सोमवार, 15 सितंबर 2008
मायाजाल का अधूरा रहस्य
भारत की सियासत में मायावती एक बेहद दिलचस्प शख्सियत हैं। मायावती के मायाजाल का कोई मुकाबला नहीं दिखता। यहां तक कि उनकी तुलना उन दूसरे सूबेदारों से भी नहीं की जा सकती, जो अपनी आन, बान और शान में काफी बरसों से दनदना रहे हैं। मिसाल के लिए जयललिता, करुणानिधि, चंद्रबाबू नायडू, मुलायम सिंह और नरेन्द्र मोदी को लीजिए। इन सभी का अपना प्रभामंडल है और वे रीजनल पॉलिटिक्स में भारी हैसियत रखते हैं। लेकिन उनकी ताकत पूरी तरह उनकी पर्सनैलिटी में समाई हुई नहीं हैं। वे अपनी पार्टियों से उस तरह नहीं खेल सकते, जिस तरह मायावती। सिर्फ मायावती हैं, जिनका मतलब ही बीएसपी है। बीएसपी उनसे अलग नहीं है और वे ही हैं, जो एक क्षण में अपनी पार्टी के मौजूदा ढांचे को बिखरा कर एक नई पार्टी को जन्म दे सकती हैं। सोचिए, दूसरा कोई राजनेता यह नहीं कर सकता कि खुलेआम अपने गुप्त वारिस का ऐलान करे, जब लोग कयास लगाने में बिज़ी हों तो उसके निशाने पर आ रहे नेता की छुट्टी कर दे और फिर एक ऐसे शख्स को पार्टी का नैशनल वाइस प्रेज़िडंट बना दे जिसके बारे में कोई जानता ही नहीं। पिछले दिनों मीडिया इस तलाश में सिर पटकता रहा कि नए वीपी आलोक वर्मा कौन हैं? सिर्फ मायावती की पार्टी में ही ऐसा हो सकता है। मायावती बहुत कुछ ऐसा कर रही हैं और करेंगी जो पहले कभी देखा-सुना नहीं गया। वह केक काटने और हार पहनने को भी सियासी दांव में बदल सकती हैं। वह खुद को देवी बताकर अपनी मूर्तियां लगा सकती हैं। वह भारतीय सियासत में एक ऐसी स्टाइल की प्रतीक हैं, जो डिमॉक्रसी में अनहोनी लग सकती है। लेकिन उन्हें किसी की फिक्र नहीं है। उन्हें अपने अलावा किसी की ज़रूरत नहीं है। न अपने सहयोगियों की, न मीडिया की और न दूसरी पार्टियों की। क्योंकि इन सबको उनके साथ आना ही है। मायावती वन मैन आर्मी हैं, जिसे अपनी जीत का पक्का यकीन है और जो जीतता है, वही सिकंदर होता है। मायावती का यह यकीन उस सियासत के बीच एक ज़बर्दस्त अहंकार की तरह देखा जाता है, जिसकी हमें आदत पड़ चुकी है और जिसे हम मेनस्ट्रीम समझते हैं। मायावती हमें एक घुसपैठिए की तरह लगती हैं। यकीनन अपनी ताकत का अहंकार वहां है और हो भी क्यों नहीं? आखिर यूपी की सियासत में इतना उलटफेर कर डालने की कूवत और किसके पास है? लेकिन यही अहंकार मायावती की ताकत है। वह मेनस्ट्रीम की भद्र लीडर नहीं हैं और उन्हीं भावनाओं, अहसासों और इरादों के साथ अपना जाल रचती हैं, जो शह और मात के निर्मम खेल में होते हैं। उनकी सियासत एक ह्यूमन ड्रामा है, जिसमें कोई लिहाज़ नहीं। उनका मकसद साफ है। वह खुद को दलितों का सबसे बड़ा मसीहा समझती हैं। वह अपने दुश्मनों को ठिकाने लगाना चाहती हैं। उन्हें मनुवाद से बदला लेना है और वह प्राइम मिनिस्टर बनना चाहती हैं। दूसरे नेताओं की तरह उनमें सभ्य और सुशील दिखने की कोई बेताबी नहीं है। अपने मकसद के लिए वह दोस्त से गद्दारी और दुश्मन से प्यार कर सकती हैं। वह एक खुला पावर गेम खेल रही हैं और यह साफगोई उनके चाहने वालों को दीवाना बना देती है। लेकिन जैसा कि स्पाइडरमैन और सुपरमैन ने जाना, महान ताकत अपने साथ महान ज़िम्मेदारी भी लाती है। क्या मायावती को इसका अहसास है? हमें नहीं पता, क्योंकि मायावती का मैट्रिक्स अभी बुना ही जा रहा है। डिलीवर करने का वक्त अभी नहीं आया है। वह जिस इम्तहान की तैयारी कर रही हैं, वह कुछ दूर हो सकता है या शायद बहुत दूर। फिलहाल वह अपनी ताकत को आज़मा रही हैं, अपने वोटर के साथ प्रयोग कर रही हैं। यूपी जैसे बदहाल स्टेट को बदलने की कोई जल्दबाज़ी उन्हें नहीं है, क्योंकि यूपी सिर्फ एक पड़ाव है। वह उससे ज़्यादा करना चाहती हैं। वह पूरे देश को अपने इशारों पर चलाना चाहती हैं। आने वाले बरसों में मायावती की कहानी और भी दिलचस्प होती जाएगी। उनका मायाजाल और भी घना होता जाएगा। इस अद्भुत शख्सियत में हमारी दिलचस्पी सिर्फ सियासत के लेवल पर नहीं, इस नज़रिए से भी होनी चाहिए कि एक नए किस्म का कैरेक्टर कैसे इकसठ साल पुरानी डिमॉक्रसी से इंटरेक्ट करता है, वह हमारे सामने कैसा भारत लाता है, उसे चाहने और नकारने की जद्दोजहद में भारत क्या शक्ल लेता है और खुद वह कैरेक्टर कितना बदलता है? लेकिन अभी तक जिस मायावती को हम जानते हैं, वह आधा ही सच है। हम उनकी सियासत को देख रहे हैं, शायद उनकी ताकत को भी पहचान रहे हैं, जो अहंकार के खुले इज़हार के तौर पर सामने आती है। लेकिन हमें उनकी पर्सनल लाइफ के बारे में पता नहीं है। एक इंसान के तौर पर मायावती के हिस्से में भी डर, कमज़ोरियां और अकेलापन होंगे। इन्हें वह किस चीज़ से भरती होंगी? सपने और अहंकार अक्सर वे बहाने होते हैं, जिनसे हम खुद को पूरा करते हैं। वे हमारा 'आत्म' बन जाते हैं और हम सिर्फ उनके लिए जीते हैं। लेकिन फिर भी मायावती के जीवन में ऐसा बहुत कुछ होगा, तो उनके पावर गेम से भी ज़्यादा ह्यूमन और दिलचस्प होगा। मायाजाल का पूरा रहस्य शायद हम किसी दिन जान पाएं।
शनिवार, 6 सितंबर 2008
भारतीय मन, निर्वाण और आई-फोन
गुरुवार-शुक्रवार की आधी रात को एयरटेल और वोडाफोन के स्टोर्स पर ज्यादा भीड़ नहीं थी। कम से कम वैसी नहीं, जैसी अमेरिका, यूरोप और जापान में कुछ अरसा पहले देखी गई। वहां लोग मील भर लंबी कतार लगाए खड़े थे और जिसे भी एपल का आई-फोन खरीदने का सौभाग्य हासिल हो रहा था, वह टीवी कैमरों के सामने आई-फोन का चमचमाता इंटरफेस और अपनी बत्तीसी चमका रहा था। तो भारत जिस आधी रात का बेसब्री से इंतजार कर रहा था, उसमें ज्यादा भीड़ नहीं थी, और मैं भी वहां नहीं था। ऐसी गुंजाइश भी फिलहाल नहीं लगती कि मैं किसी स्टोर के आसपास देखा जाऊं। लेकिन मेरी नजर इस घटनाक्रम पर टिकी है और इस कोशिश में जो अनुभव मुझे हो रहा है, उसे आप चाहें तो भारतीय मन की एक झलक कह सकते हैं। भारतीय मन को आई-फोन का बेसब्री से इंतजार था। तभी से, जब वह करीब साल भर पहले अमेरिका में लॉन्च हुआ। यह मन उस देश का था, जो भयंकर रूप से गैजिट्स का दीवाना हो चला है। एसएमएस जिसके लिए अध्यात्म का मंत्र और मोबाइल जिसके लिए निर्वाण की सीढ़ी है। निर्वाण की तलाश में यह भारतीय मन आई-फोन पर जा अटका। जिसने भी एपल का आई-पॉड छुआ है, वह जानता है कि यह ललक कितनी गहरी हो सकती है। उसकी मुराद अप्रत्याशित तेजी से पूरी होती लग रही थी। आई-फोन का थ्री जी वर्ज़न अमेरिकी लॉन्च के कुछ ही महीनों के भीतर हिंदुस्तान आ रहा था और उसे मिस करना स्वर्ग की सीढ़ी से महज़ इसलिए उतर जाने जैसा था कि नाश्ते का टाइम हो गया हो। लेकिन स्वर्ग के रास्ते में भूख लगने के अलावा भी अड़चनें हैं। जैसे यह कि जिस आई-फोन को अमीर अमेरिकनों को आठ हजार रुपये के सब्सिडाइज्ड़ रेट पर बेचा जा रहा था, उसकी कीमत तीसरी दुनिया के देश भारत में 31 हजार रुपये तय हुई। भारतीय मन आपको जितना भी उतावला लगे, वह भयंकर तरीके से किफायत पसंद है, जिसे मार्किटिंग के लोग एक सचेत सौदागर मानते हैं। इसके बाद आधी रात को किसी स्टोर पर लाइन लगाने का कोई मतलब नहीं था। उसकी बजाय यह आत्मचिंतन का क्षण था। यह सोचने का कि बेहतरीन डिजाइन, शानदार फील, फ्लो, फीचर और स्टाइल के बावजूद आई-फोन आखिर है क्या? यहां तक कि आप उससे एसएमएस फॉरवर्ड भी नहीं कर सकते, रेडियो नहीं सुन सकते, जीपीएस आपके लिए बेकार है, क्योंकि आप को अपने रास्ते बखूबी मालूम हैं और उस थ्रीजी का आप क्या करेंगे, जो महीनों बाद एक्टिवेट होगा और विडियो स्ट्रीमिंग के लिए किसके पास वक्त है? फोन कुल मिलाकर बात करने की मशीन है, वैसे ही जैसे कपड़े शरीर ढकने के लिए हाते हैं और शरीर उम्र बिताने के लिए। भारतीय मन तर्कशील हुए बिना नहीं रह सकता था, जो कि उसे अपनी महान विरासत से हासिल हुआ है। यह मीमांसा ज्ञान के उस मोड़ तक पहुंच सकती थी, जहां मोह को आत्मा के छह सबसे बड़े शत्रुओं में गिना गया है। माया और मोह के इस जाल को तोड़ने का सबसे आसान तरीका था कि दस हजार रुपये खर्च किए जाएं और उस चीनी मोबाइल का सम्मानित स्वामी बना जाए, जो दिखने में आई-फोन का चचेरा भाई है। लेकिन जैसा कि शास्त्रों में साफ-साफ चेता दिया गया है, मोह का बंधन तोड़ना इतना आसान नहीं होता! तर्क का रास्ता आपको भूलभुलैया में ले जाता है और इसीलिए ज्ञान मार्ग पर प्रेम मार्ग को श्रेष्ठ बताया गया है। तर्कशील प्राणी सोचता है कि हर मोबाइल आई-फोन नहीं होता, जैसे हर म्यूज़िक प्लेयर आई-पॉड नहीं होता। मार्किटिंग के गुरु इसे प्राइस सेंसेटिव होते हुए भी भारतीय उपभोक्ता का क्वॉलिटी सेंसेटिव होना कहते हैं। वे आज के ज्ञानी हैं और जानते हैं कि आपकी आत्मा के ट्रिगर पॉइंट क्या हैं। तो ज्ञानियों द्वारा प्रकाशित कर दिए गए इस सत्य के मुताबिक भारतीय मन अपनी अंतर्यात्रा के नए मुकाम पर पहुंचता है- धैर्य। धैर्यशील को ही लक्ष्मी मिलती है। वह तय करता है कि उसे इंतजार करना चाहिए, क्योंकि जो ऊपर जाता है, वह नीचे भी आता है, जैसे रिलायंस पावर का शेयर! वह अपने मोबाइल को देखता है, जो उसके खरीदे जाने के एक महीने बाद दो से घटकर डेढ़ हजार पर आ गया था। इससे उसे ताकत मिलती है और वह स्टीव जॉब्स और एपल के दूसरे लोगों को पटखनी देने का सपना देखने लगता है। वह अचानक भाग्य, नियति, कर्म और प्रारब्ध जैसे शब्दों पर यकीन करने लगता है। इससे उसे सुकून मिलता है, क्योंकि किस्मत से ज्यादा और वक्त से पहले किसी को कुछ नहीं मिलता। लेकिन कुछ है, जो उसकी आत्मा पर ठक-ठक करता रहता है। जिस शास्त्र में यह लिखा है कि सब कुछ कर्मफल के अधीन है, उसी में कहीं यह भी है कि प्रारब्ध और पुरुषार्थ दो पंख हैं। कहीं वह धैर्यशील की जगह पुरुषार्थी तो नहीं था, जिसे लक्ष्मी मिलने की बात कही गई थी? उसे नश्वरता का अहसास सताने लगता है, क्योंकि कहते हैं कि सिकंदर की शवयात्रा में उसके हाथ कफन से बाहर फैले थे, ताकि लोग जान सकें कि इस दुनिया से कोई कुछ लेकर नहीं जाता। क्या इच्छा का दमन होना चाहिए? लेकिन 31 हजार? उससे 31 जोड़ी जूते, छह महीने का राशन, दस हजार सिगरेटें और यहां तक कि एक सस्ता लैपटॉप आ सकता है! लेकिन जूते, राशन, सिगरेट और लैपटॉप से आप फोन नहीं कर सकते। भारतीय मन को बात करनी है, स्टाइल से बात करनी है, दिखाते हुए बात करनी और बात करते हुए दिखाना है। उसे निर्वाण प्राप्त करना है। उसे ईश्वर के दर्शन करने हैं। क्या वह दूसरी कंपनियों के उन मॉडलों पर हाथ रखे, जिन्हें आई-फोन किलर कहा जा रहा है? उम्मीद करे कि किलर उस पर रहम करेगा और उसे भवबाधा से बाहर निकाल देगा? फिलहाल भारतीय मन का दिमाग तेजी से काम कर रहा है। उसे एक महान रहस्य खोलना है- क्या निर्वाण पाने का एक ही रास्ता होता है?
सोमवार, 1 सितंबर 2008
ट्विंकल ट्विंकल बिग स्टार, हाउ आइ वंडर...
सियासत के आकाश पर एक नया सितारा उगा है। अब तेलुगू फिल्मों के सुपर स्टार चिरंजीवी दक्कन में वही जादू जगाना चाहते हैं, जो 1982 में एन.टी. रामराव ने दिखाया था, या फिर उससे भी दस साल पहले तमिलनाडु में एम.जी. रामचंद्रन ने। चिरंजीवी के पास वह सब कुछ है, जो इन स्टार लीडर्स के पास था- जोरदार इमेज और जबर्दस्त पॉप्यलरिटी, जिसका अंदाजा इस हफ्ते शुरू में तिरुपति में हुई उनकी रैली से मिल जाता है। पॉलिटिक्स के सूरमा परेशानी महसूस कर रहे हैं और एक्सपर्ट एक नई सनसनी। चिरंजीवी बम साबित होंगे या पटाखा? वह हिस्ट्री को दोहराएंगे या उसी तरह चित्त हो जाएंगे, जैसे उनकी फिल्मों में विलेन होता है? बॉक्स ऑफिस के खुलने का इंतजार है। वक्त, चिरंजीवी और वोटर को अपना काम करने दे और फिलहाल हम उस बहुत पुरानी बहस पर लौटें कि विंध्याचल के उस पार की जमीन में यह कैसा जादू है, जो फिल्मी अदाकारों को सियासत का कामयाब खिलाड़ी बना देता है और इस पार की धरती इस मामले में बंजर क्यों साबित होती रही है? बिला शक अमिताभ बच्चन इंडियन सिनेमा के सबसे बड़े महानायक हैं, लेकिन वह इलाहाबाद में एक इलेक्शन जीतने से आगे नहीं बढ़ पाए। जिन आधा दर्जन दूसरे स्टार्स ने इस रास्ते पर चलने का हौसला दिखाया, वे ज्यादा से ज्यादा ऐसे एमपी बनकर रह गए, जिन्हें उनकी पार्टियां कैम्पेन के वक्त भीड़ खींचने से ज्यादा के काबिल नहीं समझतीं। माजरा क्या है?
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