शनिवार, 17 अगस्त 2019

डर के आगे जीत है



ऐसा अक्सर नहीं होता जब प्रत्येक उदारीकरण और विदेशी मेलजोल पर बिदकने वाले स्वदेशी और अर्थव्यवस्था को खोलने के परम पैरोकार उदारवादी एक ही घाट पर डुबकी लगाते नजर आएं.

मोदी सरकार का फैसला है कि भारत अब बॉन्ड के जरिए विदेशी बाजारों से कर्ज लेगाये बॉन्ड भारत की संप्रभु साख (सॉवरिन रेटिंग)पर आधारित होंगेइससे पहले ऐसा कभी नहीं हुआ थासरकार के विचार परिवार वाले रूढ़िवादी स्वदेशियों को लगता है कि इससे आसमान फट पड़ेगा और उदारवादियों को लगता है कि सुर्खियां बटोरने के शौक में मोदी सरकार एक गैर-जरूरी कोशिश कर रही है जो मुश्किल में डालेगी.

दोनों ही बेमतलब डरा रहे हैंजबकि इस डर के आगे जीत हैयहां से एक बड़े सुधार की शुरुआत हो सकती है.

विदेशी कर्ज भारत के लिए नया नहीं हैसरकार को बहुपक्षीय संस्थाओं (विश्व बैंक,एडीबीऔर देशों (जैसे बुलेट ट्रेन के लिए जापानसे कर्ज मिलता रहा हैयह कर्ज देशों या संस्था और देश के बीच होता हैकर्ज बाजार का इस पर कोई असर नहीं होताभारतीय  कंपनियां अपनी साख के बदले दुनिया भर से कर्ज लेती हैंजो सरकार के खाते में दर्ज नहीं होता.
सरकार के अधिकांश कर्ज देश के भीतर से आते हैं और रुपए में होते हैंयह कर्ज डॉलर में होगा और डॉलर में ही चुकाना होगाडॉलर महंगा होने से यह कर्ज बढ़ेगा.

दुनिया के अन्य देशों की तरहजो विश्व के बाजारों से कर्ज लेते हैंभारत की साख की रेटिंग होगीभारत के बॉन्ड दुनिया के बाजारों में सूचीबद्ध होंगे.

भारत शुरुआत में केवल कुल दस अरब डॉलर जुटाना चाहता हैफायदा यह कि यह कर्ज घरेलू बाजार की तुलना में लगभग आधी लागत पर मिलेगाइस बॉन्ड के बाद देशी बाजार से सरकार कुछ कम कर्ज लेगी.

इस पहल से भारत को तत्काल कोई खतरा नहीं हैइस तरह के विदेशी कर्जजोखिम के जिन पैमानों पर मापे जाते हैंउनमें भारत की स्थिति बेहतर हैजीडीपी के अनुपात में भारत का कुल संप्रभु विदेशी कर्ज केवल 3.8 फीसद हैविदेशी मुद्रा (428 अरब डॉलरकर्ज अनुपात भी 75 फीसद के बेहतर स्तर पर है.

इस तरह के बॉन्ड के मामले में भारत की तुलना ब्राजीलचीनइंडोनेशियामेक्सिको,फिलीपींस और थाईलैंड से होनी चाहिएभारत की कुल आय के अनुपात में विदेशी कर्ज19.8 फीसद (इंडोनेशियामेक्सिको 35 फीसद से ज्यादाहैइसमें संप्रभु गांरटी पर लिया गया विदेशी कर्ज तो चीन व थाईलैंड की तुलना में बहुत कम है.

स्वदेशी और वामपंथी तो 1991 और 95 में भी डरा रहे थे लेकिन भारत अगर उदारीकरण न करता तो ज्यादा बड़ा नुक्सान होताडराने वालों को खबर हो कि भारत में भरपूर विदेशी पूंजी पहले से हैशेयर बाजारों में विदेशी निवेश (433 अरब डॉलर)और प्रत्यक्ष विदेशी निवेश यानी एफडीआइ (325 अरब डॉलर), दरअसल सरकार (309अरब डॉलरऔर कंपनियों पर कुल विदेशी कर्ज (104 अरब डॉलर)  से भी ज्यादा है.

इसलिए दस अरब डॉलर के सॉवरिन कर्ज से प्रलय नहीं आ जाएगीबल्कि अगर मोदी सरकार इस फैसले पर आगे बढ़ती है तो एक बड़ी आर्थिक पारदर्शिता उभरेगीभारत को पहली बार ग्लोबल डॉलर सूचकांक का हिस्सा बनना होगाइस दर्जे की बड़ी कीमत है और जोखिम भी.

भारत सरकार को अपने सभी वित्तीय आंकड़े पारदर्शी करने होंगे और घाटा या कर्ज छिपाने की आदत छोड़नी होगीसरकार हमें केंद्र और राज्यों के कर्ज व घाटे की आधी अधूरी तस्वीर दिखाती हैबैंकों के एनपीएएनबीएफसी का कर्जबजट से बाहर रखे जाने वाले कर्ज जैसे छोटी बचत स्कीमें या सरकारी कंपनियों पर लदा कर्जक्रेडिट कार्ड आदि के कर्जसरकारी कंपनियों का घाटा...दुनिया के निवेशकों अब आर्थिक सेहत की कोई भी जानकारी छिपाना महंगा पड़ेगा.

इस बॉन्ड से मिलने वाली राशि नहीं बल्कि यह महत्वपूर्ण होगा कि भारत अपने जोखिम का प्रबंधन कैसे करता है अब पूरी दुनिया को वित्तीय पारदर्शिता का विश्वास दिलाना होगा जिसके आधार पर भारत की संप्रभु साख तय होगी जो बताएगी कि दुनिया के बाजार में हम कहां खड़े हैंजो रेटिंग हमें विदेश में मिलेगीदेश का बाजार भी उसी हिसाब से कर्ज देगा.
ग्रीसतुर्कीअर्जेंटीनाथाईलैंडब्राजील के जले निवेशक अब किसी को बख्शते नहीं हैं.बदहाल आर्थिक प्रबंधन के कारण इन मुल्कों को बॉन्ड बाजार में बड़ी सजा झेलनी पड़ी.सनद रहे कि ग्रीस इसलिए डूबा क्योंकि उसने अपना घाटा छिपाया थाबॉन्ड बाजार झूठ से सबसे ज्यादा बिदकता है.

अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन के सलाहकार जेम्स कारविल कहते थे कि अगर मुझे दोबारा अवतार मिले तो मैं राष्ट्रपति या पोप नहीं बल्कि बॉन्ड मार्केट बनूंगाजो हर किसी को डरा सकता है.

बॉन्ड आने दीजिएदुनिया का डर ही भारत सरकार को अपने तौर-तरीके बदलने में मदद करेगा.

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