शनिवार, 17 अगस्त 2019

जिएं तो जिएं कैसे

प्रत्‍येक बड़ा कारोबार कभी न कभी छोटा ही होता हैइस ग्लोबल सुभाषित की भारतीय व्याख्या कुछ इस तरह होगी कि भारत में हर छोटा कारोबार छोटे रहने को अभिशप्तहोता हैआमतौर पर या तो वह घिसट रहा होता हैया फिर मरने के करीब होता हैयहां बड़ा कारोबारी होना अपवाद है और छोटे-मझोले बने रहना नियमकारोबार बंद होने की संभावनाएं जीवित रहने की संभावनाओं की दोगुनी होती हैं.

भारत में 45 साल की रिकॉर्ड बेकारी की वजहें तलाशते हुए सरकारी आर्थिक समीक्षा को उस सच का सामना करना पड़ा है जिससे ताजा बजट ने आंखें चुरा लींयह बात अलग है कि बजट उसी टकसाल में बना है जिसमें आर्थिक समीक्षा गढ़ी जाती है.

सरकार का एक हाथ मान रहा है कि भारत की बेरोजगारी अर्थव्यवस्था के केंद्र या मध्य पर छाए संकट की देन हैकमोबेश स्व-रोजगार पर आधारित खेती और छोटे व्यवसाय अर्थव्यवस्था की बुनियाद हैं जो किसी तरह चलते रहते हैं जबकि बड़ी कंपनियां अर्थव्यवस्था का शिखर हैं जिनके पास संसाधनों और अवसरों का भंडार हैइन्हें कोई खतरा नहीं होतारोजगारों और उत्पादकता का सबसे बड़ा स्रोत मझोली कंपनियां या व्यवसाय हैं जिनमें 25 से 100 लोग काम करते हैंबड़े होने की गुंजाइश इन्हीं के पास हैइनके लगातार सिकुड़ने या दम तोड़ने के कारण ही बेरोजगारी गहरा रही है.

मध्यम आकार की कंपनियों का ताजा हाल दरअसल संख्याएं नहीं बल्कि बड़े सवाल हैं,बजट जिनके जवाबों से कन्नी काट गया.

         संगठित मैन्युफैक्चरिंग के पूरे परिवेश में 100 से कम कर्मचारियों वाली कंपनियों का हिस्सा 85 फीसद है लेकिन मैन्युफैक्चरिंग से आने वाले रोजगारों में ये केवल14 फीसद का योगदान करती हैंउत्पादकता में भी यह केवल 8 फीसद की हिस्सेदार हैं यानी 92 फीसद उत्पादकता केवल 15 फीसद बड़ी कंपनियों के पास है.

         दस साल की उम्र वाली कंपनियों का रोजगारों में हिस्सा 60 फीसद है जबकि 40साल वालों का केवल 40 फीसदअमेरिका में 40 साल से ज्यादा चलने वाली कंपनियां भारत से सात गुना ज्यादा रोजगार बनाती हैंइसका मतलब यह कि भारत में मझोली कंपनियां लंबे समय तक नहीं चलतीं इसलिए इनमें रोजगार खत्म होने की रफ्तार बहुत तेज हैअचरज नहीं कि नोटबंदी और जीएसटी या सस्ते आयात इन्हीं कंपनियों पर भारी पड़े.

निवेश मेलों में नेताओं के साथ मुस्कराते एक-दो दर्जन बड़े उद्यमी अर्थव्यवस्था का शिखर तो हो सकते हैं लेकिन भारत को असंख्य मझोली कंपनियां चाहिए जो इस विशाल बाजार में स्थानीय अर्थव्यवस्थाओं की रीढ़ बन सकेंऐसा न होने से बेकारी के साथ दो बड़ी असंगतियां पैदा हो रही हैं:

एकहर जगह बड़ी कंपनियां नहीं हो सकतींविशाल कंपनियों के बिजनेस मॉडल क्रमशउनका विस्तार रोकते हैंभारत की स्थानीय अर्थव्यवस्था में (पुणेकानपुर,जालंधरकोयंबत्तूरभुवनेश्वर आदिइसके विकास में संतुलन का आधार हैंमझोली कंपनियां इन लोकल बाजारों में रोजगार और खपत दोनों को बढ़ाने का जरिया हैं.

दोमध्यम आकार की ज्यादातर कंपनियां स्थानीय बाजारों में खपत का सामान या सेवाएं देती हैं और आयात का विकल्प बनती हैंयह बाजार पर एकाधिकार को रोकती हैंमझोली कंपनियों के प्रवर्तक अब आयातित सामग्री के विक्रेता या बड़ी कंपनियों के डीलर बन रहे हैं जिससे खपत के बड़े हिस्से पर चुनिंदा कंपनियों का नियंत्रण हो रहा है जो कीमतों को अपने तरह से तय करती हैं.

पिछले एक दशक में सरकारें प्रोत्साहन और सुविधाओं के बंटवारे में स्थानीय और राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था के बीच संतुलन नहीं बना पाईंरियायतेंसस्ता कर्ज और तकनीक उनके पास पहुंची जो पहले से बड़े थे या प्राकृतिक संसाधनों (जमीनस्पेक्ट्रमखननको पाकर बड़े हो गएउन्होंने बाजार में प्रतिस्पर्धा सीमित कर दीदूसरी तरफटैक्स नियम-कानूनमहंगी सेवाओं और महंगे कर्ज की मारी मझोली कंपनियां सस्ते आयात की मार खाकर प्रतिस्पर्धा से बाहर हो गईं और उनके प्रवर्तक बड़ी कंपनियों के एजेंट बन गए.

यह देखना दिलचस्प है कि प्रत्यक्ष अनुभवआंकड़े और सरकारी आर्थिक समीक्षा वही उपदेश दे रहे हैं जो एक चतुर और कामयाब उद्यमी अपनी अगली पीढ़ी से कहता है कि या तो घास बने रहो या फिर जल्द से जल्द बरगद बन जाओघास बार-बार हरी हो सकती है और बरगदों को कोई खतरा नहीं हैहर मौसम में मुसीबत सिर्फ उनके लिए है जो बीच में हैं यानी न जिनके पास गहरी जड़ें हैं और न ही मजबूत तने.

चुनावी चंदे बरसाने वाली बड़ी कंपनियों के आभा मंडल के बीचसरकार नई औद्योगिक नीति पर काम कर रही हैक्या इसे बनाने वालों को याद रहेगा कि गुलाबी बजट की सहोदर आर्थिक समीक्षा अगले दशक में बेकारी का विस्फोट होते देख रही हैजब कामगार आयु वाली आबादी में हर माह 8 लाख लोग (97 लाख सालानाजुड़ेंगेइनमें अगर 60 फीसद लोग भी रोजगार के बाजार में आते हैं तो हर महीने पांच लाख (60लाख सालानानए रोजगारों की जरूरत होगी.

डर के आगे जीत है



ऐसा अक्सर नहीं होता जब प्रत्येक उदारीकरण और विदेशी मेलजोल पर बिदकने वाले स्वदेशी और अर्थव्यवस्था को खोलने के परम पैरोकार उदारवादी एक ही घाट पर डुबकी लगाते नजर आएं.

मोदी सरकार का फैसला है कि भारत अब बॉन्ड के जरिए विदेशी बाजारों से कर्ज लेगाये बॉन्ड भारत की संप्रभु साख (सॉवरिन रेटिंग)पर आधारित होंगेइससे पहले ऐसा कभी नहीं हुआ थासरकार के विचार परिवार वाले रूढ़िवादी स्वदेशियों को लगता है कि इससे आसमान फट पड़ेगा और उदारवादियों को लगता है कि सुर्खियां बटोरने के शौक में मोदी सरकार एक गैर-जरूरी कोशिश कर रही है जो मुश्किल में डालेगी.

दोनों ही बेमतलब डरा रहे हैंजबकि इस डर के आगे जीत हैयहां से एक बड़े सुधार की शुरुआत हो सकती है.

विदेशी कर्ज भारत के लिए नया नहीं हैसरकार को बहुपक्षीय संस्थाओं (विश्व बैंक,एडीबीऔर देशों (जैसे बुलेट ट्रेन के लिए जापानसे कर्ज मिलता रहा हैयह कर्ज देशों या संस्था और देश के बीच होता हैकर्ज बाजार का इस पर कोई असर नहीं होताभारतीय  कंपनियां अपनी साख के बदले दुनिया भर से कर्ज लेती हैंजो सरकार के खाते में दर्ज नहीं होता.
सरकार के अधिकांश कर्ज देश के भीतर से आते हैं और रुपए में होते हैंयह कर्ज डॉलर में होगा और डॉलर में ही चुकाना होगाडॉलर महंगा होने से यह कर्ज बढ़ेगा.

दुनिया के अन्य देशों की तरहजो विश्व के बाजारों से कर्ज लेते हैंभारत की साख की रेटिंग होगीभारत के बॉन्ड दुनिया के बाजारों में सूचीबद्ध होंगे.

भारत शुरुआत में केवल कुल दस अरब डॉलर जुटाना चाहता हैफायदा यह कि यह कर्ज घरेलू बाजार की तुलना में लगभग आधी लागत पर मिलेगाइस बॉन्ड के बाद देशी बाजार से सरकार कुछ कम कर्ज लेगी.

इस पहल से भारत को तत्काल कोई खतरा नहीं हैइस तरह के विदेशी कर्जजोखिम के जिन पैमानों पर मापे जाते हैंउनमें भारत की स्थिति बेहतर हैजीडीपी के अनुपात में भारत का कुल संप्रभु विदेशी कर्ज केवल 3.8 फीसद हैविदेशी मुद्रा (428 अरब डॉलरकर्ज अनुपात भी 75 फीसद के बेहतर स्तर पर है.

इस तरह के बॉन्ड के मामले में भारत की तुलना ब्राजीलचीनइंडोनेशियामेक्सिको,फिलीपींस और थाईलैंड से होनी चाहिएभारत की कुल आय के अनुपात में विदेशी कर्ज19.8 फीसद (इंडोनेशियामेक्सिको 35 फीसद से ज्यादाहैइसमें संप्रभु गांरटी पर लिया गया विदेशी कर्ज तो चीन व थाईलैंड की तुलना में बहुत कम है.

स्वदेशी और वामपंथी तो 1991 और 95 में भी डरा रहे थे लेकिन भारत अगर उदारीकरण न करता तो ज्यादा बड़ा नुक्सान होताडराने वालों को खबर हो कि भारत में भरपूर विदेशी पूंजी पहले से हैशेयर बाजारों में विदेशी निवेश (433 अरब डॉलर)और प्रत्यक्ष विदेशी निवेश यानी एफडीआइ (325 अरब डॉलर), दरअसल सरकार (309अरब डॉलरऔर कंपनियों पर कुल विदेशी कर्ज (104 अरब डॉलर)  से भी ज्यादा है.

इसलिए दस अरब डॉलर के सॉवरिन कर्ज से प्रलय नहीं आ जाएगीबल्कि अगर मोदी सरकार इस फैसले पर आगे बढ़ती है तो एक बड़ी आर्थिक पारदर्शिता उभरेगीभारत को पहली बार ग्लोबल डॉलर सूचकांक का हिस्सा बनना होगाइस दर्जे की बड़ी कीमत है और जोखिम भी.

भारत सरकार को अपने सभी वित्तीय आंकड़े पारदर्शी करने होंगे और घाटा या कर्ज छिपाने की आदत छोड़नी होगीसरकार हमें केंद्र और राज्यों के कर्ज व घाटे की आधी अधूरी तस्वीर दिखाती हैबैंकों के एनपीएएनबीएफसी का कर्जबजट से बाहर रखे जाने वाले कर्ज जैसे छोटी बचत स्कीमें या सरकारी कंपनियों पर लदा कर्जक्रेडिट कार्ड आदि के कर्जसरकारी कंपनियों का घाटा...दुनिया के निवेशकों अब आर्थिक सेहत की कोई भी जानकारी छिपाना महंगा पड़ेगा.

इस बॉन्ड से मिलने वाली राशि नहीं बल्कि यह महत्वपूर्ण होगा कि भारत अपने जोखिम का प्रबंधन कैसे करता है अब पूरी दुनिया को वित्तीय पारदर्शिता का विश्वास दिलाना होगा जिसके आधार पर भारत की संप्रभु साख तय होगी जो बताएगी कि दुनिया के बाजार में हम कहां खड़े हैंजो रेटिंग हमें विदेश में मिलेगीदेश का बाजार भी उसी हिसाब से कर्ज देगा.
ग्रीसतुर्कीअर्जेंटीनाथाईलैंडब्राजील के जले निवेशक अब किसी को बख्शते नहीं हैं.बदहाल आर्थिक प्रबंधन के कारण इन मुल्कों को बॉन्ड बाजार में बड़ी सजा झेलनी पड़ी.सनद रहे कि ग्रीस इसलिए डूबा क्योंकि उसने अपना घाटा छिपाया थाबॉन्ड बाजार झूठ से सबसे ज्यादा बिदकता है.

अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन के सलाहकार जेम्स कारविल कहते थे कि अगर मुझे दोबारा अवतार मिले तो मैं राष्ट्रपति या पोप नहीं बल्कि बॉन्ड मार्केट बनूंगाजो हर किसी को डरा सकता है.

बॉन्ड आने दीजिएदुनिया का डर ही भारत सरकार को अपने तौर-तरीके बदलने में मदद करेगा.

डुबाने की लत


इंडिगो की उड़ान में पूरे जतन से आवभगत में लगी एयर होस्टेस को अंदाजा नहीं होगा कि उनकी शानदार (अभी तककंपनी के निदेशक आपस में क्यों लड़ रहे हैंसेबी किस बात की जांच कर रहा हैजेट एयरवेज के 20,000 से अधिक कर्मचारियों को यह समझ में नहीं आया कि उनकी कंपनी के मालिक या बोर्ड ने ऐसा क्या कर दिया जिससे कंपनी के साथ उनकी खुशियां भी डूब गईंआम्रपाली से मकान खरीदने वालों को भी कहां मालूम था कि कंपनी किस कदर हेराफेरी कर रही थी

सरकारी कंपनियों का कुप्रबंधहमारी अकेली मुसीबत नहीं हैभारत अब चमकते ब्रान्ड और कंपनियों का कब्रिस्तान बन रहा हैसत्यमएडीएजी (अनिल अंबानी समूह),वीडियोकॉनसहारामोदीलुफ्तरोटोमैकजेपी समूहनीरव मोदीगीतांजलि जेम्सजेट एयरवेजकिंगफिशरयूनीटेकआम्रपालीआइएलऐंडएफएसस्टर्लिंग बायोटेकभूषण स्टील...यह सूची खासी लंबी हो सकती है...टाटाफोर्टिस और इन्फोसिस के बोर्ड में विवादों या कैफे कॉफी डे में संकट से हुए नुक्सान (शेयर कीमतको जोड़ने के बाद हमें अचानक महसूस होगा कि भारत के निजी प्रवर्तक तो कहीं ज्यादा बड़े आत्माघाती हैं

किसी कंपनी के प्रबंधन या खराब कॉर्पोरेट गवर्नेंस से हमें फर्क क्यों नहीं पड़ता?कंपनियों का बुरा प्रबंधनकिसी खराब सरकार जितना ही घातक हैसरकार को तो फिर भी बदला जा सकता है लेकिन कंपनियों के प्रबंधन को बदलना असंभव है.

भारत में खराब कॉर्पोरेट गवर्नेंस से जितनी बड़ी कंपनियां डूबी हैंया प्रवर्तकों के दंभ और गलतियों ने जितनी समृद्धि का विनाश (वेल्थ डिस्ट्रक्शनकिया है वह मंदी से होने वाले नुक्सान की तुलना में कमतर नहीं है.

दरअसलयह तिहरा विनाश है.

एकशेयर निवेशक अपनी पूंजी गंवाते हैंजैसेकुछ साल पहले तक दिग्गज (आरकॉम,वीडियोकॉनयूनीटेकवोडाफोनसुजलॉनकंपनियों के शेयर अब एक दो रुपए में मिल रहे हैं.

दोइनमें बैंकों की पूंजी (पीएनबी-नीरव मोदीडूबती है जो दरअसल आम लोगों की बचत है और

तीसराअचानक फटने वाली बेकारी जैसे जेट एयरवेजआरकॉमयूनीनॉर.
देश में कॉर्पोरेट गवर्नेंस यानी कंपनी को चलाने के नियम कागजों पर दुनिया में सबसे सख्त होने के बावजूद घोटालों की झड़ी लगी हैकंपनियों के निदेशक मंडलों के कामकाज सिरे से अपारदर्शी हैंइन्हें ठीक करने का जिम्मा प्रवर्तकों पर हैजिनकी बोर्ड में तूती बोलती हैइंडिगो या फोर्टिस में विवाद के बाद ही इन कंपनियों में कॉर्पोरेट गवर्नेंस की कलई खुलीटाटा संस के बोर्ड ने सायरस मिस्त्री को शानदार चेयरमैन बताने के कुछ माह बाद ही हटा दियाइन्फोसिस का निदेशक मंडलकभी विशाल सिक्का तो कभी पूर्व प्रवर्तक नारायणमूर्ति का समर्थक बना और इस दौरान निवेशकों ने गहरी चोट खाई.

वीडियोकॉन को गलत ढंग से कर्ज देने के बाद भी चंदा कोचर आइसीआइसीआइ में बनी रहींयेस बैंक के एमडी सीईओ राणा कपूर को हटाना पड़ा या कि आइएलऐंडएफएस ने असंख्य सब्सिडियरी के जरिए पैसा घुमाया और बोर्ड सोता रहानजीरें और भी हैं.कंपनियों पर प्रवर्तकों के कब्जे के कारण स्वतंत्र निदेशक नाकारा हो जाते हैंनियामक ऊंघते रहते हैंकिसी की जवाबदेही नहीं तय हो पाती और अचानक एक दिन कंपनी इतिहास बन जाती है.

भारतीय कंपनियों के प्रमोटरपैसे और बैंक कर्ज के गलत इस्तेमाल के लिए कुख्यात हो रहे हैंआम्रपाली के फोरेंसिक ऑडिट से ही यह पता चला कि मालिकों ने चपरासी और निचले कर्मचारियों के नाम से 27 से ज्यादा कंपनियां बनाईजिनका इस्तेमाल हेराफेरी के लिए होता थाताकतवर प्रमोटरबैंकरेटिंग एजेंसियों और ऑडिट के साथ मिलकर एक कार्टेल बनाते हैं जो तभी नजर आता है जब कंपनी कर्ज में चूकती या डूबती है जैसा कि आइएलऐंडएफएस में हुआ

प्रवर्तकों के दंभ और गलत फैसलों से हुए नुक्सान की सूची (जैसे टाटा नैनोकिंगफिशर)भी लंबी हैजल्द से जल्द बड़े हो जाने के लालच में भारतीय उद्यमी बैंक कर्ज और रसूख के सहारे ऐसे उद्योगों में उतर जाते हैं जहां न उनका तजुर्बा हैन जरूरतमकान बनाते-बनाते आम्रपाली फिल्म बनाने लगी और अनिल अंबानी समूह वित्तीय सेवाएं चलाते-चलाते राफेल की मरम्मत का काम लेने लगेपश्चिम की कंपनियां लंबे समय तक एक ही कारोबार में रहकर निवेशकों और उपभोक्ताओं को बेहतर रिटर्न व सेवाएं देती हैं जबकि भारत की 80 फीसद ‘ग्रेट’ कंपनियां पूंजी पर रिटर्न गंवाकर या कर्ज में फंस कर बहुत कम समय में औसत स्तर पर आ जाती हैं.

कंपनियों में खराब गवर्नेंस से सरकारें क्यों फिक्रमंद होने लगींउन्हें तो इनसे मिलने वाले टैक्स या चुनावी चंदे से मतलब हैप्रवर्तकों का कुछ भी दांव पर होता ही नहीं.डूबते तो हैं रोजगार और बैंकों का कर्जमरती है बाजार में प्रतिस्पर्धा जाहिर है कि इस नुक्सान से किसी नेता की सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़ता