सोमवार, 8 मार्च 2010

अगले जनम मोहे बेटा न कीजो

‘अवतार पयंबर जनती है, फिर भी शैतान की बेटी है...’ औरत की हालत पर साहिर लुधियानवी ने कभी लिखा था। ये लाइनें मैं बचपन से सुनता आया हूं और यह सवाल भी खुद से पूछता रहा हूं। पिछले तीन महीनों से एक अजीब-सी आग में जल रहा है दिल-दिमाग। उस आग की आंच में बाकी सारे विचार खाक हो गए, एक अक्षर भी नहीं लिख सका।
इसकी शुरुआत तीन महीने पहले हुई जब जमशेदपुर के एक शोपिंग मोल में  एक जुमला सुना - लड़के/मर्द कमीने होते हैं। इतनी साफ गाली मैंने कभी नहीं सुनी थी। सो जोर देकर पूछा, मैडम, आपको क्या लगता है, क्या मैं भी, हमारे पिता-भाई सभी मर्द कमीने हैं? उन्होंने मेरा दिल बहलाने को भी पलकें नहीं झपकाईं। याद आया, जब बहनों की समस्याएं समझने, उन्हें सीख देने की कोशिश करता था तो अक्सर सुनना पड़ता था, आप नहीं समझोगे भइया, आप लड़के हो। यहां भी वही डायलॉग- तुम नहीं समझोगे...।
क्यों नहीं समझूंगा मैं, दूसरे ग्रह से आया हूं? इसी समाज में पला-बढ़ा हूं। बहरहाल, बहस करने की जगह मैंने ठान लिया, आज से खुद को महिला या लड़की समझकर अपने माहौल को आंकने की कोशिश करूंगा। इन तीन महीनों में ही मैं यह कहने को मजबूर हो गया- मर्द वाकई कमीने होते हैं, कुत्ते नहीं बल्कि भेड़िए। हां, इसके कुछ अपवाद हो सकते हैं, लेकिन अपनी मां, बहनों, बेटियों और दोस्तों की सलामती के लिए यही कहूंगा कि जब तक हालात नहीं बदलते, मुझ पर भी भरोसा मत करना।
इन तीन महीनों में देखा, हम मर्दों की दुनिया औरत के शरीर के इर्द-गिर्द घूमती है। हमारे चुटकुले, हमारी कुंठाएं, गॉसिप, हमारे बाजार यहां तक कि हमारी खबरें भी। हम इस हद तक निर्मम और संवेदनाहीन हो चुके हैं कि जिस शरीर से जन्म लिया, जब वही शरीर जीवन के अंकुरण की प्रक्रिया से हर महीने गुजरता है तो उस दर्द का भी मजाक उड़ाने में नहीं हिचकते। मर्दों के लिए कमीने से भी गई-गुजरी गाली ढूंढनी पड़ेगी। किसी उम्र, पद, तबका, रंग, नस्ल, हैसियत का मर्द हो, इसका अपवाद नहीं।
 जमशेदपुर एक बेरहम नगर है, लेकिन सुबह 4:30 से रात 2:30 बजे तक मैंने इन्हें बेखौफ अंदाज में, खिलखिलाते, अपनी तन्मयता में अपनी-अपनी राह जाते देखा। इनमें से कई छोटे शहरों से या गांवों से आईं थीं, अधिकतर अकेली। कुछ परिवारों के साथ रहते हुए भी निपट अकेली थीं। लेकिन एक बात सभी में समान थी, सब अपने-अपने कंधों पर एक बोझ उठाए थीं, मां-बाप से यह कहतीं - हम अपने भाइयों से कहीं भी कम नहीं, तुमने एक लड़के की चाह में हमें नामुराद की तरह इस दुनिया में ढकेल दिया। हमारे पैदा होने पर खुशी तो दूर, नवजात शरीर को ढंकने के लिए साफ, नए कपड़े तक नहीं मिल सके। तब शायद हम यही सोचकर जिंदा रहे कि एक दिन तुम्हें बता सकें कि हम तुम्हारे वंश को बढ़ाने वाले लड़के से किसी सूरत में पीछे नहीं हैं। लेकिन वह यह कह रही थीं बिना किसी विज्ञापन के, किसी मौन योद्धा की तरह।
इस अंतराल में एक और ख्याल आया कि यह पूरी दुनिया मर्दपरस्त है, हमारी साइंस, मेडिकल जगत भी। एक दिन बस से जा रहा था, अचानक किसी खिड़की के पास से आवाज आई, इन्हें हमारी चिंता होती तो जैसे कॉन्डम वेंडिंग मशीन लगाई, वैसे ही सेनेटरी नैपकिन की वेंडिंग मशीन न लगा देते। मैं सन्न रह गया, सूरज की रोशनी में चमकता हुआ एक माथा, कच्चे दूध सी पवित्रता लिए भोली-सी आंखें यह सवाल पूछ रही थीं। सच है, यह ख्याल हम मर्दों को क्यों नहीं आया? शायद हर महीने मर्दों को यह तकलीफ झेलनी होती तो शायद साइंटिस्टों की पूरी जमात चांद पर पानी बाद में खोजती, सबसे पहले इस दर्द को कम करने में जुट जाती। चूंकि मर्द को दर्द नहीं होता, इसलिए औरत का शरीर नरक का द्वार है कह कर छुटकारा पा लेता है।
लेकिन लगता है कि हमारी जमात के अपराध इतने ज्यादा हैं कि विधाता से इतना ही कहना चाहता हूं, अगले जनम मोहे बिटुआ न कीजो, मुझे भी शैतान की बेटी ही बनाना ताकि मैं भी इस मौन संघर्ष का हिस्सा बन सकूं।

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