मंगलवार, 29 दिसंबर 2009

ठंड से ठिठुर रही जिंदगी


--'नहीं तो भूखे मरते'---अपने गांव को कौन नहीं चाहता, अगर वह वहीं रहती तो भूख से मर जाती, सो टाटा चली आयी : आशा-

अशोक सिंह, जमशेदपुर : जब सूरज डूबता है तो सारी दुनिया सो जाती है, सपनों में खो जाती है लेकिन एक दुनिया ऐसी भी है जो रात के अंधेरों में भी चलती है।शहरों की रात की जिन्दगी में किसकी रुचि नहीं होती। इसीलिए सुदूर गांव में रहने वाले लोगों में जिज्ञासा बनी रहती है कि जमशेदपुर में रात कैसे कटती होगी। लेकिन कटु सत्य यह है कि यहां कुछ ऐसे तबके के लोग हैं, जिनकी तमाम जिंदगी फुटपाथ पर ही गुजर जाती है। जेठ की दोपहर हो या फिर माघ-पूस का जाड़ा, उन्हें तो फुटपाथ पर ही रात गुजारनी होती है। गर्मी में तो कोई परेशानी नहीं होती पर सर्दियों में रात काटना उनके लिये दुष्कर हो जाता है। आज जब ठंड अपने चरम पर है तो इन दिनों चल रही पछुआ हवा उनकी जिंदगी को ठिठुरा रही है।स्टेशन सबसे बड़ा आशियानारोशनी से नहाये इस शहर में फुटपाथ पर रहने वाले सबसे ज्यादा रेलवे स्टेशन के आसपास के फुटपाथों पर मिलेंगे। इसके बाद मानगो बस स्टैंड, साकची गोलचक्कर व बिष्टुपुर में लोग रात में बंद दुकानों के सामने सोते मिल जायेंगे। यहां दूर-दराज गांवों से आ कर लोग फुटपाथ को आशियाना बना लेते हैं। क्योंकि स्टेशन व आसपास में भीख मांगकर इनकी रोजी-रोटी चल जाती है। ऐसी ही एक महिला आशा अपने नौ बच्चों के साथ स्टेशन के नजदीक फुटपाथ पर रहती है। इसके सभी बच्चे स्टेशन पर यात्रियों से भीख मांगते हैं। यह पूछे जाने पर कि वह उड़ीसा के बारीपदा से जमशेदपुर क्यों आयी, वह कहती है कि अपने गांव को कौन नहीं चाहता। अगर वह वहीं रहती तो भूख से मर जाती। इसीलिए जमशेदपुर चली आयी।असुरक्षित महिलाएंदूर-दराज के गांवों से आयी महिलाएं अपने आप को काफी असुरक्षित मानती हैं। अपनी बेटी के इलाज के लिए बहरोगाड़ा से आयी एक महिला ने एमजीएम अस्पताल के सामने फुटपाथ पर ही किसी तरह रात गुजार दी। एमजीएम में इलाज के लिए जिले के बाहर से भी लोग आते हैं। गरीबों के लिए यहां आखिरी विकल्प होता है। इस अस्पताल के सामने फुटपाथ पर मरीजों के रिश्तेदार ठंड में भी ठिठुरते मिल जायेंगे। दैनिक जागरण की 'पहल'शहर में दरियादिल लोगों की भी कमी नहीं है। इन दिनों जब शहर में पारा लुढ़का हुआ है तो दैनिक जागरण ने समाजिक सरोकार के तहत फुटपाथ पर ठंड से ठिठुरते गरीबों को कंबल व गर्म कपड़े बांटकर उन्हें राहत पहुंचाने का प्रयास किया है।

दूसरी पत्नी को मिल सकती है अनुकंपा नियुक्ति-

19nov2009 दैनिक जागरण पेज १७
दूसरी पत्नी को मिल सकती है अनुकंपा नियुक्ति-
सुप्रीम कोर्ट ने खारिज की कर्नाटक सरकार की अपील
नई दिल्ली, प्रेट्र : सुप्रीम कोर्ट ने व्यवस्था दी है कि किसी व्यक्ति की मौत के बाद उसकी दूसरी पत्नी भी अनुकंपा के आधार पर सरकारी नौकरी पाने की हकदार है, बशर्ते पहली पत्नी इसके लिए राजी हो। न्यायाधीश मार्कडेय काटजू और आर.एम. लोढ़ा की पीठ ने सरकार से पूछा कि दोनों पत्‍ि‌नयों के बीच यदि आपसी सहमति है तो आप कौन होते हैं इसका विरोध करने वाले? आप इससे क्यों परेशान हैं जब पति की मौत के बाद एक पत्‍‌नी अनुकंपा के आधार पर नौकरी पाना चाहती है और दूसरी मौत की वजह से मिलने वाला मुआवजा पाना चाहती है? यह कहते हुए पीठ ने कर्नाटक सरकार की अपील ठुकरा दी। पीठ ने हिंदू विवाह अधिनियम के जुड़ी सरकार की उस दलील को खारिज कर दिया जिसमें कहा गया कि प्रावधान के मुताबिक व्यक्ति दूसरी शादी नहीं कर सकता, इसलिए कथित दूसरी पत्‍‌नी सिर्फ पहली पत्‍‌नी के साथ समझौता कर अनुकंपा के आधार पर नियुक्ति पाने का दावा नहीं कर सकती। अदालत ने आ‌र्म्ड रिजर्व पुलिस के हवलदार जी. हनुमंत गौड़ा की दूसरी पत्‍‌नी लक्ष्मी को नौकरी देने पर विचार करने का निर्देश दिया। गौड़ा की पहले अनुसुइया से शादी हुई थी। बाद में गौड़ा ने लक्ष्मी से भी शादी कर ली। 12 अक्टूबर 1988 को गौड़ा की मौत के बाद दोनों के बीच संपत्ति को लेकर कानूनी लड़ाई शुरू हो गई। मामला जब कर्नाटक हाई कोर्ट तक पहुंचा तो दोनों के बीच नौकरी और अन्य लाभ पाने पर सहमति बन गई।

गुरुवार, 17 दिसंबर 2009


मनमौजी मजनुओं की मौज
-पिकनिक का मौसम बन रहा बहाना-
अशोक सिंह, जमशेदपुर : लौहनगरी में इन दिनों मनमौजी मजनुओं की मौज है। झारखंड के सर्वाधिक फैशनेबल माने जाने वाले शहर में कॉस्मोपोलिटन कल्चर पसरता जा रहा है। मेट्रो की तर्ज पर डेटिंग व फ्रेंडशिप के नाम पर बढ़ता खुलापन। दिसंबर माह के अंत में पिकनिक का समय होता है तो इनकी बहार ही बहार है। जमशेदपुर में टाटा स्टील प्रबंधन की कृपा से पार्क व मनोरम स्थलों की कमी नहीं है। अक्सर लोग साप्ताहिक छुट्यिों में सपरिवार इसका लुत्फ उठाते हैं लेकिन इन दिनों पार्क लव ब‌र्ड्स से भरे मिलते हैं। जुबली पार्क के हर झुरमुट व पेड़ की ओट दिन शुरू होते ही भरने लगते हैं। जूलाजिकल पार्क का नजारा तो और खुलापन लिये होता है। मनमौजी मजनुओं के लिए तो यह काफी सुरक्षित स्थन है। पैसे देकर टिकट खरीदा और जबतक चाहे, 'जिस तरह' चाहा, पार्क के कोनों का भरपूर उपयोग कर लिया।पर्यटन स्थल डिमना भी इन दिनों खूब रंगत लिये हुये है। टूरिस्टों की संख्या कम नवोदित मजनुओं की संख्या काफी देखने को मिल रही है। गर्म पाकेट वाले रईसजादों के लिए जमशेदपुर के हाईवे लांग-ड्राइव के लिए खूब पसंदीदा स्थल हैं, ऊपर से सड़क के किनारे होटल-मोटल-ढाबा सोने पर सुहागा। जिस किसी होटल-मोटल में चले जाएं, दर्जनों की संख्या में प्रेमी जोड़े चोंच लड़ाते मिल जाएंगे। यहां तक कि स्कूलों के बच्चे भी। इन सब हरकतों को स्थानीय प्रशासन बिल्कुल नजरअंदाज किये हुये है। शायद किसी बड़ी घटना का इंतजार है।

मंगलवार, 15 दिसंबर 2009

अपना गम छिपा औरों को हंसा रहा छऊ


--वैश्विक पहचान वाले लोकनृत्य का राजनीति भी कर रही इस्तेमाल---- संरक्षण व विकास के लिए नहीं हो रहा सरकार से कोई काम ------
अशोक सिंह, जमशेदपुर : खरकइ नदी के तट पर बसा है सरायकेला। भले ही यह छोटा शहर हो, मगर इसकी ख्याति विश्व के कोने कोने तक है। आखिर क्यों? यह सवाल यदि आपके भी जेहन में आये तो इसका सरल जवाब है छऊ नृत्य। जी, हां। इसी छऊ नृत्य ने सरायकेला को दी है वैश्विक पहचान। और, आजकल का समय तो चुनाव का है। इस बार चुनाव प्रचार में भी छऊ नृत्य का सहारा लिया जा रहा है। मगर इस नृत्य कला का और विकास कैसे होगा? कलाकारों की दशा कैसे सुधरेगी? इसकी चिंता किसे व कितनी है? यदि आपकी संवेदना को भी ये या इन जैसे दूसरे सवाल झकझोर रहे हों तो हम आपको ले चलते हैं सरायकेला की सड़कों पर। आपको मिलाते हैं एक रिक्शाचालक से। जब वह छऊ नृत्य पेश करता है तो लक्जरी वाहनों में जिन्दगी के सफर का मजा लेने वाले तालियां बजाते हैं, परन्तु जब वही कलाकार सड़क पर रिक्शा खींचता है तो सम्मान के बदले मिलता अपमान, बाह्य के साथ आंतरिक भी। सरायकेला छऊ का इतिहास बहुत पुराना रहा है। यहां की जीवन पद्धति से लेकर संस्कृति एवं आस्था से यह इस कदर जुड़ा हुआ है कि ब्रिटिश राज में हरेक साल छऊ नृत्य महोत्सव के आयोजन के लिए शासन सहयोग करता था। देश आजाद होने के बाद भारत में भाषा के आधार पर राज्यों के विलय की प्रक्रिया शुरू हुई थी तो तत्कालीन सरायकेला राजघराने ने महोत्सव आयोजन के लिए भारत सरकार से हरेक साल आर्थिक सहयोग का करार किया था। राजपाट के एवज में छऊ। लेकिन कितनी बड़ी विडंबना है कि झारखंड में 'अपना राज' कायम होने के बाद व्यावहारिक अर्थो में शासन ने छऊ को बेगाना कर दिया। हालांकि सरायकेला जिला प्रशासन द्वारा हरेक साल छऊ महोत्सव का आयोजन जरूर किया जा रहा मगर यह तपती दोपहरी में बूंद के समान है। सरायकेला रियासत के तत्कालीन राजा कुवंर विजय प्रताप सिंहदेव ने वर्ष 1920 में छऊ नृत्य को गांवों से निकालकर शहर में लाये थे। छऊ नृत्य कला के संरक्षण के लिए राज्य सरकार ने वर्ष 1960-61 में एक केन्द्र की स्थापना की। यहां के प्रशिक्षण केन्द्र से निकले कलाकारों ने राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय कला के क्षेत्र में छऊ नृत्य को लोकप्रिय बनाने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इस केन्द्र से निकले कलाकारों ने सोवियत संघ, जापान, दक्षिण कोरिया, इंडोनेशिया, मलेशिया में कई सांस्कृतिक कार्यक्रम पेश किये।आज से सौ साल पहले तक छऊ नृत्य के पारंपरिक नियम कायदे थे। जिनका आज भी पालन किया जाता है। पेड़ों की टहनियों को शरीर में बांधकर छऊ नृत्य करते हैं। इससे पहले तक सरायकेला में छह अखाड़ों में छऊ नृत्य हुआ करता था। कुवंर विजय प्रताप सिंहदेव ने छऊ नृत्य को मार्शल आर्ट व क्लासिक डांस के साथ सामंजस्य कराया था। हालांकि जो छऊ नृत्य राजपरिवार के लोग करते थे उस नृत्य को प्रजा नहीं करती थी। छऊ नृत्य को आगे बढ़ाने में सुधीरेन्द्र नारायण सिंहदेव ने काफी अहम भूमिका निभाई। इसके लिए उन्हें पद्मश्री से नवाजा गया था। इसके अलावा स्वर्गीय केदार नाथ साहू को भी पद्मश्री पुरस्कार मिला था। कला केन्द्र में दस से बारह की संख्या में छात्र-छात्राएं छऊ नृत्य की शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं। छऊ नृत्य की तीन शैली1। सरायकेला शैली : इस शैली में मुखौटा लगाया जाता है जो नृत्य की भाव-भंगिमा को प्रदर्शित करने वाला होता है।2. खरसांवा शैली : इस शैली में मुखौटा नहीं होता है। इसमें सिर्फ कला का प्रदर्शन किया जाता है।3. मानभूम शैली : इस शैली में मुखौटा बहुत बड़ा होता है। इस शैली के कलाकार बहुत कलाबाजी करते हैं।

शुक्रवार, 4 दिसंबर 2009

वहां चांद की तैयारी यहां बैलगाड़ी की सवारी


--कोल्हान में पिछड़ेपन, अशिक्षा व गरीबी है नक्सलवाद का सबसे बड़ा कारण-----------------------
अशोक सिंह, जमशेदपुर : हम चांद पर कदम रख चुके हैं। हमारा चिकित्सा विज्ञान प्रकृति को चुनौती दे रहा है। आइटी के क्षेत्र में हमारे देश को अव्वल माना जाता है। हम रोज विकास के क्षेत्र में नई ऊंचाई भी छू रहे है। लेकिन सिक्के का दूसरा पहलू भी है। इसका सबसे अच्छा उदाहरण कोल्हान में देखने को मिलता है जहां के सैंकड़ों गांव आज भी विकास से कोसों दूर हैं। यदि यह कहा जाए कि इन गांवों को लोगों को विकास का अर्थ ही नहीं मालूम तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होनी चाहिए। कोल्हान की आधी से ज्यादा आबादी बुनियादी सुविधाओं तक से महरूम है। आज भी कोल्हान में सैंकड़ों गांव ऐसे हैं जहां के किसान कृषि कार्य में ट्रैक्टर नहीं बल्कि बैलगाड़ी का इस्तेमाल करते हैं।इस इलाके में पिछड़पन इतना ज्यादा है कि इसे जानने के लिए आपको यह भी जानना पड़ेगा कि यहां के लोगों को असंवैधानिक कार्यो के लिए बहला-फुसला लिया जाता है। क्षेत्र में अशिक्षा की जकड़ इतनी मजबूत है कि लोग बदलाव के बारे में सोच भी नहीं सकते। रही सही कसर गरीबी पूरी कर दे रही। यहां के गरीब आदिवासी चाहकर भी आगे नहीं बढ़ पाते हैं। इलाके में महिलाओं की स्थिति तो और भी खराब है। इस क्षेत्र की महिलाओं को पुरुषों से भी ज्यादा काम करना पड़ता है। कई घरों में तो चूल्हा महिलाओं की कमाई से ही जलता है। गरीबी का आलम यह है कि बच्चों को भी हाथ बंटाना पड़ता है। गरीबी, अशिक्षा व पिछड़ेपन का दंश तब और जहरीला हो जाता है जब अधिकांश घरों के पुरुष हडि़या पीकर 'टून' रहते है। कोल्हान के गंवई इलाकों में प्रवेश करने पर साफ सुथरा पीने को पानी नहीं तो नहीं मिलेगा लेकिन हडि़या पीने को जरूर मिल जायेगी। कोल्हान के ग्रामीण इलाकों में हडि़या नामक शराब को खूब व खुले रूप में सेवन किया जाता है। इस समय धान की कटाई लगभग पूरी हो चुकी है। लोग धान की फसल को बैलगाड़ी पर लादकर ढ़ुलाई करने लगे हैं। जिनके पास बैलगाड़ी नहीं है है वे अपने सिर पर धान के बंडल को ढोते हैं। समाज विज्ञानियों का मानना है कि इसी तरह का पिछडपान, अशिक्षा, गरीबी व मजबूरी नक्सलवाद को पनपने व उसे बढ़ाने में बड़ी भूमिका निभाती है क्योंकि नक्सली गरीब लोगों को हसीन सपना दिखाकर, उनके पिछड़ेपन व गरीबी की कहानी को दर्दनाक तरीके के पेश करके ही उन्हें अपने पाले में करते हैं। कोल्हान में नक्सलवाद के विस्तार का असली कारण भी तो यही है।

मंगलवार, 1 दिसंबर 2009

नक्सली बंदी के दिन सुरक्षाकर्मियों से बातचीत करते अशोक







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36 घंटे बाद भी नहीं हटा पेड़




-पुलिस के जवान भी नक्सली खौफ के साये मेंआमझोर से लौटकर


अशोक सिंह : पूरे पटमदा में नक्सली खौफ सिर चढ़कर बोल रहा है। पुलिस चाहे जो दावे करे, फील्ड में वह अपनी मांद में ही घुसे रहने में खैरियत समझती है। हालात को इससे भी समझा जा सकता है कि आमझरा में बम विस्फोट के 36 घंटे बाद भी सड़क पर पेड़ ज्यों का त्यों पड़ा हुआ है। पुलिस के जवान पेड़ को हाथ लगाने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे। पुलिस वाले अपने कैंप में ही जमे हैं। सीआरपीएफ ने मोर्चा संभाला भी है तो घटनास्थल से दूरी बनाकर।क्षेत्र का दौरा करने के बाद जानकारी मिली कि पुलिस को नक्सलियों की बंदी के समाप्त होने का इंतजार है। इसके बाद ही पेड़ हटाने का काम शुरू होगा। क्षेत्र के लोगों की दिनचर्या रुक गयी है। सड़कों पर सिर्फ साइकिलें मोटरसाइकिलें ही नजर रही हैं। चार पहिया वाहनों का परिचालन पूरी तरह ठप है। वैसे जमशेदपुर से पटमदा की ओर जाने वाली सड़क पर 11 किलोमीटर तक स्थिति सामान्य है लेकिन भादुडीह वन चेकनाका से आगे बढते ही नक्सलियों की बादशाहत साफ दिखती है। सुनसान सड़कें और सड़कों पर गश्त करते इक्का-दुक्का सीआरपीएफ जवान। जिस पुल को नक्सलियों द्वारा उड़ाए जाने का सर्वाधिक खतरा है, वहां सिर्फ एक सीआरपीएफ जवान बैठा मिला। बामनी चौक पर पुलिस वाले रोकते हैं। आगे जाने से मना करते हैं। बावजूद इसके आगे बढ़ने पर ग्राम पंचायत कुईयानी में सीआरपीएफ कैंप है। कुछ ही दूरी पर बोड़ाम थाना है। थाने की छत पर से दो पुलिस वालों ने मोर्चा संभाल रखा है तो घटनास्थल से आधा किलोमीटर पहले चामटा पुलिस कैंप में जवानों की चहलकदमी है। खास बात यह कि यह चहलकदमी कैंप के बाहर नहीं है। आगे बढ़ने पर आमझोर प्राथमिक विद्यालय के सामने करीब 500 सौ की संख्या में स्थानीय लोगों की बैठक चल रही थी। थोड़ी ही दूर पर कल की घटना का जीवंत गवाह पेड़ गिरा पड़ा है। यहां आसपास पुलिस की परछाई भी नहीं है।

दलमा क्षेत्र को लालगढ़ बनाने की तैयारी
-छत्रधर महतो बनने की फिराक में जालन मार्डीजमशेदपुर : पश्चिम मेदिनीपुर के लालगढ़ में जिस तरीके से माओवादियों ने पुलिस संत्रास प्रतिरोध समिति को आगे कर अपनी योजना को मूर्त रूप दिया, ठीक उसी तर्ज पर दलमा जोन में नक्सलियों ने तैयारी करनी शुरू कर दी है। पहले चरण में उग्रवादियों में गांव-गांव घूमकर ग्रामीणों को एकजुट करना शुरू कर दिया है। पुलिस-प्रशासन के खिलाफ गांव वालों का 'ब्रेनवाश' किया जा रहा है। परिणाम, पूरे क्षेत्र में पुलिस के खिलाफ हल्की ही सही आवाज बुलंद होने लगी है। बोड़ाम थाना क्षेत्र के आमझोर में हुई नक्सली वारदात के बाद स्थानीय लोगों की पुलिस के खिलाफ एकजुटता इस बात का प्रमाण है कि आने वाले दिनों में पुलिस को परेशानियों का सामना करना पड़ सकता है। आज आमझोर बम विस्फोट घटनास्थल से मात्र पांच सौ मीटर की दूरी पर लगभग पांच सौ की संख्या में महिला-पुरुष एकजुट हुए और पुलिस के प्रति जबरदस्त आक्रोश का प्रदर्शन किया। ऐसी बात भी नहीं कि आमझोर में जुटे ग्रामीणों में वे शोकसंतप्त थे जिन्होंने कल की घटना में अपने परिजनों को खो दिया है। साफ है कि ग्रामीणों में पुलिस के खिलाफ उभरी नाराजगी 'स्पांटेनियस' है। ग्रामीणों का प्रतिनिधित्व गांव गणराज्य परिषद के जालन मार्डी कर रहे हैं। वैसे तो परिषद सामाजिक संगठन है लेकिन इसने गांवों में अच्छी-खासी पैठ बना रखी है। अचरज की बात यह कि ग्रामीणों की इस जुटान से पांच सौ मीटर की दूरी पर स्थित पुलिस कैंप अनजान-अनभिज्ञ है। पूर्वी सिंहभूम जिले से सटी बंगाल की सीमा पर नक्सलियों की मजबूत पकड़ है। दलमा क्षेत्र में खोखरो, गुमानडीह, कोयरा, सोमाडीह, चामटा, सासांगडीह, पहाड़पुर, कुईयानी, बोड़ाम, डांगरडीह, पाथरडीह, आमझोर, झिंझिरगोड़ा, पोड़ाखुंटा, बड़दह, धबनी, सुतरीउली, डांगार, डांगाडुंग, मुचीडीह, आंधरझोर, केंदाडीह, राधमागोड़ा, बेलगोड़ा, चिमटी, बोंटा भादुडीह आदि ऐसे गांव हैं, जहां नक्सलियों ने अपना साम्राज्य स्थापित कर रखा है। नक्सली गतिविधियों को ध्यान में रखते हुए जिला प्रशासन ने चुनाव में 41 पोलिंग बूथ को स्थानांतरित कर दिया था। दलमा दस्ता दलमा के तराई में स्थित घुसित झरना गुड़ाबांधा दस्ता अपने क्षेत्र में मूवमेंट करता रहता है जबकि बेलपहाड़ी दस्ता वर्तमान में अपना क्षेत्र छोड़ कर लालगढ़ में कैंप कर रहा है।