बुधवार, 28 अप्रैल 2010

Ashok singh

Ashok singh

शनिवार, 10 अप्रैल 2010

चिठ्ठी भारत की, इंडिया को

डियर इंडिया

मैं भारत...पहचाना?
अब तो काफ़ी आना-जाना होता है आपका हमारी तरफ. सड़कें जो अच्छी हो गई हैं.....और हां, वो जो तीसरी और चौथी लेन देख रहें हैं न हाइवे पर, वो मेरी ही ज़मीन थी. सरकार ने हमें पीछे धकेल दिया जिससे आपको कोई परेशानी न हो.
अरे नहीं शिकायत कहां कर रहा हूं. इंडिया चमकता है तो हमें भी अच्छा लगता है. बस ज़रा रिमाइंड करा रहा था आपको कि वो जो ज़मीन ली थी आपने आठ साल पहले सड़कों के लिए, तब जिस टुकड़े का आपने दो हज़ार दिया था वो पचास हज़ार की हो गई है.
और जब मंत्रीजी कहते हैं इन्कलूसिव ग्रोथ की बात यानि हमें भी आपकी चमक में शामिल करने की बात तो हमें लगा कि अब जब सोना बरस रहा है तो थोड़ी बारिश इधर भी हो जाए. आख़िर ज़मीन हमारे बाप दादाओं की ही तो थी.
अब देखिए भगवान कृष्ण पवार को. गांव से तरबूज़ लेकर बेचने आते हैं भागते ट्रकों के सामने जान जोखिम में डालकर. जहां खड़े होते हैं इन्हीं की ज़मीन थी सड़क के किनारे. लेकिन तभी तक खड़े हो पाएंगे जब तक पांचवीं और छठी लेन का काम शुरू नहीं हो जाता.
कहते हैं रोज़ी रोटी के लिए कुछ तो करना ही पड़ेगा. जो ज़मीन तीन हज़ार में सरकार ने ली थी वो पचास की बिक रही है लेकिन अब हम क्या कर सकते हैं.
आप सोच रहे होंगे किस रोंदू से पाला पड़ा है. ख़ैर छोड़िए, कंट्रीसाइड कैसा लगा? अब सड़कें तो यूरोप अमरीका जैसी हैं, गांव का लुक हम कैसे बदलें.
वैसे हमारी झोपड़ी की दीवार का नया पेंट कैसा लगा. बारिश हो या गर्मी, ये पेंट ख़राब नहीं होते. बड़े अच्छे लोग हैं बेचारे. मुफ्त में पेंट कर जाते हैं बस उस पर लिख देते हैं एयरटेल, वोडाफ़ोन, आइडिया.
अब महेश मिराजकर का घर देखिए. बिल्कुल काली पीली टैक्सी की तरह. चकाचक. सीढ़ी, छत, खिड़की सब पीला और उस पर हर जगह काले से लिखा है आइडिया. और भलमनसाहत देखिए बेचारों की, एक हज़ार रूपए भी दिए, बस एक छोटा सा दस्तख़त करवा लिया कि किसी और को पेंट नहीं करने देना है.
वैसे भी जनाब हमें पहचानता कौन था. किसी को घर का पता पूछना होता था तो बताते थे पीपल के पेड़ के पास वाला घर. सड़क की वजह से पेड़ कट गया तो अता पता भी मुश्किल. अब शान से कहते हैं आइडिया वाला घर, दूसरा कहता है एयरटेल वाला. नाम, पहचान, अस्मिता ये सब बड़े लोगों के चोंचले हैं.
और कितने दिनों तक गोबर से लिपे-पुते घरों में रहते. समझता हूं उन्हें देखकर आपको कविताएं सूझती थीं, गांव गांव जैसा लगता था, लेकिन हमने सोचा इमेज विमेज को गोली मारो, चांस पर डांस करते हैं. सड़क के किनारे हैं तो घर बिलबोर्ड बन जाए तो क्या फ़र्क पड़ता है.
वैसे एक प्राब्लम वाली बात है. ये जो नई पीढ़ी आई है न, बात ही नहीं सुनती है. किसी को अब खेत पर नहीं काम करना है, सब आपकी तरह बनना चाहते हैं. सूटबूट में ऑफ़िस जाना है, सड़क के किनारे जो बड़ी बड़ी फ़ैक्ट्रियां आई हैं वहां काम करना है, कार में घूमना है, सोफ़े पर पांव फैलाकर 42 इंच के प्लाज़मा टीवी पर आईपीएल देखना है.
टेंशन वाली बात है इंडिया जी. अगर सबने खेती छोड़ दी तो आपको अब चावल, दाल, सब्ज़ी भी विदेशों से मंगानी होगी. बेहतर होगा ज़रा आप भी खेतीबाड़ी पर ध्यान दें.
वैसे भी आपकी इकॉनोमी इन्हीं की बदौलत निकल पड़ी है. अब आप 'हम दो हमारे दो' वाले परिवार के लिए एक लिटर की शैंपू खरीदते हैं, अब इन्हें भी ये सब चाहिए. तो पंद्रह-बीस लोगों के परिवार के लिए दस-दस मिलीलीटर के शैंपू के पाउच खरीदते हैं और आर्थिक तरक्की की गाड़ी में बूंद-बूंद तेल डालते रहते हैं.
वैसे घबराने की ज़रूरत नहीं है. ये सब इतनी जल्दी नहीं होगा. साठ साल लगे हैं इन्हें आपसे सीधा खड़ा होकर बात करने में अभी आपकी बराबरी पर पहुंचने में देर है. लेकिन कॉंफ़िडेंस क़ाबिले तारीफ़ है.
अब इस लड़की सुनीता को देखिए, आठवीं में पढ़ती है गांव के स्कूल में. न अंग्रेज़ी बोलनी आती है न हिंदी, बस कन्नड़. लेकिन बाई गॉड, आंखों की जो चमक है न उसे देखकर लगता है कि मौका मिला तो किसी दिन लाल किले पर झंडा फहराएगी..
हाथ में अलजेब्रा के सवालों का बड़ा सा पोस्टर लिए चार लेन की सड़क यूं पार करती है मानो लक्ष्मीबाई.
एक भाई साहब हैं ज्योति केसरी. अच्छे भले ढाबे पर रोटी सेंकते हैं लेकिन नज़र हमेशा आसमान की ओर है.
कहते हैं पढ़ना तो हमें हर हाल में है, तभी मैं अपना और अपने परिवार का नाम रौशन कर पाउंगा.
इंडिया जी ऐसा नहीं है कि हम आगे नहीं बढ़ना चाहते. सड़कों के किनारे जो आलीशान यूनिवर्सिटीज़ खुली हैं, हमारा भी दिल करता है कि हमारे बच्चे वहीं पढ़ें. तो एक छोटा सा ही दरवाज़ा हमारे लिए भी खुला रखते तो अच्छा होता. ये बच्चे समझदार हैं, पढ़ेंगे भी और ज़मीन से भी जुड़े रहेंगे.
इंडिया जी, बहुत बकबक कर चुका मैं. बस आख़िरी बात.
सड़कें चौड़ी हो गई हैं लेकिन हमारे लिए भी जगह रखिएगा, हम भी आ रहे हैं
अगर सारे लोग लेन में चलेंगे न, तो सब के लिए जगह बन जाएगी. पूरी सड़क पर फैलेंगे, तो दुर्घटना का ख़तरा बना रहेगा. और हंस कर या रोकर गुज़रना तो आपको यहीं से होगा न.

कैसी बात करते हैं...मैं और धमकी, कभी नहीं.

सदैव आपका

भारत