शनिवार, 20 मार्च 2010

200 मिलियन प्रवासी आज भी दोयम दर्जे के शिकार

21 मार्च, अन्तर्राष्ट्रीय नस्लीय भेदभाव दिवस पर विशेष
प्रस्तुति : अशोक सिंह, जमशेदपुर
21 मार्च 1960 को दक्षिण अफ्रीका के शारपेवैली उस समय दहल उठा था, जब पुलिस ने रंगभेद के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे लोगों पर गोलियों बरसा दी थी। इस सनसनीखेज वारदात में 69 लोग मारे गये थे, जबकि हजारों लोग घायल हो गये थे। बताया जाता है कि रंगभेद के खिलाफ कानून बनाने को ले साउथ अफ्रीका के शारपेवैली में लोग शांति मार्च कर रहे थे। तभी अचानक दक्षिण अफ्रीका पुलिस की गोलियां आग उगलने लगी थी।
काले 'पास लॉ' (एक दमनकारी नीति) के तहत दक्षिण अफ्रीका में नस्ल व रंगभेद जैसे गतिविधियों को नियंत्रित करते थे। घटना के तुरंत बाद ही संयुक्त राष्ट्र महासभा ने 21 मार्च के दु:खद दिन को अंतर्राष्ट्रीय नस्ली भेदभाव उन्मूलन दिवस व अन्तर्राष्ट्रीय त्रासदी मानने की घोषणा कर दी थी।
पिछले वर्ष अपै्रल में जनेवा स्थित डरबन में आयोजित सम्मेलन में च्च्च मानवाधिकार आयुक्त नवी पिल्लै ने दुनिया भर के प्रवासियों की स्थित पर प्रकाश डाला था। सम्मेलन में उन्होंने कहा कि दुनिया भर में 200 मिलियन लोग अन्तर्राष्ट्रीय प्रवासी हैं। जिनके साथ दोयम दर्जे का व्यवहार किया जाता है। प्रवासियों को उनके अधिकारों से वंचित रखा जाता है, उन्हें नस्लीय भेदभाव व विद्वेष का सामना करना पड़ता है।
पिल्लै के मुताबिक प्रवासियों से दफ्तरों में भेदभाव व समाज में रंगभेद जैसी नीतियां अभी भी अधिकांश देशों जारी है। प्रवासियों को समाजिक सुरक्षा व आवासों के लिए काफी मशक्कत करनी पड़ती है।
इन नीतियों के आंच अब हमारे भारत वर्ष में भी देखने को मिल रही है। एक राज्य के लोग दूसरे राज्यों से आये लोगों पर वक्त-वे-वक्त कहर ढहाते आ रहे हैं। हाल ही में जमशेदपुर के एक युवक की तमिलनाडु में हत्या कर दी गयी थी।

देश व विदेशों में बीते दो माह में भेदभाव की घटनाएं

भारत
नौ फरवरी : पंजाब में 16 बिहारियों को तलवार से काटा
11 फरवरी : हिमाचल में झारखंडी जनजातीय छात्राओं से अश्लील हरकत
16 फरवरी : महाराष्ट्र में आठ आदिवासियों को जिंदा जलाया
तीन मार्च : तमिलनाडु में झारखंड के छात्र की हत्या
विदेश
सात फरवरी : नाइजीरिया में भारतीय नागरिक का अपहरण
10 फरवरी : ब्रिटेन में भारतीय टैक्सी चालक पर हमला
18 फरवरी : नेपाल में तीन भारतीयों की हत्या
21 फरवरी : मलेशिया में भारतीय मूल के सांसद पर पत्‍‌नी को तलाक देने का दबाव
27 फरवरी : आफगानिस्तान में 17 भारतीयों की हत्या
तीन मार्च : आस्ट्रेलिया में भारतीय पर नस्ली हमला
चार मार्च : आस्ट्रेलिया मेंच्बच्चे गुरशान सिंह चन्ना की हत्या

बुधवार, 10 मार्च 2010

Ashok singh: आज मैं ऊपर, आसमां नीचे

Ashok singh: आज मैं ऊपर, आसमां नीचे

आज मैं ऊपर, आसमां नीचे

-बिल को धरातल पर आने में समय लगेगा

33 प्रतिशत आरक्षण का नतीजा दूरगामी होगा। वैसे निकटवर्ती काल में सिर्फ नेता जी या दबंग लोगों की पत्‍ि‌नयां ही चुनाव में होंगी पर धीरे-धीरे समय बदलेगा और आम महिलाएं भी हिस्सा लेंगी। बिल को धरातल पर आने में समय लगेगा।
दीप्ति एस पटेल, निदेशक, इनवेस्टमेंट ऐज

-नो प्रोक्सी पालिटिक्स
मेरे विचार से इस बिल पर प्रोक्सी पोलिटिक्स नहीं होना चाहिये। महिला बिल थोड़े बहुत बवाल के साथ राज्यसभा से पास तो हो गया लेकिन लोकसभा शेष है। इस बिल से समाज की महिलाओं का आत्मबल बढ़ेगा और उनका शोषण कम होगा।
राय सेनगुप्ता, एजीएम, कारपोरेट कम्यूनिकेशन, श्राची ग्रुप
-बंधुआ मजदूरी खत्म
बिल से महिलाओं को अपना अधिकार मिलेगा। महिलाएं हमेशा एक बंधुआ मजदूर की तरह रही हैं। महिलाओं का पुरुष प्रधान समाज में शोषण होता रहा है और समाज ने हमेशा इन्हें दबाया है। बिल में जाति नहीं नारी की बात हो।
इंद्राणी सिंह, प्रिंसिपल, एडीएल सनशाइन

-बदलेगा समाजिक व पारिवारिक ढांचा
हमें 33 प्रतिशत आरक्षण मिला है। यह बड़ी बात है। इस बिल से सामाजिक व पारिवारिक ढांचा बदलेगा और महिलाएं मजबूत होंगी। बिल का सबसे ज्यादा फायदा ग्रामीण इलाकाई महिलाओं को मिले क्योंकि इन्हीं के सर्वाधिक उत्थान की जरूरत है।
रंजीता, साफ्टवेयर इंजीनियर, सत्यम सिस्टम सोल्यूशन

-खत्म होगा स्टेटस डिफ्रेंसियेशन
इस बिल से महिलाओं को हर फील्ड में प्रतिनिधित्व का मौका मिलेगा। सोसायटी में महिलाओं का स्टेटस डिफ्रेंसियेशन अब खत्म हो जायेगा। इससे समाज में महिलाओं को मजबूती मिलेगी। इसका नतीजा जल्दी तो नहीं लेकिन भविष्य में जरूर दिखेगा। महिलाओं का जीवन बेहतर होगा।
डा. इंदू चौहान, वरदान मेटरनिटी

सोमवार, 8 मार्च 2010

अगले जनम मोहे बेटा न कीजो

‘अवतार पयंबर जनती है, फिर भी शैतान की बेटी है...’ औरत की हालत पर साहिर लुधियानवी ने कभी लिखा था। ये लाइनें मैं बचपन से सुनता आया हूं और यह सवाल भी खुद से पूछता रहा हूं। पिछले तीन महीनों से एक अजीब-सी आग में जल रहा है दिल-दिमाग। उस आग की आंच में बाकी सारे विचार खाक हो गए, एक अक्षर भी नहीं लिख सका।
इसकी शुरुआत तीन महीने पहले हुई जब जमशेदपुर के एक शोपिंग मोल में  एक जुमला सुना - लड़के/मर्द कमीने होते हैं। इतनी साफ गाली मैंने कभी नहीं सुनी थी। सो जोर देकर पूछा, मैडम, आपको क्या लगता है, क्या मैं भी, हमारे पिता-भाई सभी मर्द कमीने हैं? उन्होंने मेरा दिल बहलाने को भी पलकें नहीं झपकाईं। याद आया, जब बहनों की समस्याएं समझने, उन्हें सीख देने की कोशिश करता था तो अक्सर सुनना पड़ता था, आप नहीं समझोगे भइया, आप लड़के हो। यहां भी वही डायलॉग- तुम नहीं समझोगे...।
क्यों नहीं समझूंगा मैं, दूसरे ग्रह से आया हूं? इसी समाज में पला-बढ़ा हूं। बहरहाल, बहस करने की जगह मैंने ठान लिया, आज से खुद को महिला या लड़की समझकर अपने माहौल को आंकने की कोशिश करूंगा। इन तीन महीनों में ही मैं यह कहने को मजबूर हो गया- मर्द वाकई कमीने होते हैं, कुत्ते नहीं बल्कि भेड़िए। हां, इसके कुछ अपवाद हो सकते हैं, लेकिन अपनी मां, बहनों, बेटियों और दोस्तों की सलामती के लिए यही कहूंगा कि जब तक हालात नहीं बदलते, मुझ पर भी भरोसा मत करना।
इन तीन महीनों में देखा, हम मर्दों की दुनिया औरत के शरीर के इर्द-गिर्द घूमती है। हमारे चुटकुले, हमारी कुंठाएं, गॉसिप, हमारे बाजार यहां तक कि हमारी खबरें भी। हम इस हद तक निर्मम और संवेदनाहीन हो चुके हैं कि जिस शरीर से जन्म लिया, जब वही शरीर जीवन के अंकुरण की प्रक्रिया से हर महीने गुजरता है तो उस दर्द का भी मजाक उड़ाने में नहीं हिचकते। मर्दों के लिए कमीने से भी गई-गुजरी गाली ढूंढनी पड़ेगी। किसी उम्र, पद, तबका, रंग, नस्ल, हैसियत का मर्द हो, इसका अपवाद नहीं।
 जमशेदपुर एक बेरहम नगर है, लेकिन सुबह 4:30 से रात 2:30 बजे तक मैंने इन्हें बेखौफ अंदाज में, खिलखिलाते, अपनी तन्मयता में अपनी-अपनी राह जाते देखा। इनमें से कई छोटे शहरों से या गांवों से आईं थीं, अधिकतर अकेली। कुछ परिवारों के साथ रहते हुए भी निपट अकेली थीं। लेकिन एक बात सभी में समान थी, सब अपने-अपने कंधों पर एक बोझ उठाए थीं, मां-बाप से यह कहतीं - हम अपने भाइयों से कहीं भी कम नहीं, तुमने एक लड़के की चाह में हमें नामुराद की तरह इस दुनिया में ढकेल दिया। हमारे पैदा होने पर खुशी तो दूर, नवजात शरीर को ढंकने के लिए साफ, नए कपड़े तक नहीं मिल सके। तब शायद हम यही सोचकर जिंदा रहे कि एक दिन तुम्हें बता सकें कि हम तुम्हारे वंश को बढ़ाने वाले लड़के से किसी सूरत में पीछे नहीं हैं। लेकिन वह यह कह रही थीं बिना किसी विज्ञापन के, किसी मौन योद्धा की तरह।
इस अंतराल में एक और ख्याल आया कि यह पूरी दुनिया मर्दपरस्त है, हमारी साइंस, मेडिकल जगत भी। एक दिन बस से जा रहा था, अचानक किसी खिड़की के पास से आवाज आई, इन्हें हमारी चिंता होती तो जैसे कॉन्डम वेंडिंग मशीन लगाई, वैसे ही सेनेटरी नैपकिन की वेंडिंग मशीन न लगा देते। मैं सन्न रह गया, सूरज की रोशनी में चमकता हुआ एक माथा, कच्चे दूध सी पवित्रता लिए भोली-सी आंखें यह सवाल पूछ रही थीं। सच है, यह ख्याल हम मर्दों को क्यों नहीं आया? शायद हर महीने मर्दों को यह तकलीफ झेलनी होती तो शायद साइंटिस्टों की पूरी जमात चांद पर पानी बाद में खोजती, सबसे पहले इस दर्द को कम करने में जुट जाती। चूंकि मर्द को दर्द नहीं होता, इसलिए औरत का शरीर नरक का द्वार है कह कर छुटकारा पा लेता है।
लेकिन लगता है कि हमारी जमात के अपराध इतने ज्यादा हैं कि विधाता से इतना ही कहना चाहता हूं, अगले जनम मोहे बिटुआ न कीजो, मुझे भी शैतान की बेटी ही बनाना ताकि मैं भी इस मौन संघर्ष का हिस्सा बन सकूं।

बुधवार, 3 मार्च 2010

सोशल नटवर्किंग साइट माने कि सामाजिक कार्यकर्ता

मेरा स्वभाव कुछ ज़्यादा ही शांत है। हालांकि मेरे खा़स मित्रों की सूची अच्छी खा़सी है। फिर भी मैं जल्दी से और हर किसी से बात करने में यक़ीन नहीं रखता। मेरी दोस्ती आराम से और पूरा समय लगाकर होती है। ये बात मैं यहाँ इसलिए बता रहा हूँ क्योंकि आज मुझे कुछ लोगों को दोस्त बनाने का सुझाव मिला है, वो भी मुफ़्त में। ये सुझाव मुझे फ़ेसबुक ने दिया है। नाम भर के लिए इस सामाजिक सेवा से जुड़ा मैं इसे महीने में एक बार ज़रूर खोलकर देख लेता हूँ। खा़सकर ये जाँचने के लिए कि कहीं पासवर्ड भूल तो नहीं गया। आज जब इसे देख रहा था तो साइड में एक खिड़की खुली दिखी। इसमें मेरे ही एक पुराने सहपाठी की तस्वीर थी, साथ में लिखा हुआ था कि ये आपके इन मित्र के मित्र है तो आप भी अब इनके मित्र बन जाइए। मुझे बचपन में पढ़ा हुआ गणित याद आ गया कि अ बराबर है ब के और ब बराबर है स के तो हिसाब के मुताबिक़ अ और स भी बराबर हुए। दोस्ती में गणित के नियमों को लागू कर फ़ेसबुक ने एक नई पहल की है। खैर, जब मैं इस खिड़की के अंदर घुसा तो देखा कि मित्र बनाने की ये सुझाव लिस्ट तो बहुत लंबी थी। इसमें तो कई मेरे सहकर्मी ही थे जिनसे मैं रोज़ाना मिलता हूँ। कई मेरे पुराने मित्र भी थे। बड़ी मज़ेदार लगी मुझे ये लिस्ट। हर सुझाव के साथ उन्हें दोस्त क्यों बनाया जाए इसकी वजह भी दी गई थी। ये इनका मित्र है इसलिए इससे मित्र बनाए, ये आपके साथ पढ़ा है इसलिए इसे मित्र बनाए, ये साथ काम करता है इसलिए और न जाने क्या-क्या... साइबर स्पेस में मित्र बनने के लिए न तो स्वभाव जानने की ज़रूरत है और न ही उनसे मिलने जुलने की। सबसे मज़ेदार बात ये थी कि इस लिस्ट में शामिल मेरे साथ पढ़े कुछ लोगों से मेरी कॉलेज के वक़्त में ही अनबन हो गई थी। अब मैं खोज रहा हूँ फ़ेसबुक में बैठे उस सज्जन का ई-मेल जिसने मुझे ये दोस्त सुझाए हैं। मैं उसे ये कहना चाहता हूँ कि भाई साब आप हमारे लिए इतने परेशान न हो हम ख़ुद ही दोस्त बना लेगे। वैसे, क्या ये सामाजिक कार्यकर्ता दुश्मनों की लिस्ट भी तैयार करते हैं...

देश की खाद्यान्न समस्या को सुलझाता फ़ेसबुक...

हमारा देश गांवों में बसता है। किसान हमारे देश का आधार है। खेती करना कुछ दिनों पहले तक मुझे बहुत ही कठिन काम लगता था। लेकिन, कुछ दिनों से मैं देख रही हूँ कि ये तो बहुत ही आरामदायक काम है। एसी रूम में कम्प्यूटर के सामने बैठेकर बस माऊस से खेत उगाते जाओ। कभी-कभी गाय का दूध भी दुह सकते हैं। मैं बात कर रही हूँ फ़ार्म विला नाम के नए खेल की। ये खेल शायद फे़सबुक के ज़रिए खेला जाता है। फ़ेसबुक मुझे बहुत ही कठिन चीज़ लगती है। मेरा अकाऊन्ड ज़रूर है पर उसे हैन्डल कैसे किया जाए ये सर के ऊपर से जाता है। खैर, मेरी अज्ञानता की बात अलग करके बात ये कि फ़ेसबुक न सिर्फ़ हमारे समाज को और सामाजिक बना रहा है बल्कि आज के युवाओं को खेती की ओर मोड़ भी रहा हैं। मेरे आसपास मौजूद लगभग हरेक इंसान रोज़ाना भगवान के पाठ की तरह फ़ेसबुक पर लागिन भी करता हैं और खेती शुरु कर देता हैं। मेरे एक साथी ने बताया कि कल रात उसके खेत में बर्फ गिर गई। एक के खेत में जानवर घुस गए थे। इस खेल को खेलनेवाले इसे इतनी गंभीरता से लेते हैं कि कोई अंजान अगर इनकी बातें सुने तो लगेगा कि भाई साहब का सच में कही कोई खेत है जहाँ बर्फ पड़ गई हैं। कभी गांव ना गए मेरे इन साथियों को इतनी तन्मयता से कम्प्यूटर पर खेती करते देख कई बार लगता है कि ये अनाज वर्चुअल ना होकर असल होता। हमारे देश की खाद्यान्न समस्या का हल कितना आसान हो जाता। अगर ऐसा ना भी हो पाए तो भगवान करें कि आगे चलकर हम ही वर्चुअल हो जाए...