो अता पता भी मुश्किल. अब शान से कहते हैं आइडिया वाला घर, दूसरा कहता है एयरटेल वाला. नाम, पहचान, अस्मिता ये सब बड़े लोगों के चोंचले हैं.
और कितने दिनों तक गोबर से लिपे-पुते घरों में रहते. समझता हूं उन्हें देखकर आपको कविताएं सूझती थीं, गांव गांव जैसा लगता था, लेकिन हमने सोचा इमेज विमेज को गोली मारो, चांस पर डांस करते हैं. सड़क के किनारे हैं तो घर बिलबोर्ड बन जाए तो क्या फ़र्क पड़ता है.
वैसे एक प्राब्लम वाली बात है. ये जो नई पीढ़ी आई है न, बात ही नहीं सुनती है. किसी को अब खेत पर नहीं काम करना है, सब आपकी तरह बनना चाहते हैं. सूटबूट में ऑफ़िस जाना है, सड़क के किनारे जो बड़ी बड़ी फ़ैक्ट्रियां आई हैं वहां काम करना है, कार में घूमना है, सोफ़े पर पांव फैलाकर 42 इंच के प्लाज़मा टीवी पर आईपीएल देखना है.
टेंशन वाली बात है इंडिया जी. अगर सबने खेती छोड़ दी तो आपको अब चावल, दाल, सब्ज़ी भी विदेशों से मंगानी होगी. बेहतर होगा ज़रा आप भी खेतीबाड़ी पर ध्यान दें.
वैसे भी आपकी इकॉनोमी इन्हीं की बदौलत निकल पड़ी है. अब आप 'हम दो हमारे दो' वाले परिवार के लिए एक लिटर की शैंपू खरीदते हैं, अब इन्हें भी ये सब चाहिए. तो पंद्रह-बीस लोगों के परिवार के लिए दस-दस मिलीलीटर के शैंपू के पाउच खरीदते हैं और आर्थिक तरक्की की गाड़ी में बूंद-बूंद तेल डालते रहते हैं.
वैसे घबराने की ज़रूरत नहीं है. ये सब इतनी जल्दी नहीं होगा. साठ साल लगे हैं इन्हें आपसे सीधा खड़ा होकर बात करने में अभी आपकी बराबरी पर पहुंचने में देर है. लेकिन कॉंफ़िडेंस क़ाबिले तारीफ़ है.
अब इस लड़की सुनीता को देखिए, आठवीं में पढ़ती है गांव के स्कूल में. न अंग्रेज़ी बोलनी आती है न हिंदी, बस कन्नड़. लेकिन बाई गॉड, आंखों की जो चमक है न उसे देखकर लगता है कि मौका मिला तो किसी दिन लाल किले पर झंडा फहराएगी..
हाथ में अलजेब्रा के सवालों का बड़ा सा पोस्टर लिए चार लेन की सड़क यूं पार करती है मानो लक्ष्मीबाई.
एक भाई साहब हैं ज्योति केसरी. अच्छे भले ढाबे पर रोटी सेंकते हैं लेकिन नज़र हमेशा आसमान की ओर है.
कहते हैं पढ़ना तो हमें हर हाल में है, तभी मैं अपना और अपने परिवार का नाम रौशन कर पाउंगा.
इंडिया जी ऐसा नहीं है कि हम आगे नहीं बढ़ना चाहते. सड़कों के किनारे जो आलीशान यूनिवर्सिटीज़ खुली हैं, हमारा भी दिल करता है कि हमारे बच्चे वहीं पढ़ें. तो एक छोटा सा ही दरवाज़ा हमारे लिए भी खुला रखते तो अच्छा होता. ये बच्चे समझदार हैं, पढ़ेंगे भी और ज़मीन से भी जुड़े रहेंगे.
इंडिया जी, बहुत बकबक कर चुका मैं. बस आख़िरी बात.
सड़कें चौड़ी हो गई हैं लेकिन हमारे लिए भी जगह रखिएगा, हम भी आ रहे हैं
अगर सारे लोग लेन में चलेंगे न, तो सब के लिए जगह बन जाएगी. पूरी सड़क पर फैलेंगे, तो दुर्घटना का ख़तरा बना रहेगा. और हंस कर या रोकर गुज़रना तो आपको यहीं से होगा न.
कैसी बात करते हैं...मैं और धमकी, कभी नहीं.
सदैव आपका
भारत
शनिवार, 20 मार्च 2010
200 मिलियन प्रवासी आज भी दोयम दर्जे के शिकार
21 मार्च, अन्तर्राष्ट्रीय नस्लीय भेदभाव दिवस पर विशेष
प्रस्तुति : अशोक सिंह, जमशेदपुर
21 मार्च 1960 को दक्षिण अफ्रीका के शारपेवैली उस समय दहल उठा था, जब पुलिस ने रंगभेद के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे लोगों पर गोलियों बरसा दी थी। इस सनसनीखेज वारदात में 69 लोग मारे गये थे, जबकि हजारों लोग घायल हो गये थे। बताया जाता है कि रंगभेद के खिलाफ कानून बनाने को ले साउथ अफ्रीका के शारपेवैली में लोग शांति मार्च कर रहे थे। तभी अचानक दक्षिण अफ्रीका पुलिस की गोलियां आग उगलने लगी थी।
काले 'पास लॉ' (एक दमनकारी नीति) के तहत दक्षिण अफ्रीका में नस्ल व रंगभेद जैसे गतिविधियों को नियंत्रित करते थे। घटना के तुरंत बाद ही संयुक्त राष्ट्र महासभा ने 21 मार्च के दु:खद दिन को अंतर्राष्ट्रीय नस्ली भेदभाव उन्मूलन दिवस व अन्तर्राष्ट्रीय त्रासदी मानने की घोषणा कर दी थी।
पिछले वर्ष अपै्रल में जनेवा स्थित डरबन में आयोजित सम्मेलन में च्च्च मानवाधिकार आयुक्त नवी पिल्लै ने दुनिया भर के प्रवासियों की स्थित पर प्रकाश डाला था। सम्मेलन में उन्होंने कहा कि दुनिया भर में 200 मिलियन लोग अन्तर्राष्ट्रीय प्रवासी हैं। जिनके साथ दोयम दर्जे का व्यवहार किया जाता है। प्रवासियों को उनके अधिकारों से वंचित रखा जाता है, उन्हें नस्लीय भेदभाव व विद्वेष का सामना करना पड़ता है।
पिल्लै के मुताबिक प्रवासियों से दफ्तरों में भेदभाव व समाज में रंगभेद जैसी नीतियां अभी भी अधिकांश देशों जारी है। प्रवासियों को समाजिक सुरक्षा व आवासों के लिए काफी मशक्कत करनी पड़ती है।
इन नीतियों के आंच अब हमारे भारत वर्ष में भी देखने को मिल रही है। एक राज्य के लोग दूसरे राज्यों से आये लोगों पर वक्त-वे-वक्त कहर ढहाते आ रहे हैं। हाल ही में जमशेदपुर के एक युवक की तमिलनाडु में हत्या कर दी गयी थी।
देश व विदेशों में बीते दो माह में भेदभाव की घटनाएं
भारत
नौ फरवरी : पंजाब में 16 बिहारियों को तलवार से काटा
11 फरवरी : हिमाचल में झारखंडी जनजातीय छात्राओं से अश्लील हरकत
16 फरवरी : महाराष्ट्र में आठ आदिवासियों को जिंदा जलाया
तीन मार्च : तमिलनाडु में झारखंड के छात्र की हत्या
विदेश
सात फरवरी : नाइजीरिया में भारतीय नागरिक का अपहरण
10 फरवरी : ब्रिटेन में भारतीय टैक्सी चालक पर हमला
18 फरवरी : नेपाल में तीन भारतीयों की हत्या
21 फरवरी : मलेशिया में भारतीय मूल के सांसद पर पत्नी को तलाक देने का दबाव
27 फरवरी : आफगानिस्तान में 17 भारतीयों की हत्या
तीन मार्च : आस्ट्रेलिया में भारतीय पर नस्ली हमला
चार मार्च : आस्ट्रेलिया मेंच्बच्चे गुरशान सिंह चन्ना की हत्या
प्रस्तुति : अशोक सिंह, जमशेदपुर
21 मार्च 1960 को दक्षिण अफ्रीका के शारपेवैली उस समय दहल उठा था, जब पुलिस ने रंगभेद के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे लोगों पर गोलियों बरसा दी थी। इस सनसनीखेज वारदात में 69 लोग मारे गये थे, जबकि हजारों लोग घायल हो गये थे। बताया जाता है कि रंगभेद के खिलाफ कानून बनाने को ले साउथ अफ्रीका के शारपेवैली में लोग शांति मार्च कर रहे थे। तभी अचानक दक्षिण अफ्रीका पुलिस की गोलियां आग उगलने लगी थी।
काले 'पास लॉ' (एक दमनकारी नीति) के तहत दक्षिण अफ्रीका में नस्ल व रंगभेद जैसे गतिविधियों को नियंत्रित करते थे। घटना के तुरंत बाद ही संयुक्त राष्ट्र महासभा ने 21 मार्च के दु:खद दिन को अंतर्राष्ट्रीय नस्ली भेदभाव उन्मूलन दिवस व अन्तर्राष्ट्रीय त्रासदी मानने की घोषणा कर दी थी।
पिछले वर्ष अपै्रल में जनेवा स्थित डरबन में आयोजित सम्मेलन में च्च्च मानवाधिकार आयुक्त नवी पिल्लै ने दुनिया भर के प्रवासियों की स्थित पर प्रकाश डाला था। सम्मेलन में उन्होंने कहा कि दुनिया भर में 200 मिलियन लोग अन्तर्राष्ट्रीय प्रवासी हैं। जिनके साथ दोयम दर्जे का व्यवहार किया जाता है। प्रवासियों को उनके अधिकारों से वंचित रखा जाता है, उन्हें नस्लीय भेदभाव व विद्वेष का सामना करना पड़ता है।
पिल्लै के मुताबिक प्रवासियों से दफ्तरों में भेदभाव व समाज में रंगभेद जैसी नीतियां अभी भी अधिकांश देशों जारी है। प्रवासियों को समाजिक सुरक्षा व आवासों के लिए काफी मशक्कत करनी पड़ती है।
इन नीतियों के आंच अब हमारे भारत वर्ष में भी देखने को मिल रही है। एक राज्य के लोग दूसरे राज्यों से आये लोगों पर वक्त-वे-वक्त कहर ढहाते आ रहे हैं। हाल ही में जमशेदपुर के एक युवक की तमिलनाडु में हत्या कर दी गयी थी।
देश व विदेशों में बीते दो माह में भेदभाव की घटनाएं
भारत
नौ फरवरी : पंजाब में 16 बिहारियों को तलवार से काटा
11 फरवरी : हिमाचल में झारखंडी जनजातीय छात्राओं से अश्लील हरकत
16 फरवरी : महाराष्ट्र में आठ आदिवासियों को जिंदा जलाया
तीन मार्च : तमिलनाडु में झारखंड के छात्र की हत्या
विदेश
सात फरवरी : नाइजीरिया में भारतीय नागरिक का अपहरण
10 फरवरी : ब्रिटेन में भारतीय टैक्सी चालक पर हमला
18 फरवरी : नेपाल में तीन भारतीयों की हत्या
21 फरवरी : मलेशिया में भारतीय मूल के सांसद पर पत्नी को तलाक देने का दबाव
27 फरवरी : आफगानिस्तान में 17 भारतीयों की हत्या
तीन मार्च : आस्ट्रेलिया में भारतीय पर नस्ली हमला
चार मार्च : आस्ट्रेलिया मेंच्बच्चे गुरशान सिंह चन्ना की हत्या
बुधवार, 10 मार्च 2010
आज मैं ऊपर, आसमां नीचे
-बिल को धरातल पर आने में समय लगेगा
बिल से महिलाओं को अपना अधिकार मिलेगा। महिलाएं हमेशा एक बंधुआ मजदूर की तरह रही हैं। महिलाओं का पुरुष प्रधान समाज में शोषण होता रहा है और समाज ने हमेशा इन्हें दबाया है। बिल में जाति नहीं नारी की बात हो।
इंद्राणी सिंह, प्रिंसिपल, एडीएल सनशाइन
-बदलेगा समाजिक व पारिवारिक ढांचा
हमें 33 प्रतिशत आरक्षण मिला है। यह बड़ी बात है। इस बिल से सामाजिक व पारिवारिक ढांचा बदलेगा और महिलाएं मजबूत होंगी। बिल का सबसे ज्यादा फायदा ग्रामीण इलाकाई महिलाओं को मिले क्योंकि इन्हीं के सर्वाधिक उत्थान की जरूरत है।
रंजीता, साफ्टवेयर इंजीनियर, सत्यम सिस्टम सोल्यूशन
-खत्म होगा स्टेटस डिफ्रेंसियेशन
इस बिल से महिलाओं को हर फील्ड में प्रतिनिधित्व का मौका मिलेगा। सोसायटी में महिलाओं का स्टेटस डिफ्रेंसियेशन अब खत्म हो जायेगा। इससे समाज में महिलाओं को मजबूती मिलेगी। इसका नतीजा जल्दी तो नहीं लेकिन भविष्य में जरूर दिखेगा। महिलाओं का जीवन बेहतर होगा।
डा. इंदू चौहान, वरदान मेटरनिटी
33 प्रतिशत आरक्षण का नतीजा दूरगामी होगा। वैसे निकटवर्ती काल में सिर्फ नेता जी या दबंग लोगों की पत्िनयां ही चुनाव में होंगी पर धीरे-धीरे समय बदलेगा और आम महिलाएं भी हिस्सा लेंगी। बिल को धरातल पर आने में समय लगेगा।
दीप्ति एस पटेल, निदेशक, इनवेस्टमेंट ऐज
-नो प्रोक्सी पालिटिक्स
मेरे विचार से इस बिल पर प्रोक्सी पोलिटिक्स नहीं होना चाहिये। महिला बिल थोड़े बहुत बवाल के साथ राज्यसभा से पास तो हो गया लेकिन लोकसभा शेष है। इस बिल से समाज की महिलाओं का आत्मबल बढ़ेगा और उनका शोषण कम होगा।
राय सेनगुप्ता, एजीएम, कारपोरेट कम्यूनिकेशन, श्राची ग्रुप
-बंधुआ मजदूरी खत्म
बिल से महिलाओं को अपना अधिकार मिलेगा। महिलाएं हमेशा एक बंधुआ मजदूर की तरह रही हैं। महिलाओं का पुरुष प्रधान समाज में शोषण होता रहा है और समाज ने हमेशा इन्हें दबाया है। बिल में जाति नहीं नारी की बात हो।
इंद्राणी सिंह, प्रिंसिपल, एडीएल सनशाइन
-बदलेगा समाजिक व पारिवारिक ढांचा
हमें 33 प्रतिशत आरक्षण मिला है। यह बड़ी बात है। इस बिल से सामाजिक व पारिवारिक ढांचा बदलेगा और महिलाएं मजबूत होंगी। बिल का सबसे ज्यादा फायदा ग्रामीण इलाकाई महिलाओं को मिले क्योंकि इन्हीं के सर्वाधिक उत्थान की जरूरत है।
रंजीता, साफ्टवेयर इंजीनियर, सत्यम सिस्टम सोल्यूशन
-खत्म होगा स्टेटस डिफ्रेंसियेशन
इस बिल से महिलाओं को हर फील्ड में प्रतिनिधित्व का मौका मिलेगा। सोसायटी में महिलाओं का स्टेटस डिफ्रेंसियेशन अब खत्म हो जायेगा। इससे समाज में महिलाओं को मजबूती मिलेगी। इसका नतीजा जल्दी तो नहीं लेकिन भविष्य में जरूर दिखेगा। महिलाओं का जीवन बेहतर होगा।
डा. इंदू चौहान, वरदान मेटरनिटी
सोमवार, 8 मार्च 2010
अगले जनम मोहे बेटा न कीजो
‘अवतार पयंबर जनती है, फिर भी शैतान की बेटी है...’ औरत की हालत पर साहिर लुधियानवी ने कभी लिखा था। ये लाइनें मैं बचपन से सुनता आया हूं और यह सवाल भी खुद से पूछता रहा हूं। पिछले तीन महीनों से एक अजीब-सी आग में जल रहा है दिल-दिमाग। उस आग की आंच में बाकी सारे विचार खाक हो गए, एक अक्षर भी नहीं लिख सका।
इसकी शुरुआत तीन महीने पहले हुई जब जमशेदपुर के एक शोपिंग मोल में एक जुमला सुना - लड़के/मर्द कमीने होते हैं। इतनी साफ गाली मैंने कभी नहीं सुनी थी। सो जोर देकर पूछा, मैडम, आपको क्या लगता है, क्या मैं भी, हमारे पिता-भाई सभी मर्द कमीने हैं? उन्होंने मेरा दिल बहलाने को भी पलकें नहीं झपकाईं। याद आया, जब बहनों की समस्याएं समझने, उन्हें सीख देने की कोशिश करता था तो अक्सर सुनना पड़ता था, आप नहीं समझोगे भइया, आप लड़के हो। यहां भी वही डायलॉग- तुम नहीं समझोगे...।
क्यों नहीं समझूंगा मैं, दूसरे ग्रह से आया हूं? इसी समाज में पला-बढ़ा हूं। बहरहाल, बहस करने की जगह मैंने ठान लिया, आज से खुद को महिला या लड़की समझकर अपने माहौल को आंकने की कोशिश करूंगा। इन तीन महीनों में ही मैं यह कहने को मजबूर हो गया- मर्द वाकई कमीने होते हैं, कुत्ते नहीं बल्कि भेड़िए। हां, इसके कुछ अपवाद हो सकते हैं, लेकिन अपनी मां, बहनों, बेटियों और दोस्तों की सलामती के लिए यही कहूंगा कि जब तक हालात नहीं बदलते, मुझ पर भी भरोसा मत करना।
इन तीन महीनों में देखा, हम मर्दों की दुनिया औरत के शरीर के इर्द-गिर्द घूमती है। हमारे चुटकुले, हमारी कुंठाएं, गॉसिप, हमारे बाजार यहां तक कि हमारी खबरें भी। हम इस हद तक निर्मम और संवेदनाहीन हो चुके हैं कि जिस शरीर से जन्म लिया, जब वही शरीर जीवन के अंकुरण की प्रक्रिया से हर महीने गुजरता है तो उस दर्द का भी मजाक उड़ाने में नहीं हिचकते। मर्दों के लिए कमीने से भी गई-गुजरी गाली ढूंढनी पड़ेगी। किसी उम्र, पद, तबका, रंग, नस्ल, हैसियत का मर्द हो, इसका अपवाद नहीं।
जमशेदपुर एक बेरहम नगर है, लेकिन सुबह 4:30 से रात 2:30 बजे तक मैंने इन्हें बेखौफ अंदाज में, खिलखिलाते, अपनी तन्मयता में अपनी-अपनी राह जाते देखा। इनमें से कई छोटे शहरों से या गांवों से आईं थीं, अधिकतर अकेली। कुछ परिवारों के साथ रहते हुए भी निपट अकेली थीं। लेकिन एक बात सभी में समान थी, सब अपने-अपने कंधों पर एक बोझ उठाए थीं, मां-बाप से यह कहतीं - हम अपने भाइयों से कहीं भी कम नहीं, तुमने एक लड़के की चाह में हमें नामुराद की तरह इस दुनिया में ढकेल दिया। हमारे पैदा होने पर खुशी तो दूर, नवजात शरीर को ढंकने के लिए साफ, नए कपड़े तक नहीं मिल सके। तब शायद हम यही सोचकर जिंदा रहे कि एक दिन तुम्हें बता सकें कि हम तुम्हारे वंश को बढ़ाने वाले लड़के से किसी सूरत में पीछे नहीं हैं। लेकिन वह यह कह रही थीं बिना किसी विज्ञापन के, किसी मौन योद्धा की तरह।
इस अंतराल में एक और ख्याल आया कि यह पूरी दुनिया मर्दपरस्त है, हमारी साइंस, मेडिकल जगत भी। एक दिन बस से जा रहा था, अचानक किसी खिड़की के पास से आवाज आई, इन्हें हमारी चिंता होती तो जैसे कॉन्डम वेंडिंग मशीन लगाई, वैसे ही सेनेटरी नैपकिन की वेंडिंग मशीन न लगा देते। मैं सन्न रह गया, सूरज की रोशनी में चमकता हुआ एक माथा, कच्चे दूध सी पवित्रता लिए भोली-सी आंखें यह सवाल पूछ रही थीं। सच है, यह ख्याल हम मर्दों को क्यों नहीं आया? शायद हर महीने मर्दों को यह तकलीफ झेलनी होती तो शायद साइंटिस्टों की पूरी जमात चांद पर पानी बाद में खोजती, सबसे पहले इस दर्द को कम करने में जुट जाती। चूंकि मर्द को दर्द नहीं होता, इसलिए औरत का शरीर नरक का द्वार है कह कर छुटकारा पा लेता है।
लेकिन लगता है कि हमारी जमात के अपराध इतने ज्यादा हैं कि विधाता से इतना ही कहना चाहता हूं, अगले जनम मोहे बिटुआ न कीजो, मुझे भी शैतान की बेटी ही बनाना ताकि मैं भी इस मौन संघर्ष का हिस्सा बन सकूं।
इसकी शुरुआत तीन महीने पहले हुई जब जमशेदपुर के एक शोपिंग मोल में एक जुमला सुना - लड़के/मर्द कमीने होते हैं। इतनी साफ गाली मैंने कभी नहीं सुनी थी। सो जोर देकर पूछा, मैडम, आपको क्या लगता है, क्या मैं भी, हमारे पिता-भाई सभी मर्द कमीने हैं? उन्होंने मेरा दिल बहलाने को भी पलकें नहीं झपकाईं। याद आया, जब बहनों की समस्याएं समझने, उन्हें सीख देने की कोशिश करता था तो अक्सर सुनना पड़ता था, आप नहीं समझोगे भइया, आप लड़के हो। यहां भी वही डायलॉग- तुम नहीं समझोगे...।
क्यों नहीं समझूंगा मैं, दूसरे ग्रह से आया हूं? इसी समाज में पला-बढ़ा हूं। बहरहाल, बहस करने की जगह मैंने ठान लिया, आज से खुद को महिला या लड़की समझकर अपने माहौल को आंकने की कोशिश करूंगा। इन तीन महीनों में ही मैं यह कहने को मजबूर हो गया- मर्द वाकई कमीने होते हैं, कुत्ते नहीं बल्कि भेड़िए। हां, इसके कुछ अपवाद हो सकते हैं, लेकिन अपनी मां, बहनों, बेटियों और दोस्तों की सलामती के लिए यही कहूंगा कि जब तक हालात नहीं बदलते, मुझ पर भी भरोसा मत करना।
इन तीन महीनों में देखा, हम मर्दों की दुनिया औरत के शरीर के इर्द-गिर्द घूमती है। हमारे चुटकुले, हमारी कुंठाएं, गॉसिप, हमारे बाजार यहां तक कि हमारी खबरें भी। हम इस हद तक निर्मम और संवेदनाहीन हो चुके हैं कि जिस शरीर से जन्म लिया, जब वही शरीर जीवन के अंकुरण की प्रक्रिया से हर महीने गुजरता है तो उस दर्द का भी मजाक उड़ाने में नहीं हिचकते। मर्दों के लिए कमीने से भी गई-गुजरी गाली ढूंढनी पड़ेगी। किसी उम्र, पद, तबका, रंग, नस्ल, हैसियत का मर्द हो, इसका अपवाद नहीं।
जमशेदपुर एक बेरहम नगर है, लेकिन सुबह 4:30 से रात 2:30 बजे तक मैंने इन्हें बेखौफ अंदाज में, खिलखिलाते, अपनी तन्मयता में अपनी-अपनी राह जाते देखा। इनमें से कई छोटे शहरों से या गांवों से आईं थीं, अधिकतर अकेली। कुछ परिवारों के साथ रहते हुए भी निपट अकेली थीं। लेकिन एक बात सभी में समान थी, सब अपने-अपने कंधों पर एक बोझ उठाए थीं, मां-बाप से यह कहतीं - हम अपने भाइयों से कहीं भी कम नहीं, तुमने एक लड़के की चाह में हमें नामुराद की तरह इस दुनिया में ढकेल दिया। हमारे पैदा होने पर खुशी तो दूर, नवजात शरीर को ढंकने के लिए साफ, नए कपड़े तक नहीं मिल सके। तब शायद हम यही सोचकर जिंदा रहे कि एक दिन तुम्हें बता सकें कि हम तुम्हारे वंश को बढ़ाने वाले लड़के से किसी सूरत में पीछे नहीं हैं। लेकिन वह यह कह रही थीं बिना किसी विज्ञापन के, किसी मौन योद्धा की तरह।
इस अंतराल में एक और ख्याल आया कि यह पूरी दुनिया मर्दपरस्त है, हमारी साइंस, मेडिकल जगत भी। एक दिन बस से जा रहा था, अचानक किसी खिड़की के पास से आवाज आई, इन्हें हमारी चिंता होती तो जैसे कॉन्डम वेंडिंग मशीन लगाई, वैसे ही सेनेटरी नैपकिन की वेंडिंग मशीन न लगा देते। मैं सन्न रह गया, सूरज की रोशनी में चमकता हुआ एक माथा, कच्चे दूध सी पवित्रता लिए भोली-सी आंखें यह सवाल पूछ रही थीं। सच है, यह ख्याल हम मर्दों को क्यों नहीं आया? शायद हर महीने मर्दों को यह तकलीफ झेलनी होती तो शायद साइंटिस्टों की पूरी जमात चांद पर पानी बाद में खोजती, सबसे पहले इस दर्द को कम करने में जुट जाती। चूंकि मर्द को दर्द नहीं होता, इसलिए औरत का शरीर नरक का द्वार है कह कर छुटकारा पा लेता है।
लेकिन लगता है कि हमारी जमात के अपराध इतने ज्यादा हैं कि विधाता से इतना ही कहना चाहता हूं, अगले जनम मोहे बिटुआ न कीजो, मुझे भी शैतान की बेटी ही बनाना ताकि मैं भी इस मौन संघर्ष का हिस्सा बन सकूं।
बुधवार, 3 मार्च 2010
सोशल नटवर्किंग साइट माने कि सामाजिक कार्यकर्ता
मेरा स्वभाव कुछ ज़्यादा ही शांत है। हालांकि मेरे खा़स मित्रों की सूची अच्छी खा़सी है। फिर भी मैं जल्दी से और हर किसी से बात करने में यक़ीन नहीं रखता। मेरी दोस्ती आराम से और पूरा समय लगाकर होती है। ये बात मैं यहाँ इसलिए बता रहा हूँ क्योंकि आज मुझे कुछ लोगों को दोस्त बनाने का सुझाव मिला है, वो भी मुफ़्त में। ये सुझाव मुझे फ़ेसबुक ने दिया है। नाम भर के लिए इस सामाजिक सेवा से जुड़ा मैं इसे महीने में एक बार ज़रूर खोलकर देख लेता हूँ। खा़सकर ये जाँचने के लिए कि कहीं पासवर्ड भूल तो नहीं गया। आज जब इसे देख रहा था तो साइड में एक खिड़की खुली दिखी। इसमें मेरे ही एक पुराने सहपाठी की तस्वीर थी, साथ में लिखा हुआ था कि ये आपके इन मित्र के मित्र है तो आप भी अब इनके मित्र बन जाइए। मुझे बचपन में पढ़ा हुआ गणित याद आ गया कि अ बराबर है ब के और ब बराबर है स के तो हिसाब के मुताबिक़ अ और स भी बराबर हुए। दोस्ती में गणित के नियमों को लागू कर फ़ेसबुक ने एक नई पहल की है। खैर, जब मैं इस खिड़की के अंदर घुसा तो देखा कि मित्र बनाने की ये सुझाव लिस्ट तो बहुत लंबी थी। इसमें तो कई मेरे सहकर्मी ही थे जिनसे मैं रोज़ाना मिलता हूँ। कई मेरे पुराने मित्र भी थे। बड़ी मज़ेदार लगी मुझे ये लिस्ट। हर सुझाव के साथ उन्हें दोस्त क्यों बनाया जाए इसकी वजह भी दी गई थी। ये इनका मित्र है इसलिए इससे मित्र बनाए, ये आपके साथ पढ़ा है इसलिए इसे मित्र बनाए, ये साथ काम करता है इसलिए और न जाने क्या-क्या... साइबर स्पेस में मित्र बनने के लिए न तो स्वभाव जानने की ज़रूरत है और न ही उनसे मिलने जुलने की। सबसे मज़ेदार बात ये थी कि इस लिस्ट में शामिल मेरे साथ पढ़े कुछ लोगों से मेरी कॉलेज के वक़्त में ही अनबन हो गई थी। अब मैं खोज रहा हूँ फ़ेसबुक में बैठे उस सज्जन का ई-मेल जिसने मुझे ये दोस्त सुझाए हैं। मैं उसे ये कहना चाहता हूँ कि भाई साब आप हमारे लिए इतने परेशान न हो हम ख़ुद ही दोस्त बना लेगे। वैसे, क्या ये सामाजिक कार्यकर्ता दुश्मनों की लिस्ट भी तैयार करते हैं...
देश की खाद्यान्न समस्या को सुलझाता फ़ेसबुक...
हमारा देश गांवों में बसता है। किसान हमारे देश का आधार है। खेती करना कुछ दिनों पहले तक मुझे बहुत ही कठिन काम लगता था। लेकिन, कुछ दिनों से मैं देख रही हूँ कि ये तो बहुत ही आरामदायक काम है। एसी रूम में कम्प्यूटर के सामने बैठेकर बस माऊस से खेत उगाते जाओ। कभी-कभी गाय का दूध भी दुह सकते हैं। मैं बात कर रही हूँ फ़ार्म विला नाम के नए खेल की। ये खेल शायद फे़सबुक के ज़रिए खेला जाता है। फ़ेसबुक मुझे बहुत ही कठिन चीज़ लगती है। मेरा अकाऊन्ड ज़रूर है पर उसे हैन्डल कैसे किया जाए ये सर के ऊपर से जाता है। खैर, मेरी अज्ञानता की बात अलग करके बात ये कि फ़ेसबुक न सिर्फ़ हमारे समाज को और सामाजिक बना रहा है बल्कि आज के युवाओं को खेती की ओर मोड़ भी रहा हैं। मेरे आसपास मौजूद लगभग हरेक इंसान रोज़ाना भगवान के पाठ की तरह फ़ेसबुक पर लागिन भी करता हैं और खेती शुरु कर देता हैं। मेरे एक साथी ने बताया कि कल रात उसके खेत में बर्फ गिर गई। एक के खेत में जानवर घुस गए थे। इस खेल को खेलनेवाले इसे इतनी गंभीरता से लेते हैं कि कोई अंजान अगर इनकी बातें सुने तो लगेगा कि भाई साहब का सच में कही कोई खेत है जहाँ बर्फ पड़ गई हैं। कभी गांव ना गए मेरे इन साथियों को इतनी तन्मयता से कम्प्यूटर पर खेती करते देख कई बार लगता है कि ये अनाज वर्चुअल ना होकर असल होता। हमारे देश की खाद्यान्न समस्या का हल कितना आसान हो जाता। अगर ऐसा ना भी हो पाए तो भगवान करें कि आगे चलकर हम ही वर्चुअल हो जाए...
गुरुवार, 25 फ़रवरी 2010
महंगाई की नीम पर चढ़ा मिलावट का करेला
कामन इंट्रो-
जितनी तेजी से महंगाई बढ़ रही है उससे कहीं ज्यादा तेजी से खाद्य सामग्रियों में मिलावट किये जाने के मामले सामने आ रहे हैं। लोग महंगाई की चपेट में तो आकंठ डूबे हैं लेकिन मिलावटी चीजें आम लोगों के स्वास्थ्य को काफी नुकसान पहुंचा रही हैं। एक तो महंगाई और उसपर मिलावट की शिकायतें। इस दोहरी मार से आम आदमी बेहाल है। इस समस्या से जहां सरकार चिंतित है वहीं मिलावट का धंधा करने वाले दिन दूनी रात चौगुनी गति से पनप रहे हैं। उपभोक्ता की जेब से पहले की तुलना में ज्यादा पैसे निकल रहे हैं लेकिन उसके एवज में जो सामग्री मिल रही है उसकी गुणवत्ता संदिग्ध होना बड़ी समस्या खड़ी कर रहा है। आम लोग इस समस्या को गंभीरता से लिये जाने की जरूरत बता रहे हैं। लेकिन कठोर कार्रवाई की कौन कहे, मिलावट की जांच करने का तंत्र में कोई धार नजर नहीं आ रही। लौहनगरी को ही बानगी के तौर पर लिया जाय तो सचाई का पता लगाया जा सकता है। शहर में खाद्य पदार्थो में मिलावट की जांच के लिए करीब आठ माह से सेंपल तक नहीं लिये गये हैं। पिछले वर्ष काफी तेजी से आवश्यक वस्तुओं व खाद्य पदार्थो की कीमतों में इजाफा तो हुआ ही, इसके चलते बढ़ी मिलावटखोरी की समस्या से निपटने के लिए भी कोई ठोस उपाय नहीं किये गए। प्रस्तुत है महंगाई व मिलावट की पड़ताल करती अशोक सिंह की रिपोर्ट :
-----------------------
महंगाई के नीम पर चढ़ा मिलावट का करैला
-जमशेदपुर में नौ माह से आवश्यक वस्तुओं व खाद्य पदार्थो के जांच को सेंपल तक नहीं लिये गये-
जमशेदपुर : शहर में करीब नौ माह से आवश्यक वस्तुओं व खाद्य पदार्थो के सेंपल तक नहीं लिये गये हैं। दूसरी ओर खाद्य निरीक्षकों के उदार रवैये से मिलावट खोरी करनेवाले तेजी से फल-फूल रहे हैं। आलम यह है कि चावल, दाल, आटे, मसाले, स्वीट्स के अलावा कई खाद्य सामग्रियों में मिलावट ज्यादा हो रहे हैं। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि महंगाई व मिलावट के खेल में आम आदमी खुद को काफी परेशान व विवश महसूस कर रहा है।
मिलावट करने वालों पर कड़ी कार्रवाई हो
-ये बहुत नाजुक हालात हैं। ऐसा लग रहा है मानो सबकुछ खर्च करने के बावजूद समस्यायें जस की तस बनी रह रही हैं। महंगाई का सिलसिला कब तक यूं ही चलता रहेगा, समझ से परे है। आवश्यक वस्तुओं व खाद्य पदार्थो में मिलावट रोकने के लिए आवश्यक कदम उठाने चाहिये।
अंजली श्रीवास्तव, साकची
-महंगाई व मिलावट की समस्या से निपटने के लिए सरकार को काई ठोस कदम उठाने चाहिये। इसके अलावा आम आदमी को भी जागरूक हो सकारात्मक योगदान देना चाहिये। महंगाई इतनी है कि पहले हम सेलेक्शन करते थे अब आप्शन तलाशना पड़ता है।
प्रशांत खरे, साकची
-बात महंगाई पर नहीं मिलावट पर करता हूं। मिलावट सभी खाद्य पदार्थो में हो रही है। हालांकि बड़ी-बड़ी कंपनियां रीटेल में आयी है। इस पर हम काफी हद तक विश्वास कर सकते हैं। कम से कम खुदरा व छोटी-मोटी किराने की दुकान से तो यह बेहतर विकल्प है।
डा. श्रीकृष्ण नारंग, पूर्व वैज्ञानिक, एनएमएल
-बाजार में ब्रांडेड कंपनियों के डुप्लीकेट सामानों की धड़ल्ले से बिक्री हो रही है। ऐसे में यह तय करना मुश्किल है कि उक्त आवश्यक वस्तु को खरीदें या नहीं। ऐसे में कंपनियों को अपने ब्रांड की डुप्लीकेसी होने से रोकने के लिए उपाय करना चाहिये। साथ ही मिलावट करने वालों पर सख्त कार्रवाई करनी चाहिये।
डा. मनीषा, सुपरवाइजर फ्लैट, साकची
-महंगाई से घर की थाली अछूती नहीं रही है। लेकिन खाने पीने के सामान आसमान छू रहे हैं। लेकिन इससे कहीं ज्यादा तकलीफ खाद्य पदार्थो में मिलावट से हो रही है। महंगाई से कही ज्यादा मिलावट की मार खतरनाक है। ऐसे कारोबार को रोकने के लिए सरकार के साथ-साथ समाज को भी सहयोग करना होगा।
मधु गिरी, सुपरवाइजर फ्लैट, साकची
समाज के अराजक तत्व मिलावट जैसे जघन्य अपराध कर रहे हैं। सिर्फ अपने स्वार्थ के लिए न जाने कई लोगों के स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ किया जा रहा है। हमारे समाज में जैसे किसी को जहर खिलाने का अधिकार नहीं है वैसे ही यह भी अनाधिकार है।
स्वाती नारंग, गीतांजली गार्डेन, गोलमुरी
उपभोक्ताओं को जागरूक होने की आवश्यकता : प्रो. मिश्रा
खाद्य पदार्थो में हो रही मिलावट पर राष्ट्रीय स्तर पर आयोजित कई कार्यशालाओं को संबोधित करने वाले भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी), खड़गपुर में कृषि विभाग के प्रो. एचएन मिश्रा मानते हैं कि इस संबंध में सबसे अधिक आवश्यकता आम उपभोक्ता को जागरूक होने की है। प्रो. मिश्रा बताते हैं कि अरहर दाल अथवा बेसन में खेसारी दाल की मिलावट का पता लगाने के लिए उसे करीब 15 मिनट तक पानी में मिलाकर रख दें। यदि घोल में पिंक कलर उत्पन्न होता है, तो निश्चित है कि उसमें मिलावट है। इसी तरह देशी घी में वनस्पति घी की मिलावट को पहचानने के लिए दो-तीन मिलीलीटर घी का नमूना लेकर समान मात्रा में हाइड्रोक्लोराइड एसिड मिलाएं। दोनों को आग पर गर्म करें और शक्कर के कुछ दाने मिलाएं। यदि घी में वनस्पति घी की मिलावट है, तो लाल रंग उत्पन्न हो जायेगा। ऐसे छोटे-छोटे उपाय हैं, जिसे अपनाकर लोग मिलावट की पहचान कर सकते हैं। प्रो. मिश्रा बताते हैं कि चूंकि मिलावटी खाद्य पदार्थो के सेवन से होने वाली बीमारियां काफी धीमी गति से पनपती हैं इसलिए लोग इसे जल्दी समझ नहीं पाते और जब तक जानकारी होती है तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। इसे रोकने के लिए सरकार को भी सख्त कदम उठाने होंगे।
सोमवार, 15 फ़रवरी 2010
सब कुछ रहते तड़पा-तरसा रही बाइक
-अग्रिम बुकिंग के 15 दिन बाद भी नहीं मिल रही मोटरसाइकिलें
--------------------
अशोक कुमार, जमशेदपुर : साल के पहले ही लगन में कई दूल्हों के अरमानों पर पानी फिर गया। सालों से बाइक का सपना संजोए दूल्हों को दहेज में बाइक नहीं मिल सका। दूल्हे मायूस हैं और नई नवेली दुल्हनें बाइक पर चढ़ने को तरस रहीं हैं। इसके अलावा आम आदमी को भी सबकुछ रहते हीरो हांडा की बाइक नहीं मिल रही है। हां, शहर की सड़कों पर सबसे ज्यादा दिखने वाली हीरो होंडा की सभी माडलें इन दिनों शोरूम से गायब हैं। यह स्थिति शहर में स्थित शोरूम यूनियन मोटर्स व यूनियन बाइक्स दोनों में है। यूनियन बाइक्स के मालिक गौरव आहूजा से इस संबंध में पूछे जाने पर बताया कि यह कंपनी की समस्या है। मांग के अनुरूप कंपनी बाइक्स की डिलेवरी नहीं कर पा रही है। शोरूम की ओर से मोटरसाइकिलों के लिए आर्डर भेज दिया जाता है मगर वहां से गाडि़यों के डिस्पैच में देर होती है। इसके अलावा बाइक्स की किल्लत के लिए नक्सली बंदी भी सबसे बड़ा कारक है। ऐसे में शोरूम में आने वाले ग्राहकों का नाम पता नोट कर लिया जाता है और गाड़ी आते ही उन्हें बुला लिया जाता है।
क्या कहते हैं ग्राहक
मोटरसाइकिल खरीदने यूनियन बाइक्स पहुंचे अमरेश साहू का कहना है कि लगातार चार-पांच दिन से वे हर रोज शोरूम के चक्कर काट रहे हैं लेकिन उन्हें हीरो होंड की डीलक्स माडल की बाइक नहीं मिल रही है। वहीं टेल्को निवासी अरविंद कुमार को अपनी बेटी की शादी में पैशन प्लस देना था। शादी तो हो गयी लेकिन अभी तक पैशन प्लस नहीं मिला है।
माडल उपलब्ध
सीडी डान नहीं
सीडी डीलक्स नहीं
सीडी डीलक्स सेल्फ नहीं
स्पलेंडर प्लस नहीं
पैशन प्लस नहीं
ग्लैमर नहीं
हंक हां
करिज्मा नहीं
सीबीजेड नहीं
पल्सर स्कूटर हां
--------------------
अशोक कुमार, जमशेदपुर : साल के पहले ही लगन में कई दूल्हों के अरमानों पर पानी फिर गया। सालों से बाइक का सपना संजोए दूल्हों को दहेज में बाइक नहीं मिल सका। दूल्हे मायूस हैं और नई नवेली दुल्हनें बाइक पर चढ़ने को तरस रहीं हैं। इसके अलावा आम आदमी को भी सबकुछ रहते हीरो हांडा की बाइक नहीं मिल रही है। हां, शहर की सड़कों पर सबसे ज्यादा दिखने वाली हीरो होंडा की सभी माडलें इन दिनों शोरूम से गायब हैं। यह स्थिति शहर में स्थित शोरूम यूनियन मोटर्स व यूनियन बाइक्स दोनों में है। यूनियन बाइक्स के मालिक गौरव आहूजा से इस संबंध में पूछे जाने पर बताया कि यह कंपनी की समस्या है। मांग के अनुरूप कंपनी बाइक्स की डिलेवरी नहीं कर पा रही है। शोरूम की ओर से मोटरसाइकिलों के लिए आर्डर भेज दिया जाता है मगर वहां से गाडि़यों के डिस्पैच में देर होती है। इसके अलावा बाइक्स की किल्लत के लिए नक्सली बंदी भी सबसे बड़ा कारक है। ऐसे में शोरूम में आने वाले ग्राहकों का नाम पता नोट कर लिया जाता है और गाड़ी आते ही उन्हें बुला लिया जाता है।
क्या कहते हैं ग्राहक
मोटरसाइकिल खरीदने यूनियन बाइक्स पहुंचे अमरेश साहू का कहना है कि लगातार चार-पांच दिन से वे हर रोज शोरूम के चक्कर काट रहे हैं लेकिन उन्हें हीरो होंड की डीलक्स माडल की बाइक नहीं मिल रही है। वहीं टेल्को निवासी अरविंद कुमार को अपनी बेटी की शादी में पैशन प्लस देना था। शादी तो हो गयी लेकिन अभी तक पैशन प्लस नहीं मिला है।
माडल उपलब्ध
सीडी डान नहीं
सीडी डीलक्स नहीं
सीडी डीलक्स सेल्फ नहीं
स्पलेंडर प्लस नहीं
पैशन प्लस नहीं
ग्लैमर नहीं
हंक हां
करिज्मा नहीं
सीबीजेड नहीं
पल्सर स्कूटर हां
रविवार, 7 फ़रवरी 2010
जब शौच से उपजे सोना
जब कोई युवा पढ़ाई- लिखाई करके शहरों की ओर भागने की बजाय अपनी शिक्षा और नई सोच का उपयोग अपने गाँव, ज़मीन, अपने खेतों में करने लगे तो बदलाव की एक नई कहानी लिखने लगता है, ऐसे युवा यदि सरकार और संस्थाओं से सहयोग पा जाएं तो निश्चित ही क्रान्तिकारी परिवर्तन ला देते हैं। ऐसी ही एक कहानी है ‘जब शौच से उपजे सोना’ की और कहानी के नायक हैं युवा किसान श्याम मोहन त्यागी
(साभार-http://hindi.indiawaterportal.org/node/3102 )
अपने हरे-भरे खेतों की ओर उत्साह और खुशी से इशारा दिखाते हुए श्याम मोहन त्यागी बताते हैं “आसपास के खेतों के मुकाबले मेरी फ़सल ज्यादा अच्छी हुई है, कारण मानव मल-मूत्र की बनी खाद।“ अपने खेतों की ओर देखते हुए उनकी आंखों में चमक है।
श्याम मोहन त्यागी गांव- असलतपुर, वाया भोपुरा मोड़, गाजियाबाद, के निवासी हैं। श्याम ने अपने खेतों में रासायनिक खादों का इस्तेमाल करना सन् 2006 से बन्द कर दिया था। खाद के लिये वह अपने गांव के सार्वजनिक शौचालय से मानव मल-मूत्र इकट्ठा करते हैं। चूंकि यह सार्वजनिक शौचालय "पर्यावरणमित्र शुष्क शौचालय" है, मल-मूत्र ठोस और द्रव रूप में अलग-अलग खुद-ब-खुद मिल जाता है। इसलिये उनको अधिक मेहनत नहीं करनी पड़ती। इस तकनीक को "ईकोसैन" (Ecological Sanitation का छोटा स्वरूप) कहा जाता है।
जब 2005 में दिल्ली स्थित एक गैर सरकारी संगठन "फॉउन्डेशन फॉर डेवलपमेंट रिसर्च एंड एक्शन (फोडरा)" ने ईकोसैन तकनीक वाले शौचालय निर्माण करने की सोची, तो गांव के लोगों को इसे उपयोग के लिये राजी करना एक बेहद कठिन काम था, तभी एक सुशिक्षित युवा किसान श्याम त्यागी आगे आये और उन्होंने इसका भरपूर उपयोग करने की ठान ली, उन्होंने अपने खेत के एक बीघा में यह प्रयोग शुरू किया। हालांकि उनके पिता श्री मूलचन्द त्यागी ने मानव मल से बनने वाले इस खाद के प्रति विरोध जताया, लेकिन पिता की नाराजगी के बावजूद श्याम ने अपने खेत में इसका परीक्षण किया और मूत्र को खाद के रूप में इस्तेमाल भी किया, नतीजा अच्छा मिला और उन्होंने मुश्किल से ही सही लेकिन अपने पिता को भी राजी किया। इस तकनीक की वजह से न तो उन्हें अपनी फ़सल की गुणवत्ता की चिंता करने ज़रूरत थी, न ही महंगे उर्वरकों और खाद के लिये पैसे खर्चने की।
ईकोसैन को अपनाने से पहले श्याम हर साल डाइअमोनियम फ़ॉस्फ़ेट पर 1500 और कीटनाशकों पर 1000 रुपये खर्चते थे। लेकिन अब फसल की गुणवत्ता बरकरार रखने के लिए उन्हें कुछ खर्च नहीं करना पड़ता। श्याम के पिता मूलचन्द त्यागी का कहना है "अब धीरे-धीरे गाँव वालों की सोच में बदलाव आने लगा है, वे भी अपने घरों में ईकोसैन शौचालय की मांग करने लगे हैं, जब मैंने अपने खेतों में फ़सलों की बढ़ोतरी देखी तो मुझे लगा मेरे बेटे ने सही फ़ैसला लिया है। ऐसी तकनीक अपनाकर स्थानीय स्तर पर खाद का उत्पादन होना चाहिये…"।
श्याम के अनुसार "इस तकनीक से प्रत्येक तीन माह में उसे लगभग 500 किलो उत्तम खाद प्राप्त होती है। जिसका उपयोग मिट्टी के उपचार, पानी सोखने की क्षमता में बढोत्तरी और ज़मीन की जैविक शक्ति बढ़ाने में किया जाता है। ज़मीन और मिट्टी रेतीली होने पर भी मैं अपने खेतों में दिन में सिर्फ़ एक बार सिंचाई करता हूं जबकि दूसरों को दो बार सिंचाई करनी पड़ती है। एकत्रित किया हुआ मूत्र पानी के साथ एक : दस (1:10) के अनुपात में मिलाकर खेत में छिड़काव करता हूं, एक हेक्टेयर खेत में 2000 लीटर का छिड़काव पर्याप्त होता है…"। गाँव में बढ़ती माँग को देखते हुए संस्था ने पास के दो स्कूलों में भी इस प्रकार के शौचालय बनवाए हैं।
हालांकि यह सब इतना आसान नहीं था। फोडरा के सीताराम नायक कहते हैं सन् 2002 से हम लगे हुए हैं, सफलता मिली 2005 में। शुरु-शुरु में हमें काफ़ी दिक्कतें हुईं, असलतपुर में हमने ग्रामीणों से बातचीत करके उनकी फ़सलों, उसकी लागत, खाद के उपयोग, आदि के बारे में जानकारी ली। हम सप्ताह में दो बार एक गाँव में जाते थे। अगले चरण में हमने ईकोसैन शौचालय के बारे में उन्हें समझाना प्रारम्भ किया और उन्हें बताया कि इसके ज़रिये वे अपने उर्वरक खर्चों में भारी कमी ला सकते हैं और खेत से पैदावार भी अच्छी होगी। उन्हें मानव मल में मौजूद प्राकृतिक तत्वों, मिट्टी को उर्वरा बनाने के उसके गुणों आदि के बारे में विस्तार से बताया।
अधिकतर बड़े किसानों ने इस तकनीक के प्रति रुचि तो दिखाई लेकिन मानव मल एकत्रित करने के बारे में सोचकर वे नानुकुर करते रहे। संस्था ने बड़े किसानों का एक समूह बनाया और वर्कशॉप आयोजित करवाईं जिसमें स्वीडन से कुछ विशेषज्ञों को इस तकनीक को समझाने के लिये भी बुलवाया गया। विशेषज्ञों ने विभिन्न तरह के शौचालय के डिज़ाइन और सीमेंट, लोहे सहित अन्य निर्माण तकनीक को आजमाया, लेकिन अन्ततः सिरेमिक के विशेष डिजाइन वाले शौचालय सीट को अन्तिम रूप दिया गया, जिसमें ठोस तथा द्रव दोनों अलग-अलग एकत्रित होते हैं और ये साफ़ करने में भी सुविधाजनक हैं। असलतपुर के सामुहिक शौचालय का निर्माण मात्र 18,000 रुपये में हो गया था, पर इस शौचालय का उपयोग करना ही तो पर्याप्त नहीं था, ग्रामीणों को इसका सही-सही उपयोग करना भी सिखाना आवश्यक था। शुरुआत में लोग इस शुष्क शौचालय में भी अपनी आदत के मुताबिक ढेर सारा पानी डाल देते थे, इस वजह से उस गढ्ढे में मल के डीहाइड्रेशन में काफ़ी समय लगता था। उन्हें समझाया गया कि यह शौचालय परम्परागत भारतीय शौचालय अथवा अंग्रेजी टॉयलेट जैसा नहीं है, बल्कि यह एक शुष्क शौचालय है, इसमें अधिकतम आधा लीटर ही पानी का उपयोग करें, तथा हाथ-पैर धोने के लिये अलग से जो स्थान बना है उसका उपयोग करना चाहिये। त्यागी ने बताया कि यह अतिरिक्त पानी भी सीधे एक पाइप के जरिये खेतों में भेज दिया जाता है। ठोस रूप में मानव मल एक अलग टैंक में, तथा द्रवरूपी मूत्र एक दूसरे टैंक में एकत्रित किया जाता है, इस प्रकार तीनों को अलग-अलग रखा जाता है।
असलतपुर के निवासी अब ईकोसैन शौचालय के आदी हो चले हैं। गाँव के लगभग 20% लोग निचली जाति के हैं और वे खेतों में मजदूरी करते हैं। उनमें से एक मजदूर ने बताया कि पहले गाँव के बड़के लोग उन्हें अपने खेतों में शौच करने से मना करते थे, इसलिये उन्हें अपने घर के पास एक खुला गढ्ढा करके निवृत्त होना पड़ता था, जिसकी सफ़ाई के लिये वे मासिक 20-50 रुपये खर्च करते थे, ओर अपमानजनक भी था। लेकिन जब से यह सार्वजनिक शौचालय बना है उन्हें काफ़ी सुविधा हो गई है। 12वीं कक्षा के छात्र तेजवीर ने बताया कि इस शौचालय में पानी का उपयोग कम से कम करने की बन्दिश की वजह से थोड़ी मुश्किल तो होती है, लेकिन परम्परागत सार्वजनिक शौचालयों की तरह इसमें बदबू कम आती है, क्योंकि टैंक में पानी अथवा मूत्र नहीं होने की वजह से मल जल्दी ही सूख जाता है। ईकोसैन पर इंडिया वाटर पोर्टल से जुड़े ईकोसैन विशेषज्ञ विश्वनाथन का कहना है कि ईकोसैन शौचालय की खुशबू आगे बढ़ाने की जरूरत है, इससे कस्बों और गांवो की तस्वीर बदली जा सकती है।
बहरहाल आईये देखें, कि प्रकृति ने हमें (यानी मानव शरीर रूपी) कितनी "सब्सिडी" पहले से दे रखी है, एक अध्ययन के मुताबिक प्रत्येक व्यक्ति अपने मल-मूत्र के जरिये 4.56 किलो नाईट्रोजन (N), 0.55 किलो फ़ॉस्फ़ोरस (P) तथा 1.28 किलो पोटेशियम (K) प्रतिवर्ष उत्पन्न करता है। यह मात्रा 200 X 400 मीटर के एक भूमि के टुकड़े को उपजाऊ बनाने के लिये पर्याप्त है। इसका दूसरा अर्थ यह भी है कि भारत की एक अरब से ज्यादा आबादी, कुल मिलाकर साठ लाख टन का NPK निर्माण कर सकती है, जो कि भारत की कुल उर्वरक खपत का एक तिहाई होता है…। ग्रामीण कृषि क्षेत्रों में इस प्रकार के "इकोसैन शौचालय" की संख्या में बढ़ोतरी की जानी चाहिये, ताकि देश की अर्थव्यवस्था पर पड़ने वाले उर्वरक सबसिडी के बोझ को कम किया जा सके…
(साभार-http://hindi.indiawaterportal.org/node/3102 )
अपने हरे-भरे खेतों की ओर उत्साह और खुशी से इशारा दिखाते हुए श्याम मोहन त्यागी बताते हैं “आसपास के खेतों के मुकाबले मेरी फ़सल ज्यादा अच्छी हुई है, कारण मानव मल-मूत्र की बनी खाद।“ अपने खेतों की ओर देखते हुए उनकी आंखों में चमक है।
श्याम मोहन त्यागी गांव- असलतपुर, वाया भोपुरा मोड़, गाजियाबाद, के निवासी हैं। श्याम ने अपने खेतों में रासायनिक खादों का इस्तेमाल करना सन् 2006 से बन्द कर दिया था। खाद के लिये वह अपने गांव के सार्वजनिक शौचालय से मानव मल-मूत्र इकट्ठा करते हैं। चूंकि यह सार्वजनिक शौचालय "पर्यावरणमित्र शुष्क शौचालय" है, मल-मूत्र ठोस और द्रव रूप में अलग-अलग खुद-ब-खुद मिल जाता है। इसलिये उनको अधिक मेहनत नहीं करनी पड़ती। इस तकनीक को "ईकोसैन" (Ecological Sanitation का छोटा स्वरूप) कहा जाता है।
जब 2005 में दिल्ली स्थित एक गैर सरकारी संगठन "फॉउन्डेशन फॉर डेवलपमेंट रिसर्च एंड एक्शन (फोडरा)" ने ईकोसैन तकनीक वाले शौचालय निर्माण करने की सोची, तो गांव के लोगों को इसे उपयोग के लिये राजी करना एक बेहद कठिन काम था, तभी एक सुशिक्षित युवा किसान श्याम त्यागी आगे आये और उन्होंने इसका भरपूर उपयोग करने की ठान ली, उन्होंने अपने खेत के एक बीघा में यह प्रयोग शुरू किया। हालांकि उनके पिता श्री मूलचन्द त्यागी ने मानव मल से बनने वाले इस खाद के प्रति विरोध जताया, लेकिन पिता की नाराजगी के बावजूद श्याम ने अपने खेत में इसका परीक्षण किया और मूत्र को खाद के रूप में इस्तेमाल भी किया, नतीजा अच्छा मिला और उन्होंने मुश्किल से ही सही लेकिन अपने पिता को भी राजी किया। इस तकनीक की वजह से न तो उन्हें अपनी फ़सल की गुणवत्ता की चिंता करने ज़रूरत थी, न ही महंगे उर्वरकों और खाद के लिये पैसे खर्चने की।
ईकोसैन को अपनाने से पहले श्याम हर साल डाइअमोनियम फ़ॉस्फ़ेट पर 1500 और कीटनाशकों पर 1000 रुपये खर्चते थे। लेकिन अब फसल की गुणवत्ता बरकरार रखने के लिए उन्हें कुछ खर्च नहीं करना पड़ता। श्याम के पिता मूलचन्द त्यागी का कहना है "अब धीरे-धीरे गाँव वालों की सोच में बदलाव आने लगा है, वे भी अपने घरों में ईकोसैन शौचालय की मांग करने लगे हैं, जब मैंने अपने खेतों में फ़सलों की बढ़ोतरी देखी तो मुझे लगा मेरे बेटे ने सही फ़ैसला लिया है। ऐसी तकनीक अपनाकर स्थानीय स्तर पर खाद का उत्पादन होना चाहिये…"।
श्याम के अनुसार "इस तकनीक से प्रत्येक तीन माह में उसे लगभग 500 किलो उत्तम खाद प्राप्त होती है। जिसका उपयोग मिट्टी के उपचार, पानी सोखने की क्षमता में बढोत्तरी और ज़मीन की जैविक शक्ति बढ़ाने में किया जाता है। ज़मीन और मिट्टी रेतीली होने पर भी मैं अपने खेतों में दिन में सिर्फ़ एक बार सिंचाई करता हूं जबकि दूसरों को दो बार सिंचाई करनी पड़ती है। एकत्रित किया हुआ मूत्र पानी के साथ एक : दस (1:10) के अनुपात में मिलाकर खेत में छिड़काव करता हूं, एक हेक्टेयर खेत में 2000 लीटर का छिड़काव पर्याप्त होता है…"। गाँव में बढ़ती माँग को देखते हुए संस्था ने पास के दो स्कूलों में भी इस प्रकार के शौचालय बनवाए हैं।
हालांकि यह सब इतना आसान नहीं था। फोडरा के सीताराम नायक कहते हैं सन् 2002 से हम लगे हुए हैं, सफलता मिली 2005 में। शुरु-शुरु में हमें काफ़ी दिक्कतें हुईं, असलतपुर में हमने ग्रामीणों से बातचीत करके उनकी फ़सलों, उसकी लागत, खाद के उपयोग, आदि के बारे में जानकारी ली। हम सप्ताह में दो बार एक गाँव में जाते थे। अगले चरण में हमने ईकोसैन शौचालय के बारे में उन्हें समझाना प्रारम्भ किया और उन्हें बताया कि इसके ज़रिये वे अपने उर्वरक खर्चों में भारी कमी ला सकते हैं और खेत से पैदावार भी अच्छी होगी। उन्हें मानव मल में मौजूद प्राकृतिक तत्वों, मिट्टी को उर्वरा बनाने के उसके गुणों आदि के बारे में विस्तार से बताया।
अधिकतर बड़े किसानों ने इस तकनीक के प्रति रुचि तो दिखाई लेकिन मानव मल एकत्रित करने के बारे में सोचकर वे नानुकुर करते रहे। संस्था ने बड़े किसानों का एक समूह बनाया और वर्कशॉप आयोजित करवाईं जिसमें स्वीडन से कुछ विशेषज्ञों को इस तकनीक को समझाने के लिये भी बुलवाया गया। विशेषज्ञों ने विभिन्न तरह के शौचालय के डिज़ाइन और सीमेंट, लोहे सहित अन्य निर्माण तकनीक को आजमाया, लेकिन अन्ततः सिरेमिक के विशेष डिजाइन वाले शौचालय सीट को अन्तिम रूप दिया गया, जिसमें ठोस तथा द्रव दोनों अलग-अलग एकत्रित होते हैं और ये साफ़ करने में भी सुविधाजनक हैं। असलतपुर के सामुहिक शौचालय का निर्माण मात्र 18,000 रुपये में हो गया था, पर इस शौचालय का उपयोग करना ही तो पर्याप्त नहीं था, ग्रामीणों को इसका सही-सही उपयोग करना भी सिखाना आवश्यक था। शुरुआत में लोग इस शुष्क शौचालय में भी अपनी आदत के मुताबिक ढेर सारा पानी डाल देते थे, इस वजह से उस गढ्ढे में मल के डीहाइड्रेशन में काफ़ी समय लगता था। उन्हें समझाया गया कि यह शौचालय परम्परागत भारतीय शौचालय अथवा अंग्रेजी टॉयलेट जैसा नहीं है, बल्कि यह एक शुष्क शौचालय है, इसमें अधिकतम आधा लीटर ही पानी का उपयोग करें, तथा हाथ-पैर धोने के लिये अलग से जो स्थान बना है उसका उपयोग करना चाहिये। त्यागी ने बताया कि यह अतिरिक्त पानी भी सीधे एक पाइप के जरिये खेतों में भेज दिया जाता है। ठोस रूप में मानव मल एक अलग टैंक में, तथा द्रवरूपी मूत्र एक दूसरे टैंक में एकत्रित किया जाता है, इस प्रकार तीनों को अलग-अलग रखा जाता है।
असलतपुर के निवासी अब ईकोसैन शौचालय के आदी हो चले हैं। गाँव के लगभग 20% लोग निचली जाति के हैं और वे खेतों में मजदूरी करते हैं। उनमें से एक मजदूर ने बताया कि पहले गाँव के बड़के लोग उन्हें अपने खेतों में शौच करने से मना करते थे, इसलिये उन्हें अपने घर के पास एक खुला गढ्ढा करके निवृत्त होना पड़ता था, जिसकी सफ़ाई के लिये वे मासिक 20-50 रुपये खर्च करते थे, ओर अपमानजनक भी था। लेकिन जब से यह सार्वजनिक शौचालय बना है उन्हें काफ़ी सुविधा हो गई है। 12वीं कक्षा के छात्र तेजवीर ने बताया कि इस शौचालय में पानी का उपयोग कम से कम करने की बन्दिश की वजह से थोड़ी मुश्किल तो होती है, लेकिन परम्परागत सार्वजनिक शौचालयों की तरह इसमें बदबू कम आती है, क्योंकि टैंक में पानी अथवा मूत्र नहीं होने की वजह से मल जल्दी ही सूख जाता है। ईकोसैन पर इंडिया वाटर पोर्टल से जुड़े ईकोसैन विशेषज्ञ विश्वनाथन का कहना है कि ईकोसैन शौचालय की खुशबू आगे बढ़ाने की जरूरत है, इससे कस्बों और गांवो की तस्वीर बदली जा सकती है।
बहरहाल आईये देखें, कि प्रकृति ने हमें (यानी मानव शरीर रूपी) कितनी "सब्सिडी" पहले से दे रखी है, एक अध्ययन के मुताबिक प्रत्येक व्यक्ति अपने मल-मूत्र के जरिये 4.56 किलो नाईट्रोजन (N), 0.55 किलो फ़ॉस्फ़ोरस (P) तथा 1.28 किलो पोटेशियम (K) प्रतिवर्ष उत्पन्न करता है। यह मात्रा 200 X 400 मीटर के एक भूमि के टुकड़े को उपजाऊ बनाने के लिये पर्याप्त है। इसका दूसरा अर्थ यह भी है कि भारत की एक अरब से ज्यादा आबादी, कुल मिलाकर साठ लाख टन का NPK निर्माण कर सकती है, जो कि भारत की कुल उर्वरक खपत का एक तिहाई होता है…। ग्रामीण कृषि क्षेत्रों में इस प्रकार के "इकोसैन शौचालय" की संख्या में बढ़ोतरी की जानी चाहिये, ताकि देश की अर्थव्यवस्था पर पड़ने वाले उर्वरक सबसिडी के बोझ को कम किया जा सके…
सोमवार, 11 जनवरी 2010
लिफाफा में नव वर्ष की बधाई
http://www.google.com/अभी-अभी मेरी एक सहयोगी ने एक लिफ़ाफ़ा थंमाया जो मेरे नाम था और मेरे महिला मित्र के तरफ से आया था!
लिफ़ाफ़े में बंद ग्रीटिंग कार्ड देख कर एक सुखद आश्चर्य हुआ। आप यक़ीन कर सकते हैं नववर्ष की शुभकामनाओं वाला यह पहला और एकमात्र कार्ड है जो डाक से आया है। ऐसा नहीं है कि शुभकामनाएँ नहीं मिलीं। बहुत मिलीं और ढेरों मिलीं। लेकिन फ़ोन पर, एसएमएस से, ईमेल से, ईकार्ड से या फिर फ़ेसबुक पर संदेश के रूप में. किसको फ़ुर्सत है कि कार्ड ख़रीदे, डाकटिकट का इंतज़ाम करे और फिर लेटर बॉक्स में उसे डालने जाए। लेकिन सच मानो. यह कार्ड देख कर लगा कि यदि किसी ने इतनी मेहनत की है तो वह सच मायने में धन्यवाद का पात्र है। ईमेल पर तो ऐसे भी संदेश मिले जो थोक के भाव दसियों लोगों को बढ़ाए गए थे. यानी संदेश भेजने वाला सिर्फ़ मेरे बारे में ही नहीं सोच रहा था। लेकिन डाक से कार्ड भेजने के लिए आपको कम से कम पाँच दिन पहले उस मित्र को याद करना होगा.
पर, अगर दोस्ती है तो यह तो हक़ बनता है, भाई...
अशोक
लिफ़ाफ़े में बंद ग्रीटिंग कार्ड देख कर एक सुखद आश्चर्य हुआ। आप यक़ीन कर सकते हैं नववर्ष की शुभकामनाओं वाला यह पहला और एकमात्र कार्ड है जो डाक से आया है। ऐसा नहीं है कि शुभकामनाएँ नहीं मिलीं। बहुत मिलीं और ढेरों मिलीं। लेकिन फ़ोन पर, एसएमएस से, ईमेल से, ईकार्ड से या फिर फ़ेसबुक पर संदेश के रूप में. किसको फ़ुर्सत है कि कार्ड ख़रीदे, डाकटिकट का इंतज़ाम करे और फिर लेटर बॉक्स में उसे डालने जाए। लेकिन सच मानो. यह कार्ड देख कर लगा कि यदि किसी ने इतनी मेहनत की है तो वह सच मायने में धन्यवाद का पात्र है। ईमेल पर तो ऐसे भी संदेश मिले जो थोक के भाव दसियों लोगों को बढ़ाए गए थे. यानी संदेश भेजने वाला सिर्फ़ मेरे बारे में ही नहीं सोच रहा था। लेकिन डाक से कार्ड भेजने के लिए आपको कम से कम पाँच दिन पहले उस मित्र को याद करना होगा.
पर, अगर दोस्ती है तो यह तो हक़ बनता है, भाई...
अशोक
शनिवार, 9 जनवरी 2010
जमशेदपुर में उड़ी सूचना कानून की धज्जियां
- 121 पेज की सूचना के एवज में जिला सूचना अधिकारी ने मांगे बीस हजार
- यह गैर कानूनी है, आवेदक आयोग में आये तो कार्रवाई की जायेगी : सूचना आयोग
- सूचना के लिए प्रति कार्य दिवस 1038 रुपये न लेने के संबंध कोई अधिसूचना नहीं मिली : डीडीसी सह सूचना अधिकारी
------------------------
अशोक सिंह, जमशेदपुर
कहा जाता है कि कानून बनने के साथ ही कानून को तोड़ने के रास्ते भी ईजाद हो जाते हैं। झारखंड में भ्रष्टाचार सबसे बड़ा मुद्दा बना हुआ है। सूचना कानून के जरिये नागरिक इसका भंडाफोड़ भी कर रहे हैं। लेकिन अधिकारियों ने सूचना कानून में सेंध लगाने का अच्छा बहाना ढूंढ लिया। झारखंड मंत्रिमंडल (निर्वाचन) विभाग के आदेश का सहारा लेकर सूचना मांगने वाले लोगों का भयादोहन शुरू हो गया है। इसी कड़ी में जमशेदपुर के कदमा निवासी विनोद ठाकुर भी शामिल हैं। कुछ माह पूर्व सूचना अधिकार अधिनियम 2005 के तहत विनोद ठाकुर ने जमशेदपुर के उप विकास आयुक्त सह जन सूचना पदाधिकारी से वर्ष 2000 से सितंबर 2009 तक सांसद व विधायक निधि से किये गये विकास कार्यो की जानकारी मांगी थी। 121 पेज की सूचना के एवज में पूर्वी सिंहभूम के जिला योजना पदाधिकारी सह प्रभारी पदाधिकारी, विकास शाखा की ओर से 20, 000 रुपये अग्रिम राशि की मांग की गयी है। हालांकि वर्ष 2007-08 एवं 2008-09 में विधायकों व सांसदों द्वारा कराये गये विकास कार्यो की विस्तृत जानकारी उपलब्ध करा दी गयी है। शेष जानकारी उपलब्ध कराने के लिए आवेदक से 1038 रुपये प्रति कार्य दिवस के रूप में लगभग 20,000 रुपये अग्रिम राशि उपलब्ध कराने का आदेश दिया गया है। इस संबंध में ध्यान देने की बात यह है कि सूचना अधिकार अधिनियम 2005 के तहत आवेदक से सिर्फ दो रुपये प्रति पेज व 50 रुपये प्रति सीडी ही लेने का प्रावधान है। लेकिन जिला योजना पदाधिकारी ने वांछित प्रतिवेदन को तैयार करने में काफी समय लगने का हवाला देते हुये 121 पन्नों की सूचना के लिए प्रति कार्य दिवस 1038 रुपये के हिसाब से 20,000 रुपये की मांग की है। इस संबंध में जिला सूचना पदाधिकारी सह उप विकास आयुक्त सीताराम बारी से पूछे जाने पर उन्होंने कहा कि इस संबंध में अभी तक कोई अधिसूचना नहीं मिली है। उधर आवेदक ने इस मामले की शिकायत झारखंड मुख्य सूचना आयुक्त व केन्द्रीय सूचना आयोग में कर दी है।यह समस्या मंत्रिमंडल (निर्वाचन) विभाग के आदेश से आयी है। आदेश गत पांच जून को राज्य के सभी जिला निर्वाचन पदाधिकारी सह उपायुक्तों के पास भेजा गया था। यही आदेश सूचना के एवज में लंबी चौड़ी फीस मांगने का हथियार बन गया। हालांकि इस आदेश को राज्य सूचना आयोग ने निरस्त कर दिया है। लेकिन इसकी सूचना जिला प्रशासन को नहीं है।झारखंड राज्य सूचना के आयुक्त पीके महतो का कहना है कि फीस व लागत संबंधी नियम बनाने व ऐसे निर्देश निर्गत करने का अधिकार राज्य कार्मिक व प्रशासनिक विभाग के सिवाय और किसी को नहीं है।झारखंड आरटीआई फोरम के सचिव विष्णु राजगढि़या ने इस मामले को पूरी तरह से गैरकानूनी बताया है। इससे झारखंड की सूचना आयोग की अक्षमता साबित होती है। उन्होंने कहा कि प्रभारी मुख्य सूचना आयुक्त रामविलास गुप्ता के उदार रवैये के कारण ही सूचना कानून की हत्या हो रही है।
गुरुवार, 7 जनवरी 2010
जमशेदपुर में 'श्राची' का धमाकेदार आगाज
-रीयल स्टेट के क्षेत्र में शहर में एक और बड़ा प्रोजक्ट-
-12 एकड़ में पारडीह में बन रहा इनटीग्रेटेड टाउनशिप
अशोक सिंह, जमशेदपुर : आधुनिक परिवेश में घर की परिकल्पना ऐसी हो जो न केवल रहने वाले को नजाकत का अहसास कराये, बल्कि व्यवहारिकता का प्रमाण भी पेश करे। कुछ इसी तरह की परिकल्पना पर आधारित 'घर' लेकर जमशेदपुर आ रहा श्राची समूह। पश्चिम बंगाल में कोलकाता समेत कई शहरों में कम कीमत पर आधुनिक घर की नई परिभाषा गढ़ चुके इस समूह का जमशेदपुर आगमन झारखंड के लिए 2010 का तोहफा होगा। सालाना आठ सौ करोड़ का कारोबार करनेवाली यह कंपनी जमशेदपुर में विश्वस्तरीय टाउनशिप बनाने के लिए श्राची समूह ने मानगो इलाके को चुना है। मानगो के ओल्ड पुरुलिया रोड में पारडीह चौक के करीब पांच सौ मीटर पहले कोलकाता की रीयल स्टेट कंपनी श्राची अपना आधुनिक टाउनशिप बना रही है। वहां पर श्राची द्वारा बनाये जानेवाले घर का एक माडल भी बना दिया गया है ताकि कोई ग्राहक या आम आदमी समूह द्वारा बनाये जानेवाले घर के लुक व क्लालिटी को समझ सके। हालांकि इस समूह ने अपने जमशेदपुर आगमन की अभी औपचारिक घोषणा नहीं की है। लेकिन तैयारी जोरदार धमाका करने की है। जाहिर तौर पर इसके आ जाने के बाद यहां रीयल एस्टेट के कारोबार में नये अध्याय की शुरुआत होगी। श्राची ग्रुप के कारपोरेट कम्यूनिकेशन के मैनेजर राय सेनगुप्ता कहतीं हैं कि घर खरीदने वाले उपभोक्ताओं की कसौटी पर खरा उतरने के लिए हमारी कंपनी व इसके एमडी राहुल तोडी वचनबद्ध हैं। उन्होंने कहा कि जमशेदपुर में कारोबार की अपार संभावनाएं हैं। उन्होंने कहा कि इस परियोजना में हर कैटेगरी के लोगों के लिए घर बनाये जायेंगे जिनमें रो-हाउसेस, बंगलो, टाउन हाउसेस, डुप्लेक्स, ट्रिपलेक्स और अपार्टमेंट शामिल होंगे। इसके अलावा श्राची के कैंपस में ही क्लब, मल्टीगेम, फेमिली लाउंज, स्वीमिंग पुल, लशग्रीन व यूटिलिटी सेंटर आदि की सुविधाएं प्राप्त होंगी। नमूने के तौर पर पेश डुप्लेक्स में बेड रूम, बाथरूम, किचेन में सबसे ज्यादा प्रचलित व टिकाऊ फ्लोरिंग की गयी है। ग्रुप ने इस परियोजना के पहले फेज को वर्ष 2011 तक पूरा करने का लक्ष्य रखा है।
-12 एकड़ में पारडीह में बन रहा इनटीग्रेटेड टाउनशिप
अशोक सिंह, जमशेदपुर : आधुनिक परिवेश में घर की परिकल्पना ऐसी हो जो न केवल रहने वाले को नजाकत का अहसास कराये, बल्कि व्यवहारिकता का प्रमाण भी पेश करे। कुछ इसी तरह की परिकल्पना पर आधारित 'घर' लेकर जमशेदपुर आ रहा श्राची समूह। पश्चिम बंगाल में कोलकाता समेत कई शहरों में कम कीमत पर आधुनिक घर की नई परिभाषा गढ़ चुके इस समूह का जमशेदपुर आगमन झारखंड के लिए 2010 का तोहफा होगा। सालाना आठ सौ करोड़ का कारोबार करनेवाली यह कंपनी जमशेदपुर में विश्वस्तरीय टाउनशिप बनाने के लिए श्राची समूह ने मानगो इलाके को चुना है। मानगो के ओल्ड पुरुलिया रोड में पारडीह चौक के करीब पांच सौ मीटर पहले कोलकाता की रीयल स्टेट कंपनी श्राची अपना आधुनिक टाउनशिप बना रही है। वहां पर श्राची द्वारा बनाये जानेवाले घर का एक माडल भी बना दिया गया है ताकि कोई ग्राहक या आम आदमी समूह द्वारा बनाये जानेवाले घर के लुक व क्लालिटी को समझ सके। हालांकि इस समूह ने अपने जमशेदपुर आगमन की अभी औपचारिक घोषणा नहीं की है। लेकिन तैयारी जोरदार धमाका करने की है। जाहिर तौर पर इसके आ जाने के बाद यहां रीयल एस्टेट के कारोबार में नये अध्याय की शुरुआत होगी। श्राची ग्रुप के कारपोरेट कम्यूनिकेशन के मैनेजर राय सेनगुप्ता कहतीं हैं कि घर खरीदने वाले उपभोक्ताओं की कसौटी पर खरा उतरने के लिए हमारी कंपनी व इसके एमडी राहुल तोडी वचनबद्ध हैं। उन्होंने कहा कि जमशेदपुर में कारोबार की अपार संभावनाएं हैं। उन्होंने कहा कि इस परियोजना में हर कैटेगरी के लोगों के लिए घर बनाये जायेंगे जिनमें रो-हाउसेस, बंगलो, टाउन हाउसेस, डुप्लेक्स, ट्रिपलेक्स और अपार्टमेंट शामिल होंगे। इसके अलावा श्राची के कैंपस में ही क्लब, मल्टीगेम, फेमिली लाउंज, स्वीमिंग पुल, लशग्रीन व यूटिलिटी सेंटर आदि की सुविधाएं प्राप्त होंगी। नमूने के तौर पर पेश डुप्लेक्स में बेड रूम, बाथरूम, किचेन में सबसे ज्यादा प्रचलित व टिकाऊ फ्लोरिंग की गयी है। ग्रुप ने इस परियोजना के पहले फेज को वर्ष 2011 तक पूरा करने का लक्ष्य रखा है।
सदस्यता लें
संदेश (Atom)