अशोक सिंह, जमशेदपुर
वर्षों का सपना सच होने जा रहा था। मन में उमंग-उल्लास के साथ उत्साह। साथ में कोल्हान के गांवों की तस्वीर बदलने की तमन्ना। हर गांव की हो सरकार, गांधीजी के इस सपने को साकर करने का दिन रहा शनिवार। सुबह हल्की-फुल्की ठंड। उजाला जैसे-जैसे बढ़ा, ठंड गायब। फिर क्या था, हर एक मतदाता चल पड़ा मतदान केंद्रों की ओर। ढेरों सपनों के साथ पूरे जोश, जज्बे व जुनून के साथ 32 साल बाद लोगों ने नई इबारत लिखी। ग्रामीण क्षेत्रों के बूथों पर युवाओं व महिलाओं की लंबी-लंबी कतारें गांव की सरकार बनाने को बेताब थीं। आत्मविश्वास से लबरेज युवा मतदाता बदलाव के लिए उतावले दिखे। परिणाम, कोल्हान में 70 फीसदी मतदान रहा।
पश्चिम सिंहभूमजिले के पांच प्रखंडों में पंचायत चुनाव के प्रथम चरण में ओवर आल 68.41 प्रतिशत मतदान हुए। चाईबासा भाग-1 में 68.2 प्रतिशत, भाग दो में 69.1 प्रतिशत, हाटगम्हरिया में 66.4 प्रतिशत वोट पड़े। जगन्नाथपुर-1 में 61.5 प्रतिशत, जगन्नाथपुर-72.0 प्रतिशत, टोंटो, 63.0 प्रतिशत, मझगांव 58.3 प्रतिशत व कुमारडुंगी 62.2 मतदान हुए। जिले के लोगों में वोट देने को ले गजब का उत्साह था। पश्चिम सिंहभूम में सबसे ज्यादा महिलाओं व युवाओं की कतार दिखाई पड़ी। नक्सल प्रभावित इलाका होने के बावजूद लोग जमकर मतदान में भाग लिए। अति नक्सल प्रभावित प्रखंडों में व्यापक सुरक्षा व्यवस्था के दावे फेल हो गए। जिले के अतिनक्सल प्रभावित प्रखंड के सुदूर गावों में सुरक्षा बलों की तैनाती नहीं दिखी। शहर से सटे बूथों पर ही जवान दिखाई दिये। टोंटो के एक पंचायत में मतपेटी नहीं खुलने से मतदान देर से शुरू हुआ। जगन्नाथपुर के दो-तीन बूथों पर छिटपुट हाथापाई हुई। विस व लोस से बिल्कुल अलग दिखा गांवों का माहौल।
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पूर्वी सिंहभूम
जिले में करीब 65.5 प्रतिशत मतदान हुआ। यहां के दो प्रखंडों पोटका में 75 प्रतिशत व मुसाबनी में 63 प्रतिशत मतदान हुआ। पूर्वी सिंहभूम जिले के दोनों हीं प्रखंड अति नक्सल प्रभावित क्षेत्र माने जाते हैं लेकिन यहां के मतदाताओं ने इस महापर्व में जमकर भाग लिया। महिलाएं सुबह से ही अपने घरों के काम निपटाकर महापर्व में भाग लेने के लिए निकल चुकी थीं। पूर्वी सिंहभूम के हल्दीपोखर पंचायत के माड़कू बूथ पर मतपत्रों में गड़बड़ी से अव्यवस्था की स्थिति उत्पन्न हो गई। इस पंचायत पर दोबारा मतदान होने की संभावना है। कतारबद्ध कराने के लिए पुलिस को हल्का बल प्रयोग करना पड़ा। मतदान के दौरान सुरक्षा व्यवस्था पुख्ता थी। लोग जोश के साथ मतदान में भाग लेना चाह रहे थे। हालांकि ग्रामीण इलाकों में शहर से सटे इलाकों के अपेक्षा वोट देने वालों की संख्या ज्यादा दिखी।
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सरायकेला-खरसांवा
जिले के चार प्रखंडों ईचागढ़, कुकडू, नीमडीह व चांडिल में ओवर आल 79 प्रतिशत मतदान हुआ। ईचागढ़ में 81 प्रतिशत, कुकडू में 75 प्रतिशत, नीमडीह व चांडिल में 80 प्रतिशत का आंकड़ा रहा। इस दौरान कई पंचायत के बूथों पर बिना सुरक्षा बल के ही मतदान हुए। बाहर से मतदान कराने गए मतदानकर्मी काफी सहमे रहे। हालांकि मतदान के दौरान अधिकांश युवाओं में वोट डालने को उत्सुकता देखी गई। जिले के नीमडीह व चांडिल प्रखंड अति नक्सल प्रभावित क्षेत्र माने जाते हैं। यहां सुरक्षा के व्यापक बंदोबस्त किए गए थे। इस दौरान पंचायत चुनाव के लिए हुए मतदान में महिलाओं ने भी बढ़चढ़ कर हिस्सा लिया। हालांकि लोगों में थोड़ी अफरा-तफरी की स्थिति जरूर रही। लेकिन समय जैसे-जैसे बढ़ता गया, लोग ट्रैक पर आते गये। इस दौरान युवा मतदाताओं में काफी उत्सुकता देखी गई। जिले में पंचायत चुनाव के दौरान कहीं भी अप्रियघटना व हिंसा की खबर नहीं है।
रविवार, 28 नवंबर 2010
बुधवार, 17 नवंबर 2010
छऊ नृत्य भारत की 'अतुल्य धरोहर
-भारत की तीन विधाएं यूनेस्को की सूची में शामिल
-सरायकेला छऊ ने झारखंड का मान बढ़ाया : शशधर आचार्य
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अशोक सिंह, जमशेदपुर : सरायकेला छऊ समेत भारत के तीन मानवता की अमूर्त सांस्कृतिक विरासत को यूनेस्को द्वारा अतुल्य धरोहर की सूची में शामिल किया गया है। जिसमें राजस्थान के 'कालबेलियाÓ लोक गीत व केरल के मुदियतू को यूनाइटेड नेशन साइंनटिफिक एंड कल्चरल आर्गनाइजेशन (यूनेस्को) की विश्व विरासत की इस वर्ष की सूची में जगह मिली है। भारत सरकार ने सात प्राकृतिक स्मारकों, स्थलों व कलाओं को अक्टूबर 2009 में अतुल्य धरोहर (इनटांजिबल हेरिटेज) के लिए यूनेस्को भेजा था। जिसका यूनेस्को ने मंगलवार को विधिवत घोषणा करते हुए कहा कि भारत की तीन कलाएं छऊ नृत्य, कालबेलिया व मुदियतू अतुल्य धरोहर है।
-सरायकेला छऊ ने झारखंड का मान बढ़ाया : शशधर आचार्य
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अशोक सिंह, जमशेदपुर : सरायकेला छऊ समेत भारत के तीन मानवता की अमूर्त सांस्कृतिक विरासत को यूनेस्को द्वारा अतुल्य धरोहर की सूची में शामिल किया गया है। जिसमें राजस्थान के 'कालबेलियाÓ लोक गीत व केरल के मुदियतू को यूनाइटेड नेशन साइंनटिफिक एंड कल्चरल आर्गनाइजेशन (यूनेस्को) की विश्व विरासत की इस वर्ष की सूची में जगह मिली है। भारत सरकार ने सात प्राकृतिक स्मारकों, स्थलों व कलाओं को अक्टूबर 2009 में अतुल्य धरोहर (इनटांजिबल हेरिटेज) के लिए यूनेस्को भेजा था। जिसका यूनेस्को ने मंगलवार को विधिवत घोषणा करते हुए कहा कि भारत की तीन कलाएं छऊ नृत्य, कालबेलिया व मुदियतू अतुल्य धरोहर है।
मूल रूप से सरायकेला निवासी छऊ गुरू शशधर आचार्य ने दिल्ली से फोन पर बताया कि गुरुओं की वर्षों की कड़ी मेहनत व संघर्ष के बाद विश्व के अतुल धरोहरों में झारखंड के छऊ नृत्य को शामिल होना गौरव की बात है। उन्होंने बताया कि भारत संगीत नाट्य अकादमी के सचिव जैन कस्तुवार के नेतृत्व में भारत सरकार ने इन कलाओं को यूनेस्को भेजा था। नेश्नल स्कूल आफ ड्रामा में कार्यरत शशधर आचार्य ने छऊ पर दस मिनट का एक फिल्म बनाया था। जिसका आर्टिस्टिक डायरेक्टर संगुना भुटानी थी। उन्होंने बताया कि पूरे विश्व से इनटांजिबल हेरिटेज के 54 नोमिनेशन हुए थे। जिसमें भारत की तीन कलाओं को अतुल्य धरोहर माना गया। इसकी सूचना यूनेस्को की बेवसाईट पर जारी हो चुकी है। उन्होंने बताया कि भारत संगीत नाट्य अकादमी के सचिव व जमशेदपुर निवासी जैन कस्तुवार ने भी छऊ के लिए काफी मेहनत किया है।
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छऊ नृत्य : झारखंड, उड़ीसा व पश्चिम बंगाल के आदिवासी इलाकों में इसका काफी प्रचलन है। इस नृत्य में नकली मास्क पहनकर मार्शल डांस किया जाता है। उड़ीसा के मयूरभंज के पूर्व रियासत ने छऊ की तीन कलाओं सरायकेला छऊ, मयूरभंज छऊ व पुरुलिया छऊ को विकसित किया था। जिसमें सरायकेला छऊ आज अतुल्य धरोहर बना।
कालबेलिया : यह कला मूल रूप से राजस्थान के सपेरों की समुदाय में काफी प्रचलित है। इस कला के गीतों व नृत्यों के माध्यम से नागों का आह्वन किया जाता है। मुदियतू : यह धार्मिक नृत्य केरल में गर्मियों की फसलों की कटाई के बाद किया जाता है। संभत: यह कला 250 साल पुरानी है।
सोमवार, 8 नवंबर 2010
हे सूर्यदेव! आपकी अनुकंपा बनी रहे
-'नहाय-खायÓ के साथ शुरू होगी छठ पूजा
-पंचमी को लगेगा रसिया का भोग, फिर होगा 36 घंटे का अखंड उपवास
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सूर्य शक्ति का महापुंज है, उसके बिना सृष्टि की कल्पना भी असंभव है। इसीलिए अथर्ववेद में कहा गया है कि, 'हे सूर्यदेव! आप हमारी आयु दीर्घ करें, हमें कष्टों से रहित करें, हम पर आपकी अनुकंपा बनी रहे।Ó यही 'छठ पूजाÓ का सार भी है।
मूलत: बिहार, झारंखड और पूर्वी उत्तर प्रदेश का यह पर्व आज देहरादून समेत पूरे देश का लोक पर्व बन गया है। चूंकि यह पर्व छह-छह महीने में षष्ठी तिथि को अनुष्ठित होता है, शायद इसीलिए इसे छठ कहा गया। छठ की एक पूजा चैत्र के महीने में भी होती है, लेकिन कार्तिक मास की पूजा को ज्यादा लोक महत्व मिला। इस पर्व पर सफाई व पवित्रता का विशेष ध्यान रखा जाता है। चाहे वह घर हो या व्रत स्थल, गोबर से उसकी लिपाई की जाती है। तालाब, पोखर या नदी के किनारे घाट बनाकर उसे केला समेत अन्य पेड़ों की पत्तियों से सजाते हैं। घाट पर गीली मिट्टी से 'सिरसोप्ताÓ बनाकर उसमें सिंदूर, चावल, अघ्र्य सामग्री रखकर छठ मैया का ध्यान किया जाता है।
छठ पूजा आरंभ होती है 'नहाय-खायÓ से, जब व्रती घर की सफाई करने के बाद सात्विक भोजन कर जमीन पर सोते हैं। अगले दिन 'खरनाÓ पर सांध्य बेला में गुड़ के साथ साठी के चावल की खीर बनाकर केले के पत्ते में उसका भोग लगता है। षष्ठी की सुबह से ही डूबते सूर्य को अघ्र्य देने की तैयारी आरंभ हो जाती है। बिहारी महासभा देहरादून के अध्यक्ष सत्येंद्र सिंह ने बताया कि
अघ्र्य में मौसमी सब्जियोंं व फलों को बांस के सूप या मिट्टी के ढक्कन में सजाया जाता है। व्रती इस सजी हुई सुपली को लेकर पश्चिम दिशा में पानी में खड़े होकर सूर्य को नमन करते हैं। यह एक मात्र पर्व है, जब अस्त होते सूर्य की पूजा की जाती है। सूर्य अस्त होने के बाद ही व्रतधारी अपने घरों को लौटते हैं। अद्र्धरात्रि के बाद दोबारा स्नान के बाद नए वस्त्र धारण करके व्रती फिर से व्रतस्थल की ओर प्रस्थान करते हैं और प्रतीक्षा होने लगती है अघ्र्य देने के लिए सूर्याेदय की। सूर्य को अघ्र्य देने के बाद व्रती घर लौटकर घर के देवताओं को नमन करते हैं और शुरू होती है अदरक मुंह में डालकर व्रत खोलने की प्रक्रिया।
पखेव से छठ तक
दीवाली के छह दिन बाद यह व्र्रत सुनिश्चित किया गया है, जो एक तरह से अमावस्या के अगले दिन से ही प्रारंभ हो जाता है। इसे 'पखेवÓ कहते हैं। दूसरा दिन 'सरपनाÓ हुआ, जिसे भाईदूज भी कहते हैं। चौथे दिन को 'नहाय-खायÓ और पांचवें दिन को 'खरनाÓ कहा गया है। छठे दिन अस्ताचलगामी सूर्य को अघ्र्य देने की परंपरा है।
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-पंचमी को लगेगा रसिया का भोग, फिर होगा 36 घंटे का अखंड उपवास
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सूर्य शक्ति का महापुंज है, उसके बिना सृष्टि की कल्पना भी असंभव है। इसीलिए अथर्ववेद में कहा गया है कि, 'हे सूर्यदेव! आप हमारी आयु दीर्घ करें, हमें कष्टों से रहित करें, हम पर आपकी अनुकंपा बनी रहे।Ó यही 'छठ पूजाÓ का सार भी है।
मूलत: बिहार, झारंखड और पूर्वी उत्तर प्रदेश का यह पर्व आज देहरादून समेत पूरे देश का लोक पर्व बन गया है। चूंकि यह पर्व छह-छह महीने में षष्ठी तिथि को अनुष्ठित होता है, शायद इसीलिए इसे छठ कहा गया। छठ की एक पूजा चैत्र के महीने में भी होती है, लेकिन कार्तिक मास की पूजा को ज्यादा लोक महत्व मिला। इस पर्व पर सफाई व पवित्रता का विशेष ध्यान रखा जाता है। चाहे वह घर हो या व्रत स्थल, गोबर से उसकी लिपाई की जाती है। तालाब, पोखर या नदी के किनारे घाट बनाकर उसे केला समेत अन्य पेड़ों की पत्तियों से सजाते हैं। घाट पर गीली मिट्टी से 'सिरसोप्ताÓ बनाकर उसमें सिंदूर, चावल, अघ्र्य सामग्री रखकर छठ मैया का ध्यान किया जाता है।
छठ पूजा आरंभ होती है 'नहाय-खायÓ से, जब व्रती घर की सफाई करने के बाद सात्विक भोजन कर जमीन पर सोते हैं। अगले दिन 'खरनाÓ पर सांध्य बेला में गुड़ के साथ साठी के चावल की खीर बनाकर केले के पत्ते में उसका भोग लगता है। षष्ठी की सुबह से ही डूबते सूर्य को अघ्र्य देने की तैयारी आरंभ हो जाती है। बिहारी महासभा देहरादून के अध्यक्ष सत्येंद्र सिंह ने बताया कि
अघ्र्य में मौसमी सब्जियोंं व फलों को बांस के सूप या मिट्टी के ढक्कन में सजाया जाता है। व्रती इस सजी हुई सुपली को लेकर पश्चिम दिशा में पानी में खड़े होकर सूर्य को नमन करते हैं। यह एक मात्र पर्व है, जब अस्त होते सूर्य की पूजा की जाती है। सूर्य अस्त होने के बाद ही व्रतधारी अपने घरों को लौटते हैं। अद्र्धरात्रि के बाद दोबारा स्नान के बाद नए वस्त्र धारण करके व्रती फिर से व्रतस्थल की ओर प्रस्थान करते हैं और प्रतीक्षा होने लगती है अघ्र्य देने के लिए सूर्याेदय की। सूर्य को अघ्र्य देने के बाद व्रती घर लौटकर घर के देवताओं को नमन करते हैं और शुरू होती है अदरक मुंह में डालकर व्रत खोलने की प्रक्रिया।
पखेव से छठ तक
दीवाली के छह दिन बाद यह व्र्रत सुनिश्चित किया गया है, जो एक तरह से अमावस्या के अगले दिन से ही प्रारंभ हो जाता है। इसे 'पखेवÓ कहते हैं। दूसरा दिन 'सरपनाÓ हुआ, जिसे भाईदूज भी कहते हैं। चौथे दिन को 'नहाय-खायÓ और पांचवें दिन को 'खरनाÓ कहा गया है। छठे दिन अस्ताचलगामी सूर्य को अघ्र्य देने की परंपरा है।
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